भक्ताय चित्रा भगवान् हि सम्पदो
राज्यं विभूतीर्न समर्थयत्यज: ।
अदीर्घबोधाय विचक्षण: स्वयं
पश्यन् निपातं धनिनां मदोद्भवम् ॥ ३७ ॥
शब्दार्थ
भक्ताय—उनके भक्त के लिए; चित्रा:—विचित्र; भगवान्—भगवान्; हि—निस्सन्देह; सम्पद:—ऐश्वर्य; राज्यम्—राज्य; विभूती:—भौतिक सम्पत्ति; न समर्थयति—प्रदान नहीं करता; अज:—अजन्मा; अदीर्घ—छोटा; बोधाय—जिसकी समझ; विचक्षण:—चतुर; स्वयम्—स्वयं; पश्यन्—देखते हुए; निपातम्—पतन; धनिनाम्—धनी का; मद—गर्व से उत्पन्न नशे का; उद्भवम्—उत्थान ।.
अनुवाद
जिस भक्त में आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि (समझ) नहीं होती, उसे भगवान् कभी भी इस जगत का विचित्र ऐश्वर्य—राजसी शक्ति तथा भौतिक सम्पत्ति—नहीं सौंपते। दरअसल अपने अथाह ज्ञान से अजन्मा भगवान् भलीभाँति जानते हैं कि किस तरह गर्व का नशा किसी धनी का पतन कर सकता है।
तात्पर्य
जैसाकि श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती द्वारा व्याख्या की गयी है, विनम्र ब्राह्मण सुदामाने अपने आपको भगवान् के दुर्लभ बहुमूल्य वर, शुद्ध भक्ति, के लिए सर्वथा अयोग्य माना था। उसने तर्क दिया कि यदि वास्तव में उसमें शुद्ध भक्ति रहती तो भगवान् निश्चित रूप से उसे अविचल संपूर्ण भक्ति प्रदान करते न कि भौतिक सम्पत्ति तथा दास-दासी का सुख। भगवान् कृष्ण ऐसे विपथनों को न प्रदान करके एक गम्भीर भक्त की रक्षा करते। भगवान् एक निष्ठावान् किन्तु अल्पज्ञ भक्त को उसकी इच्छित सम्पत्ति प्रदान नहीं करते अपितु उतना ही प्रदान करते हैं जितने से उसकी भक्ति अग्रसर होती रहे। सुदामा ने सोचा, “प्रह्लाद महाराज जैसे महान् सन्त तो अपार सम्पत्ति, बल तथा यश से दूषित होने से बच सकते हैं, किन्तु मुझे अपनी इस नवीन परिस्थिति में लोभ से सदैव सावधान रहना होगा।”
हम यह समझ सकते हैं कि इस दीन-भाव से भगवान् कृष्ण की महिमा के श्रवण एवं कीर्तन की प्रामाणिक प्रक्रिया द्वारा भक्तियोग को पूरा करने में विप्र सुदामा को सफलता प्राप्त हो सकी।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.