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अध्याय 83: कृष्ण की रानियों से द्रौपदी की भेंट |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में उस वार्ता का वर्णन हुआ है, जो द्रौपदी तथा भगवान् कृष्ण की पटरानियों के बीच हुई, जिसमें हर रानी यह बतलाती है कि भगवान् ने किस प्रकार उनके साथ ब्याह... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह गोपियों के आध्यात्मिक गुरु तथा उनके जीवन के गन्तव्य भगवान् कृष्ण ने उन पर अपनी कृपा प्रदर्शित की। तत्पश्चात् वे युधिष्ठिर तथा अपने अन्य सभी सम्बन्धियों से मिले और उनसे उनकी कुशलता पूछी। |
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श्लोक 2: ब्रह्माण्ड के स्वामी के चरणों को देखकर समस्त पापों से मुक्त राजा युधिष्ठिर तथा अन्यों ने अत्यधिक सम्मानित अनुभव करते हुए उनके प्रश्नों का खुशी खुशी उत्तर दिया। |
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श्लोक 3: [भगवान् कृष्ण के सम्बन्धियों ने कहा] : हे प्रभु, उन लोगों का अमंगल कैसे हो सकता है, जिन्होंने आपके चरणकमलों से निकले अमृत का छक कर पान किया हो? यह मदोन्मत्तकारी तरल बड़े बड़े भक्तों के मनों से बहता हुआ, उनके मुखों से निकल कर, उनके कान रूपी प्यालों में उड़ेला जाता है। यह देहधारी जीवात्माओं द्वारा अपने शरीर के बनाने वाले के प्रति विस्मृति को विनष्ट करता है। |
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श्लोक 4: आपके स्वरूप का तेज भौतिक चेतना के त्रिगुण प्रभावों को दूर करता है और आपके अनुग्रह से हम पूर्ण सुख में निमग्न हो जाते हैं। आपका ज्ञान अविभाज्य तथा असीम है। अपनी योगमाया शक्ति से आपने उन वेदों की रक्षा करने के लिए यह मानव रूप धारण किया है, जो कालक्रम से संकटग्रस्त हो गये थे। हे पूर्ण-सन्तों के चरम लक्ष्य, हम आपके समक्ष नतमस्तक हैं। |
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श्लोक 5: ऋषिवर शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब युधिष्ठिर तथा अन्य लोग महापुरुषों में शिरोमणि भगवान् कृष्ण की इस तरह प्रशंसा कर रहे थे, तो अन्धक तथा कौरव वंश की महिलाएँ एक- दूसरे से मिलीं और तीनों लोकों में गाई जाने वाली गोविन्द विषयक कथाओं की चर्चा करने लगीं। कृपया सुनो, क्योंकि मैं तुमसे इनका वर्णन करने जा रहा हूँ। |
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श्लोक 6-7: श्री द्रौपदी ने कहा : हे वैदर्भी, हे भद्रा, हे जाम्बवती, हे कौशला, हे सत्यभामा तथा कालिन्दी, हे शैब्या, रोहिणी, लक्ष्मणा तथा कृष्ण की अन्य पत्नियो, कृपा करके मुझे बतलाइये कि भगवान् अच्युत ने किस तरह अपनी योगशक्ति से इस संसार की रीति का अनुकरण करते हुए आपमें से हर एक से विवाह किया। |
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श्लोक 8: श्री रुक्मिणी ने कहा : जब सारे राजा अपने अपने धनुष लिए यह आश्वासन देने के लिए तैयार खड़े थे कि शिशुपाल को मैं अर्पित कर दी जाऊँ, तो अजेय योद्धाओं के सिरों पर अपनी चरण-धूलि रखने वाले ने उनके बीच में से उसी तरह मेरा हरण कर लिया, जिस तरह एक सिंह अपने शिकार को बकरियों तथा भेड़ों के बीच से बलपूर्वक ले जाता है। मैं चाहूँगी कि लक्ष्मीधाम भगवान् कृष्ण के उन पाँवों की पूजा मुझे करने को मिले। |
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श्लोक 9: श्री सत्यभामा ने कहा : मेरे पिता का हृदय अपने भाई की हत्या से दुखित था, इसलिए उन्होंने भगवान् कृष्ण को इस अपराध के लिए दोषी ठहराया। भगवान् ने अपने यश पर लगे इस धब्बे को मिटाने के लिए रीछों के राजा को हराया और स्यमन्तक मणि वापस लेकर उसे मेरे पिता को लौटा दिया। अपने अपराध के फल से भयभीत मेरे पिता ने मुझे भगवान् को प्रदान कर दिया, यद्यपि मुझे अन्यों को दिये जाने का वायदा (वाग्दान) किया जा चुका था। |
