श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 81: भगवान् द्वारा सुदामा ब्राह्मण को वरदान  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में बतलाया गया है कि भगवान् कृष्ण ने किस तरह अपने मित्र सुदामा द्वारा लाये गये तंदुल का एक कौर खाकर, उसे स्वर्ग के राजा से भी बढक़र सम्पदा प्रदान की।...
 
श्लोक 1-2:  [शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : भगवान् हरि अर्थात् कृष्ण सभी जीवों के हृदयों से भलीभाँति परिचित हैं और वे ब्राह्मणों के प्रति विशेष रूप से अनुरक्त रहते हैं। समस्त सन्त पुरुषों के लक्ष्य भगवान् सर्वश्रेष्ठ द्विज से इस तरह बातें करते हुए हँसने लगे और अपने प्रिय मित्र ब्राह्मण सुदामा की ओर स्नेहपूर्वक देखते हुए तथा मुसकाते हुए निम्नलिखित शब्द कहे।
 
श्लोक 3:  भगवान् ने कहा : हे ब्राह्मण, तुम अपने घर से मेरे लिए कौन-सा उपहार लाये हो? शुद्ध प्रेमवश अपने भक्तों द्वारा प्रस्तुत की गई छोटी से छोटी भेंट को भी मैं बड़ी मानता हूँ, किन्तु अभक्तों द्वारा चढ़ाई गई बड़ी से बड़ी भेंट भी मुझे तुष्ट नहीं कर पाती।
 
श्लोक 4:  यदि कोई मुझे प्रेम तथा भक्ति के साथ एक पत्ती, फूल, फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।
 
श्लोक 5:  [शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा] : हे राजन्, इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भी वह ब्राह्मण लक्ष्मी के पति को मुट्ठी-भर तंदुल देने में अत्यधिक हिचकिचा रहा था। बस, वह लज्जा के मारे अपना सिर नीचे किये रहा।
 
श्लोक 6-7:  समस्त जीवों के हृदयों में प्रत्यक्ष साक्षी स्वरूप होने के कारण भगवान् कृष्ण भलीभाँति समझ गये कि सुदामा उनसे मिलने क्यों आया है। अत: उन्होंने सोचा, “इसके पूर्व मेरे मित्र ने कभी भी भौतिक ऐश्वर्य की इच्छा से मेरी पूजा नहीं की है, किन्तु अब वही अपनी सती तथा पति-परायणा पत्नी को सन्तुष्ट करने के लिए मेरे पास आया है। मैं उसे वह सम्पदा प्रदान करूँगा, जो अमर देवतागण भी कभी प्राप्त नहीं कर सकते।”
 
श्लोक 8:  इस प्रकार सोचते हुए भगवान् ने ब्राह्मण के वस्त्र में से कपड़े के पुराने टुकड़े में बँधे तन्दुल के दानों को छीन लिया और कह उठे, “यह क्या है?”
 
श्लोक 9:  “हे मित्र, क्या इसे मेरे लिए लाये हो? इससे मुझे बहुत खुशी हो रही है। निस्सन्देह तन्दुल के ये थोड़े-से दाने न केवल मुझे, अपितु सारे ब्रह्माण्ड को तुष्ट करने वाले हैं।”
 
श्लोक 10:  यह कहकर भगवान् ने एक मुट्ठी खाई और दूसरी मुट्ठी खाने ही वाले थे कि पति-परायणा देवी रुक्मिणी ने उनका हाथ पकड़ लिया।
 
श्लोक 11:  [महारानी रुक्मिणी ने कहा] : हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, इस जगत में तथा अगले जगत में सभी प्रकार की प्रभूत सम्पदा दिलाने के लिए यह पर्याप्त है। आखिर, किसी की समृद्धि आपकी तुष्टि पर ही तो निर्भर है।
 
श्लोक 12:  [शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा] : उस ब्राह्मण ने जी-भरकर खाने-पीने के बाद वह रात्रि भगवान् अच्युत के महल में बिताई। उसे ऐसा अनुभव हुआ, मानो वह वैकुण्ठ-लोक में आ गया हो।
 
श्लोक 13:  अगले दिन ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता आत्माराम भगवान् कृष्ण द्वारा सम्मानित होकर सुदामा घर के लिए चल पड़ा। हे राजन्, वह ब्राह्मण मार्ग पर चलते हुए अत्यधिक हर्षित था।
 
श्लोक 14:  यद्यपि सुदामा को बाह्य रूप से भगवान् कृष्ण से कोई धन प्राप्त नहीं हुआ था, फिर भी वह अपनी ओर से कुछ भी माँगने में अत्यधिक सकुचा रहा था। वह यह अनुभव करते हुए पूर्ण सन्तुष्ट होकर लौटा कि उसने भगवान् के दर्शन पा लिये हैं।
 
