स एवं भार्यया विप्रो बहुश: प्रार्थितो मुहु: ।
अयं हि परमो लाभ उत्तम:श्लोकदर्शनम् ॥ १२ ॥
इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे ।
अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद् गृहे कल्याणि दीयताम् ॥ १३ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; एवम्—इस प्रकार; भार्यया—अपनी पत्नी द्वारा; विप्र:—ब्राह्मण; बहुश:—अनेक प्रकार से; प्रार्थित:—प्रार्थना किया गया; मुहु:—पुन: पुन:; अयम्—यह; हि—निस्सन्देह; परम:—परम; लाभ:—लाभ; उत्तम:-श्लोक—भगवान् कृष्ण का; दर्शनम्—दर्शन; इति—इस प्रकार; सञ्चिन्त्य—सोच कर; मनसा—अपने मन में; गमनाय—जाने के लिए; मतिम् दधे— निर्णय किया; अपि—क्या; अस्ति—है; उपायनम्—उपहार; किञ्चित्—कुछ; गृहे—घर में; कल्याणि—मेरी अच्छी स्त्री; दीयताम्—मुझे दो ।.
अनुवाद
[शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा] : जब उसकी पत्नी ने उससे नाना प्रकार से अनुरोध किया, तो ब्राह्मण ने अपने मन में सोचा, “भगवान् कृष्ण के दर्शन करना निस्सन्देह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।” अतएव उसने जाने का निश्चय कर लिया, किन्तु उसने पहले अपनी पत्नी से यों कहा, “हे कल्याणी, यदि घर में ऐसी कोई वस्तु हो, जिसे मैं भेंट रूप में ले जा सकूँ, तो मुझे दो।”
तात्पर्य
सुदामा प्रकृति से विनीत था और यद्यपि वह अपनी पत्नी के प्रस्ताव से पहले असन्तुष्ट था, किन्तु अन्त में उसने मन को स्थिर किया और जाने का निश्चय किया। अब उसे अपने मित्र के लिए कुछ उपहार चाहिए था।
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