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श्लोक 10: श्री जाम्बवती ने कहा : यह न जानते हुए कि भगवान् कृष्ण उन्हीं के स्वामी तथा आराध्यदेव, देवी सीता के पति हैं, मेरे पिता उनके साथ सत्ताईस दिनों तक युद्ध करते रहे। अन्त में जब मेरे पिता को ज्ञान हुआ और उन्होंने प्रभु को पहचाना, तो उन्होंने उनके चरण पकड़ लिये और मुझे तथा स्यमंतक मणि दोनों को आदर के प्रतीक रूप में अर्पित कर दिया। मैं तो प्रभु की दासी मात्र हूँ। |
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श्लोक 11: श्री कालिन्दी ने कहा : भगवान् जानते थे कि मैं इस आशा से कठिन तपस्या कर रही हूँ कि एक दिन मुझे उनके चरणकमल स्पर्श करने को मिलेंगे। अतएव वे अपने मित्र के साथ मेरे पास आये और मेरा पाणिग्रहण किया। अब मैं उनके महल को बुहारने वाली दासी के रूप में लगी रहती हूँ। |
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श्लोक 12: श्री मित्रविन्दा ने कहा : मेरे स्वयंवर समारोह में वे आगे बढ़ आये, वहाँ पर उपस्थित सारे राजाओं को, जिनमें उनका अपमान करने का दुस्साहस करने वाले मेरे भाई भी थे, हरा दिया और मुझे उसी तरह उठा ले गये, जिस तरह सिंह कुत्तों के झुंड में से अपना शिकार उठा ले जाता है। इस तरह लक्ष्मीनिवास भगवान् कृष्ण मुझे अपनी राजधानी में ले आये। मैं चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्मांतर उनके चरण धोने की सेवा करने का अवसर मिलता रहे। |
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श्लोक 13-14: श्री सत्या ने कहा : मेरे पिता ने मेरे साथ पाणिग्रहण के इच्छुक राजाओं के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिए घातक पैने सींगों वाले सात अत्यन्त बलशाली तथा जोशीले साँड़ों की व्यवस्था की। यद्यपि ये साँड़ अनेक वीरों के मिथ्या गर्व को चूर-चूर कर चुके थे, किन्तु भगवान् कृष्ण ने बिना प्रयास के ही उन्हें वश में करके बाँध लिया, जिस तरह बच्चे खेल-खेल में बकरी के बच्चों को बाँध लेते हैं। इस तरह उन्होंने मुझे अपने शौर्य के बल पर मोल ले लिया। तत्पश्चात् वे मेरे मार्ग में विरोध करने वाले सारे राजाओं को हराते हुए मुझे मेरी दासियों तथा चतुरंगिणी सेना समेत ले गये। मेरी यही अभिलाषा है कि उन प्रभु की सेवा करने का सुअवसर मुझे प्राप्त होता रहे। |
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श्लोक 15-16: श्री भद्रा ने कहा : हे द्रौपदी, मेरे पिता ने स्वयं ही मेरे मामा के पुत्र कृष्ण को बुलाया था, जिन्हें मैं पहले ही अपना हृदय सौंप चुकी थी और उन्होंने मुझे उनकी दुलहन के रूप में अर्पित कर दिया। मेरे पिता ने मेरे साथ उन्हें एक अक्षौहिणी सैन्य रक्षक और मेरी सखियों की एक टोली भी दी थी। मेरी चरम सिद्धि यही होगी कि जब मैं अपने कर्म से बँध कर एक जन्म से दूसरे जन्म में भ्रमण करूँ, तो मुझे भगवान् कृष्ण के चरणकमलों को स्पर्श करने की अनुमति सदैव मिलती रहे। |
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श्लोक 17: श्री लक्ष्मणा ने कहा : हे रानी, मैंने नारद मुनि को भगवान् अच्युत के अवतारों तथा कार्यों की बारम्बार महिमा गाते सुना और इस तरह मेरा मन भी उन्हीं भगवान् मुकुन्द के प्रति आसक्त हो गया। दरअसल, देवी पद्महस्ता ने विविध लोकों पर शासन करने वाले बड़े बड़े देवताओं को तिरस्कृत करके काफी ध्यानपूर्वक विचार करने के बाद, उन्हें अपने पति के रूप में चुना है। |
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श्लोक 18: मेरे पिता बृहत्सेन स्वभाव से अपनी पुत्री के ऊपर अनुकम्पावान थे और हे साध्वी, यह जानते हुए कि मैं कैसा अनुभव कर रही हूँ, उन्होंने मेरी इच्छा पूरी करने की व्यवस्था कर दी। |
