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अध्याय 80: द्वारका में भगवान् श्रीकृष्ण से ब्राह्मण सुदामा की भेंट |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि भगवान् कृष्ण ने किस तरह अपने ब्राह्मण मित्र की पूजा की, जो उनके महल में दान माँगने आया था और किस तरह उन्होंने उन लीलाओं की चर्चा की,... |
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श्लोक 1: राजा परीक्षित ने कहा : हे प्रभु, हे स्वामी, मैं उन असीम शौर्य वाले भगवान् मुकुन्द द्वारा सम्पन्न अन्य शौर्यपूर्ण कार्यों के विषय में सुनना चाहता हूँ। |
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श्लोक 2: हे ब्राह्मण, जो जीवन के सार को जानता है और इन्द्रिय-तृप्ति के लिए प्रयास करने से ऊब चुका हो, वह भगवान् उत्तमश्लोक की दिव्य कथाओं को बारम्बार सुनने के बाद भला उनका परित्याग कैसे कर सकता है? |
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श्लोक 3: असली वाणी वही है, जो भगवान् के गुणों का वर्णन करती है, असली हाथ वे हैं, जो उनके लिए कार्य करते हैं, असली मन वह है, जो प्रत्येक जड़-चेतन के भीतर निवास करने वाले उन भगवान् का सदैव स्मरण करता है और असली कान वे हैं, जो निरन्तर उनकी पुण्य कथाओं का श्रवण करते हैं। |
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श्लोक 4: वास्तविक सिर वही है, जो जड़-चेतन के बीच भगवान् की अभिव्यक्तियों को नमन करता है। असली आँखें वे हैं, जो एकमात्र भगवान् का दर्शन करती हैं और असली अंग वे हैं, जो भगवान् या उनके भक्तों के चरणों को पखारने से प्राप्त जल का नियमित रूप से आदर करते हैं। |
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श्लोक 5: सूत गोस्वामी ने कहा : विष्णुरात द्वारा इस तरह प्रश्न किये जाने पर शक्तिसम्पन्न ऋषि बादरायणि ने, जिनका हृदय भगवान् वासुदेव के ध्यान में पूर्णतया लीन रहता था, यह उत्तर दिया। |
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श्लोक 6: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् कृष्ण का एक ब्राह्मण मित्र (सुदामा नामक) था, जो वैदिक ज्ञान में प्रकाण्ड पंडित था और समस्त इन्द्रिय-भोग से उदासीन था। इससे भी बढक़र, उसका मन शान्त था और उसकी इन्द्रियाँ संयमित थीं। |
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श्लोक 7: गृहस्थ के भाँति रहते हुए जो कुछ उसे अपने आप मिल जाता वह उसी से भरण-पोषण करता था। मैले-कुचैले वस्त्रधारी उस ब्राह्मण की पत्नी उसके साथ कष्ट भोग रही थी और भूख के कारण दुबली हो गई थी। |
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श्लोक 8: एक बार उस गरीब ब्राह्मण की सती-साध्वी पत्नी उसके पास आई। उसका मुख त्रास के कारण सूखा था। भय से काँपते हुए वह इस प्रकार बोली। |
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श्लोक 9: [सुदामा की पत्नी ने कहा] : हे ब्राह्मण, क्या यह सत्य नहीं है कि लक्ष्मीजी के पति आपके निजी मित्र हैं? यादवों में सर्वश्रेष्ठ वे भगवान् कृष्ण ब्राह्मणों पर दयालु हैं और उन्हें अपनी शरण देने के लिए अतीव इच्छुक हैं। |
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श्लोक 10: हे भाग्यवान्, आप समस्त सन्तों के असली शरण, उनके पास जाइये। वे निश्चय ही आप जैसे कष्ट भोगने वाले गृहस्थ को प्रचुर सम्पदा प्रदान करेंगे। |
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श्लोक 11: इस समय भगवान् कृष्ण भोजों, वृष्णियों तथा अन्धकों के शासक हैं और द्वारका में रह रहे हैं। चूँकि वे ऐसे भी व्यक्ति को, जो उनके चरणकमलों का केवल स्मरण करता हो अपने आपको दे देने वाले हैं, तो फिर इसमें क्या संशय है कि ब्रह्माण्ड के गुरु स्वरूप वे अपने निष्ठावान् आराधक को वैभव तथा भौतिक भोग प्रदान करेंगे, जो कोई विशेष अभीष्ट वस्तुएँ नहीं हैं? |
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श्लोक 12-13: [शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा] : जब उसकी पत्नी ने उससे नाना प्रकार से अनुरोध किया, तो ब्राह्मण ने अपने मन में सोचा, “भगवान् कृष्ण के दर्शन करना निस्सन्देह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।” अतएव उसने जाने का निश्चय कर लिया, किन्तु उसने पहले अपनी पत्नी से यों कहा, “हे कल्याणी, यदि घर में ऐसी कोई वस्तु हो, जिसे मैं भेंट रूप में ले जा सकूँ, तो मुझे दो।” |
