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अध्याय 85: कृष्ण द्वारा वसुदेव को उपदेश दिया जाना तथा देवकी-पुत्रों की वापसी |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह कृष्ण ने अपने पिता को दिव्य ज्ञान दिया और बलराम के साथ मिल कर अपनी माता के मृत पुत्रों का उद्धार किया।
वहाँ आये हुए मुनियों... |
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श्लोक 1: श्री बादरायणि ने कहा : एक दिन वसुदेव के दोनों पुत्र संकर्षण तथा अच्युत उनके (वसुदेव के) पास आये और उनके चरणों पर नतमस्तक होकर प्रणाम किया। वसुदेव ने बड़े ही स्नेह से उनका सत्कार किया और उनसे इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 2: अपने दोनों पुत्रों की शक्ति के विषय में महर्षियों के कथन सुन कर तथा उनके वीरतापूर्ण कार्यों को देख कर वसुदेव को उनकी दिव्यता पर पूरा-पूरा विश्वास हो गया। अत: उनका नाम लेकर, वे उनसे इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 3: [वसुदेव ने कहा] : हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे योगीश्रेष्ठ, हे नित्य संकर्षण, मैं जानता हूँ कि तुम दोनों निजी तौर पर ब्रह्माण्ड की सृष्टि के कारणस्वरूप और साथ ही साथ सृष्टि के अवयव भी हो। |
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श्लोक 4: आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जो प्रकृति तथा प्रकृति के स्रष्टा (महाविष्णु) दोनों के स्वामी के रूप में प्रकट होते हैं। फिर भी प्रत्येक वस्तु जिस का अस्तित्व बनता है और जब कभी ऐसा होता है, वह आपके भीतर, आपके द्वारा, आपसे, आपके लिए तथा आपसे ही सम्बन्धित होती है। |
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श्लोक 5: हे दिव्य प्रभु, आपने इस विचित्र ब्रह्माण्ड की रचना अपने में से की और तब अपने परमात्मा स्वरूप में आप इसके भीतर प्रविष्ट हुए। इस तरह हे अजन्मा परमात्मा, आप प्रत्येक व्यक्ति के प्राण तथा चेतना के रूप में सृष्टि का पालन करने वाले हैं। |
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श्लोक 6: प्राण तथा ब्रह्माण्ड-सृजन के अन्य तत्त्व, जो भी शक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, वे वास्तव में भगवान् की निजी शक्तियाँ हैं, क्योंकि प्राण तथा पदार्थ दोनों ही उनके अधीन तथा उनके आश्रित हैं और एक-दूसरे से भिन्न भी हैं। इस तरह इस भौतिक जगत की प्रत्येक सक्रिय वस्तु भगवान् द्वारा ही गतिशील बनाई जाती है। |
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श्लोक 7: चन्द्रमा की कान्ति, अग्नि का तेज, सूर्य की चमक, तारों का टिमटिमाना, बिजली की दमक, पर्वतों का स्थायित्व तथा पृथ्वी की सुगंध एवं धारणशक्ति—ये सब वास्तव में आप ही हैं। |
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श्लोक 8: हे प्रभु, आप जल हैं और इसका आस्वाद तथा प्यास बुझाने एवं जीवन धारण करने की क्षमता भी हैं। आप अपनी शक्तियों का प्रदर्शन वायु के द्वारा शरीर की उष्णता, जीवन-शक्ति, मानसिक शक्ति, शारीरिक शक्ति, प्रयास तथा गति के रूप में करते हैं। |
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श्लोक 9: आप ही दिशाएँ एवं उनकी अनुकूलन-क्षमता, सर्वव्यापक आकाश तथा इसके भीतर वास करने वाली ध्वनि (स्फोट) हैं। आप आदि अप्रकट ध्वनि रूप हैं, आप ही प्रथम अक्षर ॐ हैं और आप ही श्रव्य वाणी हैं, जिसके द्वारा शब्दों के रूप में ध्वनि विशिष्ट प्रसंग बन जाती है। |
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श्लोक 10: आप वस्तुओं को प्रकट करने की इन्द्रिय-शक्ति, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता तथा ऐन्द्रिय कार्यों को करने के इन देवताओं द्वारा दिये गये अधिकार हैं। आप निर्णय लेने की बुद्धि-क्षमता तथा जीव द्वारा वस्तुओं को सही सही स्मरण रखने की क्षमता हैं। |