श्लोक 15:  [सुदामा ने सोचा] : भगवान् कृष्ण ब्राह्मण-भक्त के रूप में विख्यात हैं और अब मैंने स्वयं इस भक्ति को देख लिया है। निस्सन्देह लक्ष्मीजी को अपने वक्षस्थल पर धारण करने वाले उन्होंने सबसे दरिद्र भिखारी का आलिंगन किया है।
 
श्लोक 16:  मैं कौन हूँ? एक पापी, निर्धन ब्राह्मण और कृष्ण कौन हैं? भगवान्, छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण। तो भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है।
 
श्लोक 17:  उन्होंने मेरे साथ अपने भाइयों जैसा वर्ताव किया और अपनी प्रियतमा के पलंग पर बैठाया। और चूँकि मैं थका हुआ था, इसलिए उनकी रानी ने चामर से स्वयं मुझ पर पंखा झला।
 
श्लोक 18:  यद्यपि वे समस्त देवताओं के स्वामी हैं और समस्त ब्राह्मणों के पूज्य हैं, फिर भी उन्होंने मेरे पाँवों की मालिश करके तथा अन्य विनीत सुश्रूषाओं द्वारा मेरी इस तरह पूजा की, मानो मैं ही देवता हूँ।
 
श्लोक 19:  मनुष्य स्वर्ग में, मोक्ष में, रसातल में तथा इस पृथ्वी पर जितनी भी सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है, उसका आधारभूत कारण उनके चरणकमलों की भक्ति है।
 
श्लोक 20:  यह सोचकर कि यदि यह निर्धन बेचारा सहसा धनी हो जायेगा, तो वह मदमत्त करने वाले सुख में मुझे भूल जायेगा, दयालु भगवान् ने मुझे रंचमात्र भी धन नहीं दिया।
 
श्लोक 21-23:  [शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : इस प्रकार अपने आप सोचते-सोचते सुदामा अन्तत: उस स्थान पर आ पहुँचा, जहाँ उसका घर हुआ करता था। किन्तु अब वह स्थान सभी ओर से ऊँचे भव्य महलों से घनीभूत था, जो सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमा के सम्मिलित तेज से होड़ ले रहे थे। वहाँ आलीशान आँगन तथा बगीचे थे, जो कूजन करते हुए पक्षियों के झुंडों से भरे थे और जलाशयों से सुशोभित थे, जिनमें कुमुद, अम्भोज, कह्लार तथा उत्पल नामक कमल खिले हुए थे। अगवानी के लिए उत्तम वस्त्र धारण किये पुरुष तथा हिरनियों जैसी आँखों वाली स्त्रियाँ खड़ी थीं। सुदामा चकित था कि यह सब क्या है? यह किसकी संपत्ति है? और यह सब कैसे हुआ?
 
श्लोक 24:  जब वह इस तरह सोच-विचार में डूबा था, तो देवताओं जैसे तेजवान सुन्दर पुरुष तथा दासियाँ उँचे स्वर में गीत गाती तथा बाजे के साथ अपने अत्यन्त भाग्यशाली स्वामी का सत्कार करने आगे आईं।
 
श्लोक 25:  जब ब्राह्मण की पत्नी ने सुना कि उसका पति आया है, तो वह हर्ष के मारे तुरन्त घर से बाहर निकल आई। वह दिव्य धाम से निकलने वाली साक्षात् लक्ष्मी जैसी लग रही थी।
 
श्लोक 26:  जब उस पतिव्रता स्त्री ने अपने पति को देखा, तो उसकी आँखें प्रेम तथा उत्सुकता के आँसुओं से भर आईं। अपनी आँखें बन्द किये विचारमग्न होकर उसने पतिको प्रणाम किया और मन ही मन उसका आलिंगन कर लिया।
 
श्लोक 27:  सुदामा अपनी पत्नी को देखकर चकित था। रत्नजटित लॉकेटों से अलंकृत दासियों के बीच चमक रही वह उसी तरह तेजोमय लग रही थी, जिस तरह कोई देवी अपने दैवी-विमान में दीपित हो।
 
श्लोक 28:  उसने आनन्दपूर्वक अपनी पत्नी को साथ लिए अपने घर में प्रवेश किया, जहाँ सैकड़ों रत्नजटित ख भे थे, जैसे देवराज महेन्द्र के महल में हैं।
 