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श्लोक 14: सुदामा की पत्नी अपने पड़ोसी ब्राह्मणों से चार मुट्ठी चावल (चिउड़ा) माँग लाई, उन्हें फटे वस्त्र के एक टुकड़े में बाँधा और भगवान् कृष्ण के लिए उपहार रूप में उसे अपने पति को दे दिया। |
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श्लोक 15: वह साधु ब्राह्मण चिउड़ा लेकर द्वारका के लिए रवाना हो गया और लगातार विस्मित होता रहा, “मैं किस तरह कृष्ण के दर्शन कर सकूँगा?” |
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श्लोक 16-17: विद्वान ब्राह्मण ने कुछ स्थानीय ब्राह्मणों के साथ मिलकर तीन सुरक्षा चौकियाँ पार कर लीं और तब वह तीन ड्योढिय़ों से होकर भगवान् कृष्ण के आज्ञाकारी भक्तों, अन्धकों तथा वृष्णियों के घरों के पास से गुजरा, जहाँ सामान्यतया कोई भी नहीं जा सकता था। तत्पश्चात् वह भगवान् हरि की सोलह हजार रानियों के ऐश्वर्यशाली महलों में से एक में घुसा और ऐसा करते समय उसे ऐसा अनुभव हुआ, मानो वह ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहा हो। |
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श्लोक 18: उस समय भगवान् अच्युत अपनी प्रियतमा के पलंग पर विराजमान थे। उस ब्राह्मण को कुछ दूरी पर देखकर भगवान् तुरन्त उठ खड़े हुए और मिलने के लिए आगे गये और बड़े ही हर्ष से उसका आलिंगन किया। |
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श्लोक 19: कमलनयन भगवान् को अपने प्रिय मित्र विद्वान ब्राह्मण के शरीर का स्पर्श करने पर गहन आनन्द की अनुभूति हुई और उनकी आँखों से प्रेम के आँसू झरने लगे। |
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श्लोक 20-22: भगवान् कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा को बिस्तर पर बैठाया। फिर समस्त जगत को पवित्र करने वाले भगवान् ने स्वयं नाना प्रकार से उसका आदर किया और हे राजन्, उसके पाँव धोये तथा उसी जल को अपने सिर के ऊपर छिडक़ा। उन्होंने उसके शरीर पर दिव्य सुगन्धित चन्दन, अगुरु तथा कुुंकुम का लेप किया और सुगन्धित धूप तथा दीपों की पंक्तियों से खुशी-खुशी उसकी पूजा की। अन्त में पान देने के बाद उसे दान में गाय दी और मधुर शब्दों से उसका स्वागत किया। |
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श्लोक 23: साक्षात् लक्ष्मी देवी ने अपनी चामर से पंखा झल कर, उस गरीब ब्राह्मण की सेवा की, जिसके वस्त्र फटे हुए और मैले थे और जो इतना दुर्बल था कि उसके सारे शरीर की नसें दिख रही थीं। |
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श्लोक 24: राजमहल के निवासी निर्मल कीर्ति वाले भगवान् कृष्ण को इस फटे-पुराने और मैले वस्त्र पहने ब्राह्मण का इतने प्रेम से सम्मान करते देख कर चकित हो गए। |
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श्लोक 25-26: [राजमहल के निवासियों ने कहा] : इस अस्त-व्यस्त निर्धन ब्राह्मण ने कौन-सा पुण्य-कर्म किया है? लोग उसे नीच तथा निन्दनीय मानते हैं फिर भी तीनों लोकों के गुरु और श्रीदेवी के धाम आदरपूर्वक उसकी सेवा कर रहे हैं। लक्ष्मी को अपने पलंग पर बैठा हुआ छोड़ कर भगवान् ने इस ब्राह्मण का आलिंगन किया है, मानो वह उनका बड़ा भाई हो। |
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श्लोक 27: [शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : हे राजन्, एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर कृष्ण तथा सुदामा अत्यन्त हर्ष के साथ बातें करते रहे कि किस तरह कभी वे दोनों अपने गुरु की पाठशाला में साथ-साथ रहे थे। |
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श्लोक 28: भगवान् ने कहा : हे ब्राह्मण, आप धर्म को भलीभाँति जानने वाले हैं। क्या गुरु-दक्षिणा देने के बाद तथा पाठशाला से घर लौटने के बाद आपने अपने अनुरूप पत्नी से विवाह किया या नहीं? |
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श्लोक 29: यद्यपि आप गृहकार्यों में प्राय: व्यस्त रहते हैं, किन्तु आपका मन भौतिक इच्छाओं से प्रभावित नहीं होता। न ही, हे विद्वान, आप भौतिक सम्पत्ति के पीछे पडऩे में अधिक रुचि लेते हैं। मैं यह भलीभाँति जानता हूँ। |
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श्लोक 30: कुछ लोग भगवान् की मायाशक्ति से उत्पन्न समस्त भौतिक लिप्साओं का परित्याग करके सांसारिक इच्छाओं से मन को अविचल रखते हुए सांसारिक कर्म सम्पन्न करते हैं। जिस तरह मैं सामान्य जनों को शिक्षा देने के लिए कर्म करता हूँ, वे उसी तरह कर्म करते हैं। |