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श्लोक 11: आप ही तमोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो भौतिक तत्त्वों का स्रोत है; आप रजोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो शारीरिक इन्द्रियों का स्रोत है; सतोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो देवताओं का स्रोत है तथा आप ही अप्रकट सम्पूर्ण भौतिक शक्ति हैं, जो हर वस्तु की मूलाधार है। |
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श्लोक 12: आप इस जगत की समस्त नश्वर वस्तुओं में से एकमात्र अनश्वर जीव हैं, जिस तरह कोई मूलभूत वस्तु अपरिवर्तित रहती दिखती है, जबकि उससे बनी वस्तुओं में रूपान्तर आ जाता है। |
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श्लोक 13: प्रकृति के गुण—यथा सतो, रजो तथा तमो गुण—अपने सारे कार्यों समेत आप अर्थात् परम सत्य के भीतर आपकी योगमाया की व्यवस्था के द्वारा सीधे प्रकट होते हैं। |
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श्लोक 14: इस तरह प्रकृति के विकार स्वरूप ये सृजित जीव तभी विद्यमान रहते हैं, जब भौतिक प्रकृति उन्हें आपके भीतर प्रकट करती है। उस समय आप भी उनके भीतर प्रकट होते हैं। किन्तु सृजन के ऐसे अवसरों के अतिरिक्त आप दिव्य सत्य की भाँति अकेले रहते हैं। |
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श्लोक 15: वे सचमुच अज्ञानी हैं, जो इस जगत में भौतिक गुणों के निरन्तर प्रवाह के भीतर बन्दी रहते हुए आपको अपने चरम सूक्ष्म गन्तव्य परमात्मा स्वरूप जान नहीं पाते। अपने अज्ञान के कारण भौतिक कर्म का बन्धन ऐसे जीवों को जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमने के लिए बाध्य कर देता है। |
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श्लोक 16: सौभाग्य से जीव स्वस्थ मनुष्य-जीवन प्राप्त कर सकता है, जो कि विरले ही प्राप्त होने वाला सुअवसर होता है। किन्तु हे प्रभु, यदि इतने पर भी वह अपने लिए, जो सर्वोत्तम है, उसके विषय में मोहग्रस्त रहता है, तो आपकी माया उसको अपना सारा जीवन नष्ट करने के लिए बाध्य कर सकती है। |
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श्लोक 17: आप स्नेह की रस्सियों से इस सारे संसार को बाँधे रहते हैं, अत: जब लोग अपने भौतिक शरीरों पर विचार करते हैं, तो वे सोचते हैं, “यह मेरा है” और जब वे अपनी सन्तान तथा अन्य सम्बन्धियों पर विचार करते हैं, तो वे सोचते हैं, “ये मेरे हैं।” |
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श्लोक 18: आप दोनों हमारे पुत्र नहीं हैं, अपितु प्रकृति तथा उसके स्रष्टा (महाविष्णु) दोनों ही के स्वामी हैं। जैसा कि आपने स्वयं हमसे कहा है, आप पृथ्वी को उन शासकों से मुक्त करने के लिए अवतरित हुए हैं, जो उस पर अत्यधिक भार बने हुए हैं। |
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श्लोक 19: इसलिए, हे दुखियों के मित्र, अब मैं शरण के लिए आपके चरणकमलों के पास आया हूँ—ये वही चरणकमल हैं, जो शरणागतों के सारे संसारिक भय को दूर करने वाले हैं। बस, इन्द्रिय-भोग की लालसा बहुत हो चुकी, जिसके कारण मैं अपनी पहचान इस मर्त्य शरीर से करता हूँ और आपको अर्थात् परम पुरुष को अपना पुत्र समझता हूँ। |
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श्लोक 20: निस्सन्देह आपने हमें प्रसूति-गृह में ही बतला दिया था कि आप अजन्मा हैं और इसके पूर्व के युगों में कई बार हमारे पुत्र के रूप में जन्म ले चुके हैं। आपने अपने धर्म की रक्षा करने के लिए इन दिव्य शरीरों को प्रकट करने के बाद उन्हें छिपा लिया, जिस तरह बादल प्रकट होते हैं और लुप्त हो जाते हैं। हे परम महिमामय सर्वव्यापक भगवान्, आपके विभूति अंशों की भ्रान्तिपूर्ण माया को कौन समझ सकता है? |