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श्लोक 19: हे रानी, जिस तरह आपके स्वयंवर समारोह में एक मछली का प्रयोग लक्ष्य के तौर पर यह निश्चित करने के लिए हुआ था कि आप अर्जुन को पति रूप में पा सकें, उसी तरह मेरे स्वयंवर में भी एक मछली का ही प्रयोग हुआ। किन्तु मेरे संबंध में यह मछली चारों ओर से ढक दी गई थी और नीचे रखे जल-पात्र में इसका प्रतिबिम्ब ही देखा जा सकता था। |
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श्लोक 20: यह सुन कर बाण चलाने तथा अन्य हथियारों को उपयोग में लाने में दक्ष हजारों राजा अपने सैन्य शिक्षकों के साथ मेरे पिता के नगर में सभी दिशाओं से एकत्र हुए। |
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श्लोक 21: मेरे पिता ने हर राजा को उसके बल तथा वरिष्ठता के अनुसार उचित सम्मान दिया। तब जिन लोगों के मन मुझ पर टिके थे, उन्होंने अपना धनुष-बाण उठाया और सभा के मध्य एक-एक करके, लक्ष्य को बेधने का प्रयत्न करने लगे। |
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श्लोक 22: उनमें से कुछ ने धनुष उठाया, किन्तु उसकी डोरी नहीं चढ़ा सके, अतएव हताश होकर उन्होंने उसे एक ओर फेंक दिया। कुछ ने धनुष की डोरी को धनुष के एक सिरे तक खींच तो लिया, किन्तु इससे धनुष पीछे उछला और उन्हें ही जमीन पर पटक दिया। |
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श्लोक 23: कुछ वीर यथा जरासन्ध, शिशुपाल, भीम, दुर्योधन, कर्ण तथा अम्बष्ठराज धनुष पर डोरी चढ़ाने में सफल तो रहे, किन्तु इनमें से कोई भी लक्ष्य को ढूँढ़ नहीं सका। |
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श्लोक 24: तब अर्जुन ने जल में मछली की परछाईं की ओर देखा और उसकी स्थिति निर्धारित की। किन्तु जब उसने सावधानी से उस पर अपना बाण छोड़ा, तो वह लक्ष्य को बेध नहीं पाया, अपितु मात्र उसको स्पर्श करके निकल गया। |
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श्लोक 25-26: जब सारे दम्भी राजाओं का घमंड चूर-चूर हो गया और उन्होंने यह प्रयास त्याग दिया, तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने धनुष उठाया, आसानी से डोरी चढ़ाई और तब उस पर बाण स्थिर किया। ज्योंही सूर्य अभिजित नक्षत्र में आया, तो उन्होंने जल में मछली को केवल एक बार देखा और फिर उसे बाण से बेध कर जमीन पर गिरा दिया। |
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श्लोक 27: आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और पृथ्वी पर लोग जय! जय! की ध्वनि करने लगे। देवताओं ने अति प्रसन्न होकर फूल बरसाये। |
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श्लोक 28: तभी मैं रंगशाला में गई। मेरे पाँवों के नूपुर मन्द ध्वनि कर रहे थे। मैं उत्तम कोटि के रेशम के नये वस्त्र पहने थी, जिसके ऊपर करधनी बँधी थी और मैं सोने तथा रत्नों से बना चमकीला हार धारण किये थी। मेरे मुख पर लजीली मुसकान थी और मेरे बालों में फूलों की माला थी। |
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श्लोक 29: मैंने अपना सिर उठाया, जो मेरे प्रचुर बालों के गुच्छों तथा मेरे गालों से परावर्तित मेरे कुण्डलों की चमक के तेज से घिरा था। मैंने शान्त भाव से मन्द-हास के साथ इधर-उधर दृष्टि फेरी। तब चारों ओर सारे राजाओं को देखते हुए, मैंने धीरे से हार को मुरारी के कन्धों (गले) पर डाल दिया, जिसने मेरे मन को हर रखा था। |
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श्लोक 30: तभी शंखों तथा मृदंग, पटह, भेरी और आनक नगाड़ों एवं अन्य वाद्य जोर-जोर से बजने लगे। नट तथा नर्तकियाँ नाचने लगे और गवैये गाने लगे। |
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श्लोक 31: हे द्रौपदी, मेरे द्वारा भगवान् का चुना जाना प्रमुख राजाओं को सहन नहीं हो सका। वे कामातुर होने के कारण लडऩे-झगडऩे लगे। |
