श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 82: वृन्दावनवासियों से कृष्ण तथा बलराम की भेंट  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में यह बतलाया गया है कि सूर्य-ग्रहण के अवसर पर किस तरह यदुगण तथा अनेक अन्य राजा कुरुक्षेत्र में मिले और उन्होंने भगवान् कृष्ण से सम्बन्धित कथाओं की...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार जब बलराम तथा कृष्ण द्वारका में रह रहे थे, तो ऐसा विराट सूर्य-ग्रहण पड़ा मानो, भगवान् ब्रह्मा के दिन का अन्त हो गया हो।
 
श्लोक 2:  हे राजन्, पहले से इस ग्रहण के विषय में जानते हुए अनेक लोग पुण्य अर्जित करने की मंशा से समन्तपञ्चक नामक पवित्र स्थान में गये।
 
श्लोक 3-6:  पृथ्वी को राजाओं से विहीन करने के बाद योद्धाओं में सर्वोपरि भगवान् परशुराम ने समन्तपञ्चक में राजाओं के रक्त से विशाल सरोवरों की उत्पत्ति की। यद्यपि परशुराम पर कर्मफलों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, फिर भी सामान्य जनता को शिक्षा देने के लिए उन्होंने वहाँ पर यज्ञ किया। इस तरह अपने को पापों से मुक्त करने के लिए उन्होंने सामान्य व्यक्ति जैसा आचरण किया। अब इस समन्तपञ्चक में तीर्थयात्रा के लिए भारतवर्ष के सभी भागों से बहुत बड़ी संख्या में लोग आये थे। हे भरतवंशी, इस तीर्थस्थल में आये हुए लोगों में अनेकवृष्णिजन—यथा गद, प्रद्युम्न तथा साम्ब—अपने-अपने पापों से छुटकारा पाने के लिए आये थे। अक्रूर, वसुदेव, आहुक तथा अन्य राजा भी वहाँ गये थे। द्वारका की रक्षा करने के लिए सुचन्द्र, शुक तथा सारण के साथ अनिरुद्ध एवं उन्हीं के साथ उनकी सशस्त्र सेनाओं के नायक कृतवर्मा भी रह गये थे।
 
श्लोक 7-8:  बलशाली यदुगण बड़ी शान से मार्ग से होकर गुजरे। उनके साथ साथ उनके सैनिक थे, जो स्वर्ग के विमानों से होड़ लेने वाले रथों पर, ताल-ताल पर पग रख कर चल रहे घोड़ों पर तथा बादलों जैसे विशाल एवं चिंग्घाड़ते हाथियों पर सवार थे। उनके साथ दैवी विद्याधरों के ही समान तेजवान अनेक पैदल सिपाही भी थे। सोने के हारों तथा फूल की मालाओं से सज्जित एवं कवच धारण किये हुये यदुगण दैवी वेशभूषा में इस तरह शोभा दे रहे थे कि जब वे अपनी पत्नियों के साथ मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे, तो ऐसा लग रहा था, मानो आकाश-मार्ग से होकर देवतागण उड़ रहे हों।
 
श्लोक 9:  समन्तपञ्चक में सन्त स्वभाव वाले उन यादवों ने स्नान किया और फिर अत्यन्त सावधानी के साथ उपवास रखा। तत्पश्चात् उन्होंने ब्राह्मणों को वस्त्रों, फूल-मालाओं तथा सोने के हारों से सज्जित गौवें दान में दीं।
 
श्लोक 10:  तत्पश्चात् वृष्णिवंशियों ने शास्त्रीय आदेशों के अनुसार एक बार फिर परशुराम के सरोवरों में स्नान किया और उत्तम कोटि के ब्राह्मणों को अच्छा भोजन कराया। उन्होंने उस समय यही प्रार्थना की, “हमें भगवान् कृष्ण की भक्ति प्राप्त हो।”
 
श्लोक 11:  फिर अपने एकमात्र आराध्यदेव भगवान् कृष्ण की अनुमति से वृष्णियों ने कलेवा किया और फुरसत में होने पर शीतल छाया प्रदान करने वाले वृक्षों के नीचे बैठ गये।
 
श्लोक 12-13:  यादवों ने देखा कि वहाँ पर आये अनेक राजा उनके पुराने मित्र तथा सम्बन्धी—मत्स्य, उशीनर, कौशल्य, विदर्भ, कुरु, सृञ्जय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ती तथा आनर्त एवं केरल देशों के राजा थे। उन्होंने अन्य सैकड़ों राजाओं को भी देखा, जो स्वपक्षी तथा विपक्षी दोनों ही थे। इसके अतिरिक्त हे राजा परीक्षित, उन्होंने अपने प्रिय मित्रों, नन्द महाराज तथा ग्वालों और गोपियों को देखा, जो दीर्घकाल से चिन्तित होने के कारण दुखी थे।
 