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श्लोक 21: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने पिता के वचनों को सुनने के बाद सात्वतों के नायक भगवान् ने विनयपूर्वक अपना सिर झुकाया और मन्द-मन्द हँसे और फिर मृदुल वाणी में उत्तर दिया। |
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श्लोक 22: भगवान् ने कहा : हे पिताश्री, मैं आपके वचनों को सर्वथा उपयुक्त मानता हूँ, क्योंकि आपने हमें अर्थात् अपने पुत्रों का सन्दर्भ देते हुए संसार की विविध कोटियों की व्याख्या की है। |
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श्लोक 23: हे यदुश्रेष्ठ, न केवल मुझे, अपितु आपको, मेरे पूज्य भ्राता को तथा ये द्वारकावासी इन सबों को भी इसी दार्शनिक आलोक में देखा जाना चाहिए। दरअसल हमें जड़ तथा चेतन दोनों ही प्रकार के समस्त सृष्टि को इसमें सम्मिलित करना चाहिए। |
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श्लोक 24: दरअसल परमात्मा एक है। वह आत्मज्योतित तथा नित्य, दिव्य एवं भौतिक गुणों से रहित है। किन्तु इन्हीं गुणों के माध्यम से उसने सृष्टि की है, जिससे एक ही परम सत्य उन गुणों के अंशों में अनेक रूप में प्रकट होता है। |
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श्लोक 25: आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी—ये तत्त्व विविध वस्तुओं में प्रकट होते समय दृश्य, अदृश्य, लघु या विशाल बन जाते हैं। इसी तरह परमात्मा एक होते हुए भी अनेक प्रतीत होता है। |
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श्लोक 26: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, भगवान् द्वारा कहे गये इन उपदेशों को सुनकर वसुदेव समस्त द्वैत-भाव से मुक्त हो गये। हृदय में तुष्ट होकर वे मौन रहे। |
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श्लोक 27-28: हे कुरुश्रेष्ठ, उसी समय सर्वत्र पूजनीय देवकी ने अपने दोनों पुत्रों, कृष्ण तथा बलराम को सम्बोधित करने का अवसर पाया। इसके पूर्व उन्होंने अत्यन्त विस्मय के साथ यह सुन रखा था कि उनके ये पुत्र अपने गुरु के पुत्र को मृत्यु से वापस ले आये थे। अब वे कंस द्वारा वध किये गये अपने पुत्रों का चिन्तन करते हुये अत्यन्त दुखी हुईं और अश्रुपूरित नेत्रों से कृष्ण तथा बलराम से दीनतापूर्वक बोलीं। |
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श्लोक 29: श्री देवकी ने कहा : हे राम, हे राम, हे अप्रमेय परमात्मा, हे कृष्ण, हे सभी योगेश्वरों के स्वामी, मैं जानती हूँ कि तुम दोनों समस्त ब्रह्माण्ड सृष्टिकार्ताओं के परम शासक आदि भगवान् हो। |
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श्लोक 30: मुझसे जन्म लेकर तुम इस जगत में उन राजाओं का वध करने के लिए अवतरित हुए हो, जिनके उत्तम गुण वर्तमान युग के द्वारा विनष्ट हो चुके हैं और जो इस प्रकार से शास्त्रों की सत्ता का उल्लंघन करते हैं और पृथ्वी का भार बनते हैं। |
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श्लोक 31: हे विश्वात्मा, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार—ये सभी आपके अंश के अंश के अंश के भी एक अंश द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। हे भगवान्, मैं आज आपकी शरण में आई हूँ। |
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श्लोक 32-33: ऐसा कहा जाता है कि जब आपके गुरु ने अपने बहुत पहले मर चुके पुत्र को वापस लाने के लिए आपको आदेश दिया, तो आप गुरु-दक्षिणा के प्रतीकस्वरूप उसे पूर्वजों के धाम से वापस ले आये। हे योगेश्वरों के भी ईश्वर, मेरी इच्छा को भी उसी तरह पूरी कीजिये। कृपया भोजराज द्वारा मारे गये मेरे पुत्रों को वापस ला दीजिये, जिससे मैं उन्हें फिर से देख सकूँ। |
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श्लोक 34: शुकदेव मुनि ने कहा : हे भारत, अपनी माता द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर कृष्ण तथा बलराम ने अपनी योगमाया शक्ति का प्रयोग करके सुतल लोक में प्रवेश किया। |
