प्रारम्भ में वैदिक उद्देश्य का पालन तीन प्रकार से (त्रयी ) किया जाता है—कर्म-काण्ड, ज्ञान- काण्ड तथा उपासना-काण्ड द्वारा। जब कोई व्यक्ति उपासना-काण्ड की पूर्णावस्था को प्राप्त होता है, तो वह नारायण या भगवान् विष्णु की पूजा करने लगता है। जब पार्वती ने भगवान् महादेव से पूछा कि उपासना की सर्वोत्तम विधि क्या है, तो शिवजी ने उत्तर दिया—आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्। विष्णूपासना या विष्ण्वाराधन सिद्धि की सर्वोच्च अवस्था है, जिसका अनुभव देवकी ने किया। किन्तु यशोदा यहाँ पर कोई उपासना नहीं करतीं क्योंकि उनमें कृष्ण के प्रति दिव्य प्रेम भाव उत्पन्न हो चुका है। अतएव उनकी दशा देवकी की दशा से श्रेष्ठतर है। यह दिखाने के लिए श्रील व्यासदेव लिखते हैं— त्रय्या चोपनिषद्भि:...। जब कोई व्यक्ति वेदों का अध्ययन विद्या (ज्ञान) प्राप्त करने के लिए करता है, तो वह मानव सभ्यता में भाग लेने लगता है। इसके बाद वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए उपनिषदों का अध्ययन करता है और तब परम नियन्ता को समझने के लिए सांख्य योग की ओर अग्रसर होता है जिन्हें भगवद्गीता में बताया गया है (परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्। पुरुषं शाश्वतं...)। जब मनुष्य उस पुरुष को परम नियंता परमात्मा के रूप में समझ लेता है, तो वह योग विधि में लग जाता है (ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिन:)। लेकिन माता यशोदा इन सारी अवस्थाओं को पार कर चुकी हैं। वे कृष्ण को अपने प्रिय पुत्र के रूप में मान चुकी हैं इसलिए उन्हें आत्म-साक्षात्कार की सर्वोच्च अवस्था पर स्थित माना जाता है। परम सत्य की अनुभूति तीन रूपों में होती है (ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान् इति शब्द्यते ) किन्तु वे ऐसे भाव को प्राप्त हैं कि वे ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् को समझने की परवाह भी नहीं करतीं। भगवान् उनका प्रिय पुत्र बनने के लिए स्वयं अवतरित हुए हैं। अतएव माता यशोदा के सौभाग्य की कोई बराबरी नहीं की जा सकती जैसाकि श्री चैतन्य महाप्रभु ने् कहा है (रम्या काचिद् उपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता )। परम सत्य अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अनुभूति विभिन्न अवस्थाओं में की जा सकती है। भगवद्गीता (४.११) में भगवान् कहते हैं— ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥ “मनुष्य जिस तरह मेरी शरण में आते हैं उन्हें मैं उसी तरह से पुरस्कृत करता हूँ। हे पृथा-पुत्र! हर व्यक्ति मेरे मार्ग का सभी प्रकार से अनुसरण करता है”। मनुष्य पहले कर्मी, फिर ज्ञानी, फिर योगी और तब भक्त या प्रेम-भक्त होता है। किन्तु साक्षात्कार की चरम अवस्था प्रेम-भक्ति है, जो वास्तविक अर्थों में माता यशोदा द्वारा प्रदर्शित की गई है। |