ये सुप्रसिद्ध शब्द भगवान् द्वारा भगवद्गीता (९.२६)में भी कहे गये हैं। उपर्युक्त भावार्थ तथा शब्दार्थ श्रील प्रभुपाद के भगवद्गीता यथारूप से लिये गये हैं। सुदामा के द्वारका गमन की वर्णित घटना के प्रसंग में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती भगवान् कृष्ण के वाक्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं—यह श्लोक सुदामा की उस चिन्ता का उत्तर है कि उसके द्वारा लाई गई अनुपयुक्त भेंट की सोच अविवेकपूर्ण थी। भक्त्या प्रयच्छति तथा भक्त्युपहृतम् शब्द भले ही अनावश्यक लगें, क्योंकि दोनों का अर्थ “भक्तिपूर्वक भेंट करना” है किन्तु भक्त्या शब्द यह सूचित करता है कि भगवान् प्रेमपूर्वक भेंट करने वाले की भक्ति का किस तरह से आदान-प्रदान करते हैं।
दूसरे शब्दों में, भगवान् कृष्ण यह घोषित करते हैं कि शुद्ध प्रेम-विनिमय भेंट के बाह्य गुण पर निर्भर नहीं करता। कृष्ण कहते हैं, “कोई वस्तु भले ही अपने में प्रभावशाली अथवा सुखद हो या न हो किन्तु जब भक्त उस वस्तु को भक्तिपूर्वक मुझे इस आशा के साथ अर्पित करता है कि मैं उसका आस्वादन करूँगा तो इससे मुझे अतिशय आनन्द होता है। इसमें मैं कोई भेदभाव नहीं बरतता।” अश्नामि क्रिया का भाव यह है कि भगवान् कृष्ण फूल तक को खा लेते हैं, जो सूँघने की वस्तु है, क्योंकि अपने भक्त के लिए अनुभव किये जाने वाले भावमय प्रेम में वे विभोर हो जाते हैं।
हो सकता है कि भगवान् से कोई यह प्रश्न करे, “तो क्या आप भक्त द्वारा किसी अन्य अर्चाविग्रह को अर्पित वस्तु नकार देंगे?” भगवान् उत्तर देते हैं, “हाँ, मैं उसे खाने से इनकार कर दूँगा।” इसे भगवान् प्रयतात्मन: शब्द द्वारा कहते हैं जिसका अर्थ है “मेरी भक्ति के द्वारा ही मनुष्य शुद्ध हृदय वाला बन सकता है।”