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श्लोक 35: जब दैत्यराज बलि ने दोनों प्रभुओं को आते देखा, तो उसका हृदय प्रसन्नता के मारे फूल उठा, क्योंकि वह उन्हें परमात्मा तथा सम्पूर्ण विश्व के पूज्य देव के रूप में, विशेष रूप से अपने पूज्य देव के रूप में, जानता था। अत: वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ और अपने सारे पार्षदों सहित उसने उन्हें झुक कर प्रणाम किया। |
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श्लोक 36: बलि ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें उच्च आसन प्रदान किया। जब वे बैठ गये, तो उसने दोनों प्रभुओं के पाँव पखारे। फिर उसने उस जल को, जो ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत को पवित्र बनाने वाला है, लेकर अपने तथा अपने अनुयायियों के ऊपर छिडक़ा। |
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श्लोक 37: उसने अपने पास उपलब्ध सारी सम्पदा—बहुमूल्य वस्त्र, गहने, सुगन्धित चन्दन-लेप, पान, दीपक, अमृत तुल्य भोजन इत्यादि—से उन दोनों की पूजा की। इस तरह उसने उन्हें अपने परिवार की सारी धन-सम्पदा तथा स्वयं अपने को भी अर्पित कर दिया। |
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श्लोक 38: दोनों विभुओं के चरणकमलों को बारम्बार पकड़ते हुए, इन्द्र की सेना के विजेता, गहन प्रेम से द्रवित हृदय वाले बलि ने कहा : हे राजन्, उनकी आँखों में प्रेमाश्रु भरे थे और उनके अंगों के रोएँ खड़े हुए थे। वह लडख़ड़ाती वाणी से बोलने लगा। |
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श्लोक 39: राजा बलि ने कहा : समस्त जीवों में महानतम अनन्त देव को नमस्कार है। ब्रह्माण्ड के स्रष्टा भगवान् कृष्ण को नमस्कार है, जो सांख्य तथा योग के सिद्धान्तों का प्रसार करने के लिए निर्विशेष ब्रह्म तथा परमात्मा के रूप में प्रकट होते हैं। |
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श्लोक 40: अनेक जीवों के लिए आप दोनों विभुओं के दर्शन दुर्लभ हैं, किन्तु तमोगुण तथा रजोगुण में स्थित हमारे जैसे व्यक्ति भी सुगमता से आपके दर्शन पा सकते हैं, जब आप स्वेच्छा से प्रकट होते हैं। |
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श्लोक 41-43: ऐसे अनेक लोग जो आपके प्रति शत्रुता में निरन्तर लीन रहते थे, अंत में आपके प्रति आकृष्ट हो गये, क्योंकि आप शुद्ध सत्त्वगुण के साकार रूप हैं और आपका दिव्य स्वरूप शास्त्रों से युक्त है। इन सुधरे हुए शत्रुओं में दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत, प्रमथ तथा नायक एवं हम तथा हमारे जैसे अनेक लोग सम्मिलित हैं। हममें से कुछ तो विशेष घृणा के कारण और कुछ काम-वासना पर आधारित भक्तिभाव से आपके प्रति आकृष्ट हुए हैं। किन्तु देवता तथा भौतिक सतोगुण से मुग्ध अन्य लोग आपके प्रति वैसे आकर्षण का अनुभव नहीं कर पाते। |
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श्लोक 44: हे पूर्णयोगियों के स्वामी, हम अपने बारे में क्या कहें, बड़े से बड़े योगी भी यह नहीं जानते कि आपकी योगमाया क्या है, अथवा वह कैसे कार्य करती है? |
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श्लोक 45: कृपया मुझ पर दया करें, जिससे मैं गृहस्थ जीवन के अंध कूप से—अपने मिथ्या घर से— बाहर निकल सकूँ और आपके चरणकमलों की सच्ची शरण ग्रहण कर सकूँ, जिसकी खोज निष्काम सदैव साधु करते रहते हैं। तब मैं या तो अकेले या सबों के मित्र स्वरूप महान् सन्तों के साथ मुक्तरूप से विचरण कर सकूँ और विश्व-भर को दान देने वाले वृक्षों के नीचे जीवन की आवश्यकताएँ पूरी कर सकूँ। |
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श्लोक 46: हे समस्त अधीन प्राणियों के स्वामी, कृपा करके हमें बतायें कि हम क्या करें और इस तरह हमें सारे पापों से मुक्त कर दें। हे प्रभु, जो व्यक्ति आपके आदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करता है, उसे सामान्य वैदिक अनुष्ठानों का पालन करना अनिवार्य नहीं है। |
