सृजन की प्रक्रिया पारिभाषिक दृष्टि से सृष्टि (“बाहर निकालना”) कहलाती है। भगवान् अपनी विविध शक्तियों को बाहर निकालते हैं और ये शक्तियाँ उनसे पृथक् रहकर उनकी प्रकृति में भाग लेती हैं। यह तथ्य अचिन्त्यभेदाभेद के असली वैदिक दर्शन में व्यक्त हुआ है। इस तरह यद्यपि असंख्य व्यष्टि जीवों में हर एक की पृथक् पहचान (सत्ता) है, किन्तु हर जीव उसी आध्यात्मिक वस्तु से बना होता है, जिससे ब्रह्म बना है। चूँकि सारे जीव भगवान् के आध्यात्मिक सार में सम्मिलित हैं, अतएव वे अजन्मा तथा नित्य हैं, जिस तरह ब्रह्म है। भगवान् कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन से कहते हुए इसकी पुष्टि की है— न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:। न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ॥ “ऐसा कोई काल नहीं था जब मैं नहीं था या तुम नहीं थे अथवा ये सारे राजा नहीं थे। न ही भविष्य में हममें से कोई भी नहीं रहेगा।” (भगवद्गीता २.१२) भौतिक सृष्टि उन जीवों के लिए विशेष आयोजन है, जो भगवान् की सेवा से अपने को पृथक् करना चाहते हैं। इस तरह सृष्टि का अर्थ है एक नकली जगत की उत्पत्ति जहाँ ऐसे जीव अपने को स्वतंत्र मान सकें। भौतिक जीवन की नाना योनियाँ उत्पन्न करने के बाद भगवान् प्रत्येक जीव को बुद्धि तथा प्रेरणा, जिसकी उसे अपने दैनिक जीवन में आवश्यकता पड़ती है, प्रदान करने के लिए, अपनी ही सृष्टि में परमात्मा के रूप में विस्तरित होते हैं। जैसाकि तैत्तिरीय उपनिषद् (२.६.२) में कहा गया है—तत् सृष्ट्वा तद् एवानुप्राविशत्—इस जगत को उत्पन्न करने के बाद वे इसमें प्रविष्ट हो गये। किन्तु भगवान् इस भौतिक जगत में इससे किसी प्रकार का सम्बन्ध रखे बिना प्रवेश करते हैं—इसे ही श्रुतियाँ यहाँ पर विशन्निव पद (केवल प्रविष्ट प्रतीत होते हुए) द्वारा घोषित करती हैं। तरतमश्चकास्सि का अर्थ है कि परमात्मा महान् देवता ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र कीटाणु तक हर जीव के शरीर में प्रवेश करते हैं और प्रत्येक जीव के प्रबुद्ध होने की क्षमता के अनुसार विभिन्न मात्राओं में अपनी शक्ति दर्शाते हैं। अनलवत् स्वकृतानुकृति:—जिस तरह से विभिन्न वस्तुओं में लगाई गई अग्नि उन वस्तुओं के आकार के अनुसार जलती है, उसी तरह परमात्मा सभी जीवों के शरीरों में प्रवेश करके उसकी क्षमता के अनुसार ही प्रत्येक बद्धजीव को प्रकाश प्रदान करता है। सृष्टि तथा संहार के बीच भी समस्त जीवों का स्वामी नित्य अपरिवर्तित है, जैसाकि एकरसम् शब्द से द्योतन हुआ है। दूसरे शब्दों में, भगवान् अपने अपरिमेय, शुद्ध दिव्य आनन्द वाले साकार स्वरूप को सदैव बनाये रखता है। वे विरले जीव जो भौतिक व्यापारों से अर्थात् पण (इस तरह अभिविपण्यव: बनकर) अपने को पूर्णतया विलग (अभितस्) रखते हैं, वे ही परमेश्वर को यथार्थ रूप में जान पाते हैं। हर बुद्धिमान व्यक्ति को इन्हीं महात्माओं का अनुसरण करना चाहिए और उनसे यह याचना करनी चाहिए कि उन्हें भी भगवद्भक्ति में लगा दें। श्रुतियों द्वारा की गई इस स्तुति का भाव श्वेताश्वतर उपनिषद् के निम्नलिखित मंत्र (६.११) से साम्य रखता है— एको देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ “एक परमेश्वर समस्त सृजित वस्तुओं के भीतर छिपा रहता है। वह समस्त पदार्थ में व्याप्त है और सारे जीवों के हृदयों के भीतर स्थित रहता है। अन्त:वासी परमात्मा के रूप में वह उनके कार्यकलापों का निरीक्षण करता है। इस तरह स्वयं निर्गुण होते हुए भी वह अद्वितीय साक्षी है तथा चेतना देने वाला है।” श्रील श्रीधर स्वामी अपनी प्रार्थना प्रस्तुत करते हैं : स्वनिर्मितेषु कार्येषु तारतम्यविवर्जितम्। सर्वानुस्यूतसन्मात्रं भगवन्तं भजामहे ॥ “हम उन परमेश्वर की पूजा करें, जो अपनी ही सृष्टि के पदार्थों में प्रवेश करते हैं, फिर भी उनकी उत्तम तथा निम्न भौतिक कोटियों से वे पृथक् रहते हैं। वे शुद्ध, विभेदरहित अस्तित्ववाले है और सर्वव्यापी हैं।” |