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श्लोक 32: तत्पश्चात् भगवान् ने मुझे चार अतीव उत्तम घोड़ों से खींचे जाने वाले अपने रथ में बिठा लिया। अपना कवच पहन कर तथा अपना शार्ङ्ग धनुष तैयार करके, वे रथ पर खड़े हो गये और युद्धभूमि में उन्होंने अपनी चार भुजाएँ प्रकट कीं। |
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श्लोक 33: हे रानी, सारथी दारुक राजाओं के देखते-देखते भगवान् के सुनहरे किनारों वाले रथ को उसी तरह हाँक ले गया, जिस तरह छोटे छोटे पशु निस्सहाय होकर सिंह को देखते रह जाते हैं। |
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श्लोक 34: राजाओं ने भगवान् का पीछा किया, जिस तरह सिंह का पीछा गाँव के कुत्ते करते हैं। कुछ राजा अपने धनुष उठाये हुए, उन्हें जाने से रोकने के लिए मार्ग में आ डटे। |
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श्लोक 35: ये योद्धा भगवान् के शार्ङ्ग धनुष द्वारा छोड़े गये बाणों से अभिभूत हो गये। कुछ राजाओं की भुजाएँ, टांगें तथा गर्दनें कट गईं और वे युद्धभूमि में गिर पड़े। शेष लडऩा छोड़ कर भाग गये। |
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श्लोक 36: तब यदुपति ने अपनी राजधानी कुशस्थली (द्वारका) में प्रवेश किया, जो स्वर्ग में तथा पृथ्वी पर प्रशंसित है। नगर को पताकाओं से युक्त दंडों से सजाया गया था, जो सूर्य को ढक दे रहे थे तथा शानदार तोरण भी लगाये गये थे। जब कृष्ण ने प्रवेश किया, तो वे ऐसे लग रहे थे, मानो सूर्य देव अपने धाम में प्रवेश कर रहे हों। |
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श्लोक 37: मेरे पिताजी ने अपने मित्रों, परिवार वालों तथा मेरे ससुराल वालों का सम्मान बहुमूल्य वस्त्रों, आभूषणों, राजसी पलंगों, सिंहासनों तथा अन्य साज-सामग्री से किया। |
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श्लोक 38: उन्होंने परमपूर्ण भगवान् को भक्तिपूर्वक अनेक दासियाँ दीं, जो बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत थीं। इन दासियों के साथ अंगरक्षक थे, जिनमें से कुछ पैदल थे, तो कुछ हाथियों, रथों और घोड़ों पर सवार थे। उन्होंने भगवान् को अत्यन्त मूल्यवान हथियार भी दिये। |
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श्लोक 39: इस तरह समस्त भौतिक संगति का परित्याग करके तथा तपस्या करके, हम सारी रानियाँ आत्माराम भगवान् की दासियाँ बन चुकी हैं। |
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श्लोक 40: अन्य रानियों की ओर से रोहिणीदेवी ने कहा : भौमासुर तथा उसके अनुयायियों का वध करने के बाद भगवान् ने हमें उस असुर के बन्दीगृह में पाया और वे यह समझ गये कि हम उन राजाओं की कन्याएँ हैं, जिन्हें भौम ने पृथ्वी पर विजय करते समय पराजित किया था। भगवान् ने हमें बन्दी-गृह से मुक्त कराया और चूँकि हम भौतिक बन्धन से मोक्ष के स्रोत उन भगवान् के चरणकमलों का निरन्तर ध्यान करती रही थीं, इसलिए वे हमसे विवाह करने के लिए राजी हो गये, यद्यपि उनकी हर इच्छा पहले से पूरी रहती है। |
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श्लोक 41-42: हे साध्वी, हमें पृथ्वी पर शासन, इन्द्र का पद, भोग की असीम सुविधा, योगशक्ति, ब्रह्मा का पद, अमरता या भगवद्धाम प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं है। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि भगवान् कृष्ण के उन चरणों की यशस्वी धूल को अपने सिर पर धारण करें, जो उनकी प्रियतमा के स्तन के कुंकुम की सुगन्धि से युक्त है। |
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श्लोक 43: हम भगवान् के चरणों का वही स्पर्श चाहती हैं, जो व्रज की तरुणियों, ग्वालबालों तथा आदिवासिनी पुलिन्द स्त्रियाँ चाहती हैं—वह है, भगवान् द्वारा अपनी गौवें चराते समय पौधों तथा घास पर उनके द्वारा, छोड़ी गई धूल का स्पर्श। |
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