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श्लोक 47: भगवान् ने कहा : प्रथम मनु के युग में मरीचि ऋषि की पत्नी ऊर्णा से छ: पुत्र उत्पन्न हुए। वे सभी उच्च देवता थे, किन्तु एक बार, जब उन्होंने ब्रह्मा को अपनी ही पुत्री के साथ संभोग करने के लिए उद्यत देखा, तो उन्हें हँसी आ गई। |
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श्लोक 48-49: उस अनुचित कार्य के लिए, वे तुरन्त आसुरी योनि में प्रविष्ट हुए और इस तरह उन्होंने हिरण्यकशिपु के पुत्रों के रूप में जन्म लिया। देवी योगमाया ने इन सबों को हिरण्यकशिपु से छीन लिया और वे पुन: देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए। इसके बाद हे राजा, कंस ने उन सबका वध कर दिया। देवकी आज भी उन अपने पुत्रों का स्मरण कर-करके शोक करती हैं। मरीचि के वे ही पुत्र अब आपके साथ यहाँ रह रहे हैं। |
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श्लोक 50: हम उन्हें इनकी माता का शोक दूर करने के लिए इस स्थान से ले जाना चाहते हैं। तब अपने शाप से विमुक्त होकर तथा समस्त कष्टों से छूट कर, वे स्वर्ग में अपने घर लौट जायेंगे। |
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श्लोक 51: मेरी कृपा से स्मर, उद्गीथ, परिष्वंग, पतंग, क्षुद्रभृत तथा घृणी—ये छहों शुद्ध सन्तों के धाम वापस जायेंगे। |
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श्लोक 52: [शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : यह कहकर भगवान् कृष्ण तथा बलराम बलि महाराज द्वारा भलीभाँति पूजित होकर छहों पुत्रों को लेकर द्वारका लौट आये, जहाँ पर उन्हें उनकी माता को सौंप दिया। |
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श्लोक 53: जब देवी देवकी ने अपने खोये हुए बालकों को देखा, तो उनके प्रति उन्हें इतना स्नेह उमड़ा कि उनके स्तनों से दूध बह चला। उन्होंने उनका आलिंगन किया और अपनी गोद में बैठाकर बारम्बार उनका सिर सूँघा। |
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श्लोक 54: उन्होंने अपने पुत्रों को बड़े ही प्रेम से स्तन-पान करने दिया और उनके स्पर्श से उनके स्तन दूध से भीग गये। वे उसी विष्णु-माया से मोहित हो गईं, जो इस ब्रह्माण्ड का सृजन करती है। |
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श्लोक 55-56: कृष्ण ने इससे पूर्व पीकर जो कुछ बाकी छोड़ा था, उस अमृत तुल्य दूध को पीकर छहों पुत्रों ने नारायण के दिव्य शरीर का स्पर्श किया और इस स्पर्श से उनकी मूल पहचान उनमें जाग गईं। उन्होंने गोविन्द, देवकी, अपने पिता तथा बलराम को नमस्कार किया और फिर हर एक के देखते-देखते, वे देवताओं के धाम के लिए रवाना हो गये। |
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श्लोक 57: हे राजन्, अपने पुत्रों को मृत्यु से वापस आते और फिर विदा होते देखकर सन्त स्वभाव वाली देवकी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि यह कृष्ण द्वारा उत्पन्न माया मात्र थी। |
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श्लोक 58: हे भारत, असीम पराक्रम वाले प्रभु, परमात्मा श्रीकृष्ण ने इस तरह की आश्चर्यजनक असंख्य लीलाएँ सम्पन्न कीं। |
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श्लोक 59: श्री सूत गोस्वामी ने कहा : नित्य कीर्ति वाले भगवान् मुरारी द्वारा की गई यह लीला ब्रह्माण्ड के सारे पापों को पूरी तरह नष्ट करती है और भक्तों के कानों के लिए दिव्य आभूषण जैसा काम करती है। जो भी व्यासदेव के पूज्य पुत्र द्वारा सुनाई गई इस कथा को ध्यानपूर्वक सुनता या सुनाता है, वह भगवान् के ध्यान में अपने मन को स्थिर कर सकेगा और ईश्वर के सर्वमंगलमय धाम को प्राप्त करेगा। |
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