श्लोक 14:  जब एक-दूसरे को देखने की अत्याधिक हर्ष से उनके हृदय तथा मुखकमल नवीन सौन्दर्य से खिल उठे, तो पुरुषों ने एक-दूसरे का उल्लासपूर्वक आलिंगन किया। अपने नेत्रों से अश्रु गिराते हुए, रोमांचित शरीर वाले तथा रुँधी वाणी से उन्होंने उत्कट आनन्द का अनुभव किया।
 
श्लोक 15:  स्त्रियों ने प्रेममयी मैत्री की शुद्ध मुसकानों से एक-दूसरे को निहारा। और जब उन्होंने आलिंगन किया, तो केसर के लेप से लेपित उनके स्तन एक-दूसरे के जोर से दब गये और उनके नेत्रों में स्नेह के आँसू भर आये।
 
श्लोक 16:  तब उन सबों ने अपने वरिष्ठजनों को नमस्कार किया और अपने से छोटे सम्बन्धियों से आदर प्राप्त किया। एक-दूसरे से यात्रा की सुख-सुविधा एवं कुशल-क्षेम पूछने के बाद, वे कृष्ण के विषय में बातें करने लगीं।
 
श्लोक 17:  महारानी कुन्ती अपने भाइयों तथा बहनों और उनके बच्चों से मिलीं। वे अपने माता-पिता, अपने भाइयों की पत्नियों (भाभियों) तथा भगवान् मुकुन्द से भी मिलीं। उनसे बातें करती हुईं वे अपना शोक भूल गईं।
 
श्लोक 18:  महारानी कुन्ती ने कहा : हे मेरे सम्माननीय भाई, मैं अनुभव करती हूँ कि मेरी इच्छाएँ विफल रही हैं, क्योंकि यद्यपि आप सभी अत्यन्त साधु स्वभाव वाले हो, किन्तु मेरी विपदाओं के दिनों में आपने मुझे भुला दिया।
 
श्लोक 19:  जिस पर विधाता अनुकूल नहीं रहता, उसके मित्र तथा परिवार वाले, यहाँ तक कि बच्चे, भाई तथा माता-पिता भी अपने प्रियजन को भूल जाते हैं।
 
श्लोक 20:  श्री वसुदेव ने कहा : हे बहन, तुम हम पर नाराज न होओ। हम सामान्य व्यक्ति भाग्य के खिलौने हैं। निस्सन्देह, मनुष्य चाहे अपने आप कार्य करे या अन्यों द्वारा करने को बाध्य किया जाय, वह सदैव भगवान् के नियंत्रण में रहता है।
 
श्लोक 21:  हे बहन, कंस द्वारा सताये हुए हम विभिन्न दिशाओं में भाग गये थे, किन्तु विधाता की कृपा से अन्ततोगत्वा हम अब अपने अपने घरों में लौट सके हैं।
 
श्लोक 22:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : वसुदेव, उग्रसेन तथा अन्य यदुओं ने उन विविध राजाओं का सम्मान किया, जो भगवान् अच्युत को देखकर अत्यधिक आनन्द विभोर और संतुष्ट हो गये।
 
श्लोक 23-26:  हे राजाओं में श्रेष्ठ परिक्षित, भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा उनके पुत्र, पाण्डव तथा उनकी पत्नियाँ, कुन्ती, सञ्जय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तीभोज, विराट, भीष्मक, महान् नग्नजित, पुरुजित, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशिराज, दमघोष, विशालाक्ष, मैथिल, मद्र, केकय, युधामन्यु, सुशर्मा, बाह्लिक तथा उसके संगी और उन सबों के पुत्र एवं महाराज युधिष्ठिर के अधीन अन्य अनेक राजा—ये सारे के सारे अपने समक्ष समस्त ऐश्वर्य तथा सौन्दर्य के धाम अपनी पत्नियों के साथ खड़े भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य रूप को देखकर चकित हो गये।
 
श्लोक 27:  जब बलराम तथा कृष्ण उदारतापूर्वक उनका आदर कर चुके, तो ये राजा अतीव प्रसन्नता एवं उत्साह के साथ श्रीकृष्ण के निजी संगियों की प्रशंसा करने लगे, जो वृष्णि-कुल के सदस्य थे।
 