श्लोक 29-32:  सुदामा के घर में दूध के झाग सदृश कोमल तथा सफेद पलंग थे, जिनके पाए हाथी-दाँत के बने थे और सोने से अलंकृत थे। वहाँ कुछ सोफे भी थे, जिनके पाए सोने के थे। साथ ही राजसी चामर पंखे, सुनहरे सिंहासन, मुलायम गद्दे तथा मोती की लड़ों से लटकते चमचमाते चँदोवे थे। चमकते स्फटिक की दीवालों पर बहुमूल्य मरकत-मणि (पन्ने) जड़े थे और रत्नजटित दीपक प्रकाशमान थे। उस महल की सारी स्त्रियाँ बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत थीं। जब उस ब्राह्मण ने सभी प्रकार का यह विलासमय ऐश्वर्य देखा, तो उसने शान्त भाव से इस आकस्मिक समृद्धि के विषय में अपने मन में तर्क किया।
 
श्लोक 33:  [सुदामा ने सोचा] : मैं सदैव से निर्धन रहा हूँ। निश्चय ही मुझ जैसे अभागे व्यक्ति का एकाएक धनी हो जाने का एकमात्र सम्भावित कारण यही हो सकता है कि यदुवंश के परम ऐश्वर्यशाली प्रधान भगवान् कृष्ण ने मुझ पर अपनी कृपा-दृष्टि की है।
 
श्लोक 34:  आखिर, दाशार्हों में सर्वश्रेष्ठ तथा असीम सम्पदा के भोक्ता, मेरे मित्र कृष्ण ने देखा कि मैं चुपके से उनसे माँगना चाहता था। इस तरह जब मैं उनके समक्ष खड़ा था, तो यद्यपि उन्होंने इसके विषय में कुछ कहा नहीं, तो भी उन्होंने मुझे प्रचुर सम्पदा प्रदान की है। उन्होंने दयावान वर्षा वाले बादल जैसा कार्य किया है।
 
श्लोक 35:  भगवान् अपने बड़े से बड़े वर को तुच्छ मानते हैं, किन्तु अपने शुभचिन्तक भक्त द्वारा की गई तुच्छ सेवा को बहुत बढ़ा देते हैं। इस तरह परमात्मा ने मेरे द्वारा लाये गये एक मुट्ठी तंदुल को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
 
श्लोक 36:  भगवान् समस्त दिव्य गुणों के परम दयामय आगार हैं। मैं जन्म-जन्मांतर प्रेम, मित्रता तथा सहानुभूति के साथ उनकी सेवा करूँ और उनके भक्तों के बहुमूल्य सान्निध्य से ऐसी दृढ़ अनुरक्ति उत्पन्न करूँ।
 
श्लोक 37:  जिस भक्त में आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि (समझ) नहीं होती, उसे भगवान् कभी भी इस जगत का विचित्र ऐश्वर्य—राजसी शक्ति तथा भौतिक सम्पत्ति—नहीं सौंपते। दरअसल अपने अथाह ज्ञान से अजन्मा भगवान् भलीभाँति जानते हैं कि किस तरह गर्व का नशा किसी धनी का पतन कर सकता है।
 
श्लोक 38:  [शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : इस तरह अपनी आध्यात्मिक बुद्धि के द्वारा अपने संकल्प को दृढ़ करते हुए सुदामा समस्त जीवों के आश्रय भगवान् कृष्ण के प्रति पूर्णतया अनुरक्त बना रहा। उसने धनलिप्ता से रहित होकर अपनी पत्नी के साथ साथ उस इन्द्रिय-सुख का भोग, अन्तत: समस्त इन्द्रिय-तृप्ति का परित्याग करने के विचार (अनासक्त भाव) से किया जो उसे प्रदान किया गया था।
 
श्लोक 39:  भगवान् हरि समस्त ईश्वरों के ईश्वर, समस्त यज्ञों के स्वामी तथा सृष्टि के परम शासक हैं। लेकिन वे सन्त ब्राह्मणों को अपना स्वामी मानते हैं, अत: उनसे बढक़र कोई अन्य देव नहीं रह जाता।
 
श्लोक 40:  इस तरह यह देखते हुए कि अजेय भगवान् किस प्रकार से अपने दासों द्वारा जीत लिये जाते हैं, भगवान् के प्रिय ब्राह्मण मित्र को अनुभव हुआ कि उसके हृदय में भौतिक आसक्ति की जो ग्रंथियाँ शेष रह गई थीं, वे भगवान् के निरन्तर ध्यान के बल पर कट गई हैं। उसने अल्प काल में भगवान् कृष्ण का परम धाम प्राप्त किया, जो महान् सन्तों का गन्तव्य है।
 
श्लोक 41:  भगवान् सदैव ही ब्राह्मणों के प्रति विशेष कृपा दर्शाते हैं। जो भी ब्राह्मणों के प्रति भगवान् की दया के इस विवरण को सुनेगा, उसमें भगवत्प्रेम उत्पन्न होगा और इस तरह वह भौतिक कर्म के बन्धन से छूट जायेगा।
 
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