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श्लोक 31: हे ब्राह्मण, क्या आपको स्मरण है कि हम किस तरह अपने गुरु की पाठशाला में एकसाथ रहते थे? जब कोई द्विज विद्यार्थी अपने गुरु से सीखने योग्य सबकुछ सीख चुकता है, तो वह आध्यात्मिक जीवन का आनन्द उठा सकता है, जो समस्त अज्ञान से परे है। |
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श्लोक 32: हे मित्र, व्यक्ति को भौतिक जन्म देने वाला ही उसका प्रथम गुरु होता है और जो उसे द्विज के रूप में ब्राह्मण की दीक्षा देता है तथा धर्म-कृत्यों में लगाता है, वह निस्सन्देह उसका अधिक प्रत्यक्ष गुरु होता है। किन्तु जो सभी आध्यात्मिक आश्रमों के सदस्यों को दिव्य ज्ञान प्रदान करता है, वह उसका परम गुरु होता है। निस्सन्देह वह मुझ जैसा होता है। |
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श्लोक 33: हे ब्राह्मण, यह निश्चित है कि वर्णाश्रम प्रणाली के सारे अनुयायियों में से, जो लोग गुरु रूप में मेरे द्वारा कहे गये शब्दों से लाभ उठाते हैं और भवसागर को सरलता से पार कर लेते हैं, वे ही अपने असली कल्याण को सबसे अच्छी तरह समझ पाते हैं। |
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श्लोक 34: सभी जीवों का आत्मा स्वरूप मैं अनुष्ठानिक पूजा, ब्राह्मण-दीक्षा, तपस्या अथवा आत्मानुशासन द्वारा उतना तुष्ट नहीं होता, जितना कि मनुष्य की अपने गुरु के प्रति की गई श्रद्धापूर्ण सेवा द्वारा तुष्ट होता हूँ। |
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श्लोक 35-36: हे ब्राह्मण, क्या आपको स्मरण है कि जब हम अपने गुरु के साथ रह रहे थे, तो हमारे साथ क्या घटना घटी थी? एक बार हमारे गुरु की पत्नी ने हमें जलाऊ लकड़ी लाने के लिए भेजा और हे द्विज, जब हम एक विशाल जंगल में प्रविष्ट हुए, तो तीव्र हवा और वर्षा के साथ साथ कर्कश गर्जन से युक्त असामयिक तूफान आ गया था। |
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श्लोक 37: तब सूर्यास्त होते ही जंगल प्रत्येक दिशा में अंधकार से ढक गया और बाढ़ आ जाने से हम ऊँची तथा नीची भूमि में अन्तर नहीं कर पा रहे थे। |
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श्लोक 38: जोरदार हवा और अनवरत वर्षा की चपेट में आकर हम बाढ़ के जल में अपना रास्ता भटक गये। हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया और अत्यन्त संकट में पड़ कर, हम जंगल में निरुद्देश्य घूमते रहे। |
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श्लोक 39: हमारे गुरु सान्दीपनि हमारी विषम स्थिति को समझ कर सूर्योदय होने पर हम शिष्यों की खोज करने के लिए निकल पड़े और हमें विपत्ति में फँसा पाया। |
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श्लोक 40: [सान्दीपनि ने कहा] : मेरे बच्चो, तुमने मेरे लिए इतना कष्ट सहा है, हर जीव को अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है, किन्तु तुम मेरे प्रति इतने समर्पित हो कि तुमने अपनी सुविधा की बिल्कुल परवाह नहीं की। |
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श्लोक 41: दरअसल सारे सच्चे शिष्यों का यही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध हृदय से अपने धन तथा अपने प्राणों तक को अर्पित करके अपने गुरु के ऋण से उऋण हों। |
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श्लोक 42: हे बालको, तुम उत्तम श्रेणी के ब्राह्मण हो और मैं तुमसे संतुष्ट हूँ। तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरी हों और तुमने जो वैदिक मंत्र सीखे हैं, वे इस जगत में या अगले जगत में तुम्हारे लिए कभी अपना अर्थ न खोयें। |
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श्लोक 43: [भगवान् कृष्ण ने आगे कहा] : अपने गुरु के घर में रहते समय हमें इस तरह के अनेकानेक अनुभव हुए। कोई भी व्यक्ति अपने गुरु की कृपा मात्र से जीवन के प्रयोजन को पूरा कर सकता है और शाश्वत शान्ति पा सकता है। |
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श्लोक 44: ब्राह्मण ने कहा : हे देवों के देव, हे जगद्गुरु, चूँकि मैं पूर्णकाम अपने गुरु के घर पर आपके साथ रह सका, अत: मुझे अब प्राप्त करने के लिए बचा ही क्या है? |
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श्लोक 45: हे विभु, आपका शरीर वेदों के रूप में ब्रह्ममय है और इस तरह जीवन के समस्त शुभ लक्ष्यों का स्रोत है। आपने गुरु की पाठशाला में जो निवास किया, वह तो आपकी लीलाओं में से एक है, जिसमें आप मनुष्य की भूमिका का निर्वाह करते हैं। |
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