श्लोक 28:  [राजाओं ने कहा] : हे भोजराज, आप ही एकमात्र ऐसे हैं, जिन्होंने मनुष्यों में सचमुच उच्च जन्म प्राप्त किया है, क्योंकि आप भगवान् श्रीकृष्ण को निरन्तर देखते हैं, जो बड़े से बड़े योगियों को भी विरले ही दिखते हैं।
 
श्लोक 29-30:  वेदों द्वारा प्रसारित उनका यश, उनके चरणों को प्रक्षलित करने वाला जल और शास्त्रों के रूप में उनके द्वारा कहे गये शब्द—ये सभी इस ब्रह्माण्ड को पूरी तरह शुद्ध करने वाले हैं। यद्यपि काल के द्वारा पृथ्वी का सौभाग्य नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था, किन्तु उनके चरणकमलों के स्पर्श से उसे पुन: जीवनदान मिला है, अत: पृथ्वी हमारी समस्त इच्छाओं की पूर्ति की वर्षा हम पर कर रही है। जो विष्णु स्वर्ग तथा मोक्ष के लक्ष्यों को भुलवा देते हैं, वे आपके साथ वैवाहिक और रक्त सम्बन्ध स्थापित कर चुके हैं, अन्यथा आप लोग गृहस्थ-जीवन के नारकीय पथ पर विचरण करते हैं। निस्सन्देह ऐसे सम्बन्ध होने से आप लोग उन्हें देखते हैं, उनका स्पर्श करते हैं, उनके साथ चलते हैं, उनसे बातें करते हैं, उनके साथ लेट कर आराम करते हैं, उठते-बैठते हैं और भोजन करते हैं।
 
श्लोक 31:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब नन्द महाराज को ज्ञात हुआ कि कृष्ण के नेतृत्व में यदुगण आ चुके हैं, तो वे तुरन्त उनसे भेंट करने गये। सारे ग्वाले अपनी अपनी बैलगाडिय़ों में विविध वस्तुएँ लाद कर उनके साथ हो लिए।
 
श्लोक 32:  नन्द को देखकर सारे वृष्णि प्रसन्न हो उठे और इस तरह खड़े हो गये, मानो मृत शरीरों में फिर से प्राण संचार हो गया हो। दीर्घकाल से न देखने के कारण अधिक कष्ट का अनुभव करते हुए, उन्होंने नन्द प्रगाढ़ आलिंगन किया।
 
श्लोक 33:  वसुदेव ने बड़े ही हर्ष से नन्द महाराज का आलिंगन किया। प्रेमविह्वल होकर वसुदेव ने कंस द्वारा पहुँचाए गये कष्टों का स्मरण किया, जिसके कारण उन्हें अपने पुत्रों को उनकी रक्षा के लिए गोकुल में छोडऩे के लिए बाध्य होना पड़ा।
 
श्लोक 34:  हे कुरुओं के वीर, कृष्ण तथा बलराम ने अपने पोषक माता-पिता का आलिंगन किया और उनको नमन किया, लेकिन प्रेमाश्रुओं से उनके गले इतने रुंध गये थे कि वे दोनों कुछ भी नहीं कह पाये।
 
श्लोक 35:  अपने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में उठाकर और अपनी बाहुओं में भर कर, नन्द तथा सन्त स्वभाव वाली माता यशोदा अपना शोक भूल गये।
 
श्लोक 36:  तत्पश्चात् रोहिणी तथा देवकी दोनों ने व्रज की रानी का आलिंगन किया और उन्होंने उनके प्रति, जो सच्ची मित्रता प्रदर्शित की थी, उसका स्मरण करते हुए अश्रु से रुंधे गले से इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 37:  [रोहिणी तथा देवकी ने कहा] : हे व्रज की रानी, भला ऐसी कौन स्त्री होगी, जो आप तथा नन्द द्वारा हम लोगों के प्रति प्रदर्शित सतत मित्रता को भूल सके? इस संसार में आपका बदला चुकाने का कोई उपाय नहीं है, यहाँ तक कि इन्द्र की सम्पदा से भी नहीं।
 
श्लोक 38:  इसके पूर्व कि इन दोनों बालकों ने अपने असली माता-पिता को देखा, आप दोनों ने उनके संरक्षक का कार्य किया और उन्हें सभी तरह से स्नेहपूर्ण देखभाल, प्रशिक्षण, पोषण तथा सुरक्षा प्रदान की। हे उत्तम नारी, वे कभी भी डरे नहीं, क्योंकि आप उनकी वैसे ही रक्षा करती रहीं, जिस तरह पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। निस्सन्देह, आप-जैसी सन्त स्वभाव वाली नारियाँ कभी भी अपनों और परायों में कोई भेदभाव नहीं बरततीं।
 
