देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ “जिस तरह देहधारी आत्मा इस शरीर में निरन्तर बालपन से युवावस्था और फिर वृद्धावस्था से होकर गुजरता है उसी तरह मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। जो स्वरूपसिद्ध है, वह ऐसे परिवर्तन से मोहग्रस्त नहीं होता।” परम अधिकारी कृष्ण कहते हैं कि शरीर परिवर्तनशील है और ज्योंही शरीर बदलता है मनुष्य के सारे कार्यक्रम भी बदल जाते हैं। आज मैं एक मनुष्य हैं या कोई महान् व्यक्ति हूँ किन्तु प्रकृति के नियमों में थोड़े से भी परिवर्तन से मुझे भिन्न प्रकार का शरीर स्वीकार करना होगा। आज मैं मनुष्य हूँ किन्तु कल मैं कुत्ता बन सकता हूँ और तब इस जीवन में मैंने जो भी कार्य किये होंगे वे सब विफल हो जायेंगे। इस सचाई को विरले ही समझ पाते हैं किन्तु जो धीर है, वह इसे समझ सकता है। जो लोग इस भौतिक जगत में भौतिक भोग के लिए आये हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि क्योंकि उनका वर्तमान पद समाप्त होकर ही रहेगा अत: उन्हें अपने कर्म करने के प्रति सावधान रहना चाहिए। यही बात ऋषभदेव ने भी कही है। न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आसं देह: (भागवत ५.५.४)। यद्यपि यह शरीर नश्वर है किन्तु जब तक हम जीवित रहते हैं तब तक कष्ट सहना ही पड़ता है। चाहे जीवन अल्प हो या दीर्घ, हर एक को भौतिक जीवन के तीन ताप सहने ही होंगे। इसलिए धीर पुरुष को ज्योतिष में रुचि लेनी चाहिए। नन्द महाराज गर्गमुनि की उपस्थिति का लाभ उठाना चाह रहे थे क्योंकि गर्गमुनि ज्योतिष ज्ञान के प्रकाण्ड पंडित थे जिससे मनुष्य भूत, वर्तमान और भविष्य की अदृश्य घटनाएँ देख सकता है। पिता का कर्तव्य है कि वह अपनी सन्तानों की ज्योतिष-दशा जाने और उनके सुख के लिए जो भी आवश्यक हो करे। फलत: गर्गमुनि की उपस्थिति का लाभ उठाने की दृष्टि से नन्द महाराज ने सुझाव रखा कि गर्गमुनि उनके दोनों पुत्रों, कृष्ण तथा बलराम, की जन्मकुण्डली तैयार कर दें। |