श्लोक 39:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने प्रिय कृष्ण पर टकटकी लगाये हुई तरुण गोपियाँ अपनी पलकों के सृजनकर्ता को कोसा करती थीं (क्योंकि वे उनका दर्शन करने में कुछ पलों के लिए बाधक होती थीं)। अब दीर्घकालीन विछोह के बाद कृष्ण को पुन: देखकर उन्हें अपनी आँखों के द्वारा ले जाकर, उन्होंने अपने हृदय में बिठा लिया और वहीं उनका जी-भरकर आलिंगन किया। इस तरह वे उनके आनन्दमय ध्यान में पूरी तरह निमग्न हो गईं, यद्यपि योगविद्या का निरन्तर अभ्यास करने वाले को ऐसी तल्लीनता प्राप्त कर पाना कठिन होता है।
 
श्लोक 40:  जब गोपियाँ भावमग्न खड़ी थीं, तो भगवान् एकान्त स्थान में उनके पास पहुँचे। हर एक का आलिंगन करने तथा उनकी कुशल-क्षेम पूछने के बाद वे हँसने लगे और इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 41:  [भगवान् कृष्ण ने कहा] : हे सखियो, क्या अब भी तुम लोग मेरी याद करती हो? मैं अपने सम्बन्धियों के लिए ही हमारे शत्रुओं का विनाश करने के लिए इतने लम्बे समय तक दूर रहता रहा।
 
श्लोक 42:  शायद तुम सोचती हो कि मैं कृतघ्न हूँ और इसलिए मुझे घृणा से देखती हो? अन्ततोगत्वा, सारे जीवों को पास लाने वाला और फिर उन्हें विलग करने वाला, तो भगवान् ही है।
 
श्लोक 43:  जिस तरह वायु बादलों के समूहों, घास की पत्तियों, रुई के फाहों तथा धूल के कणों को पुन: बिखेर देने के लिए ही पास पास लाती है, उसी तरह स्रष्टा अपने द्वारा सृजित जीवों के साथ व्यवहार करता है।
 
श्लोक 44:  कोई भी जीव मेरी भक्ति करके शाश्वत जीवन प्राप्त करने के लिए सुयोग्य बन जाता है। किन्तु तुम लोगों ने अपने सौभाग्य से मेरे प्रति ऐसी विशेष प्रेममय प्रवृत्ति विकसित कर ली है, जिसके द्वारा तुम सबों ने मुझे पा लिया है।
 
श्लोक 45:  हे स्त्रियो, मैं सारे जीवों का आदि तथा अन्त हूँ और मैं उनके भीतर तथा बाहर उसी तरह विद्यमान हूँ, जिस तरह आकाश, जल, पृथ्वी, वायु तथा अग्नि समस्त भौतिक वस्तुओं के आदि एवं अन्त हैं और उनके भीतर-बाहर विद्यमान रहते हैं।
 
श्लोक 46:  इस तरह समस्त उत्पन्न की गई वस्तुएँ सृष्टि के मूलभूत तत्त्वों के भीतर निवास करती हैं और अपने असली स्वरूप में बनी रहती हैं, किन्तु आत्मा सारी सृष्टि में व्याप्त रहता है। तुम्हें इन दोनों ही को—भौतिक सृष्टि तथा आत्मा को—मुझ अक्षर ब्रह्म के भीतर प्रकट देखना चाहिए।
 
श्लोक 47:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कृष्ण द्वारा आध्यात्मिक विषयों में शिक्षा दिये जाने पर गोपियाँ मिथ्या अहंकार के समस्त कलुषों से मुक्त हो गईं क्योंकि वे उनका निरन्तर ध्यान करती थीं। वे उनमें अपनी गहन निमग्नता के कारण उन्हें पूरी तरह समझ सकीं।
 
श्लोक 48:  गोपियाँ इस प्रकार बोलीं : हे कमलनाभ प्रभु, आपके चरणकमल उन लोगों के लिए एकमात्र शरण हैं, जो भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर गये हैं। आपके चरणों की पूजा तथा ध्यान बड़े बड़े योगी तथा प्रकाण्ड दार्शनिक करते हैं। हमारी यही इच्छा है कि ये चरणकमल हमारे हृदयों के भीतर उदित हों, यद्यपि हम सभी गृहस्थकार्यों में व्यस्त रहने वाली सामान्य प्राणी मात्र हैं।
 
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