भगवान् जीवों को स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर प्रदान करके उन्हें इन्द्रिय-तृप्ति में और मनुष्य योनि में धर्म, अर्थ तथा मोक्ष में लगाते हैं। बद्धजीव प्रत्येक शरीर में अपनी इन्द्रियों का उपयोग भोग करने के काम में लगाता है और जब उसे मनुष्य का शरीर मिलता है, तो उसे जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में विविध नियत कार्य भी करने होते हैं। यदि वह श्रद्धापूर्वक इन कर्तव्यों को निभाता है, तो भविष्य में उसे और अधिक उत्तम सुख मिलता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह पतित हो जाता है। जब जीव भौतिक जीवन से मुक्त होने के लिए लालायित होता है, तो मुक्ति का मार्ग उसे सदा उपलब्ध रहता है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती की टीका है कि इस श्लोक में च शब्द का बारम्बार आना इसका सूचक है कि भगवान् जो कुछ भी प्रदान करते हैं—न केवल मुक्ति का मार्ग अपितु धार्मिक जीवन में क्रमश: उन्नति तथा समुचित इन्द्रियतृप्ति—उसका महत्त्व है। इन सारे प्रयासों में जीव अपनी सफलता के लिए भगवत्कृपा पर निर्भर करते हैं। बुद्धि, इन्द्रिय, मन तथा प्राण के बिना जीव कुछ भी उपलब्ध नहीं कर सकते—न तो स्वर्ग की प्राप्ति, न ज्ञान द्वारा शुद्धि, न योग में ध्यान की आठ सिद्धियाँ, न भक्तियोग द्वारा प्राप्त की जाने वाली शुद्ध भक्ति जो भगवान् के नामों के श्रवण और कीर्तन से प्रारम्भ होती है। यदि परमेश्वर बद्धजीवों के कल्याण हेतु ये सारी सुविधाएँ जुटाता है, तो फिर वह निर्विशेष कैसे हो सकता है? उपनिषद् परम सत्य को निर्विशेष के रूप में प्रस्तुत न करके उस के साकार गुणों के विषय में विस्तार से बतलाते हैं। उपनिषदों द्वारा वर्णित ब्रह्म समस्त निम्न भौतिक गुणों से मुक्त हैं, तो भी वे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सबों का स्वामी तथा नियन्ता, ब्रह्माण्ड-भर में पूज्य, हर एक के कर्म का फल देने वाला तथा सच्चिदानन्द रूप हैं। मुण्डक उपनिषद् (१.१.९) में कहा गया है—य: सर्वज्ञ: स सर्वविद् यस्य ज्ञानमयं तप: जो सर्वज्ञ हैं और जिनसे समस्त ज्ञान की शक्ति प्राप्त होती है वे सबसे अधिक बुद्धिमान हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् के शब्दों में (४.४.२२; ३.७.३. तथा १.२.४) सर्वस्य वशी सर्वस्येशान:—वे हर एक के स्वामी तथा नियंत्रक हैं। य: पृथिव्यां तिष्टन् पृथिव्या आन्तर:—वे जो पृथ्वी के भीतर वास करते हैं तथा उसमें व्याप्त हैं। सोऽकामयत बहु स्याम्—उन्होंने इच्छा की कि मैं अनेक हो जाऊँ। इसी प्रकार ऐतरेय उपनिषद् (३.११) में कहा गया है स ऐक्षत तत् तेजोऽसृजत— उन्होंने अपनी शक्ति के ऊपर दृष्टि फेरी, जिसके बाद उन्होंने सृष्टि प्रकट की। तैत्तिरीय उपनिषद् (२.१.१) की घोषणा है—सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म—ब्रह्म असीम सत्य तथा ज्ञान है। तत् त्वम् असि वाक्यांश (छान्दोग्य उपनिषद ६.८.७) को प्राय: निर्विशेषवादी सान्त जीवात्मा तथा उसके स्रष्टा में तादात्म्य की पुष्टि के लिए उद्धृत करते हैं। शंकराचार्य तथा उनके अनुयायीगण इन शब्दों को उन कुछ महावाक्यों का रूप देते हैं, जिनसे वेदान्त का सार व्यक्त होता है। किन्तु वेदान्त के आदर्श वैष्णव मतानुयायी इस व्याख्या का डट कर विरोध करते हैं। आचार्य रामानुज, मध्व, बलदेव विद्याभूषण इत्यादि ने उपनिषदों तथा अन्य श्रुतियों के क्रमबद्ध अध्ययन के आधार पर कई वैकल्पिक व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। यहाँ पर महाराज परीक्षित द्वारा पूछे गये इस प्रश्न का कि “वेद किस तरह प्रत्यक्ष रूप से परम सत्य का द्योतन कर सकते हैं?” शुकदेव गोस्वामी ने इस प्रकार उत्तर दिया है, “भगवान् ने बद्धजीवों के लिए बुद्धि तथा अन्य तत्त्वों की रचना की।” संशयवादी आपत्ति कर सकता है कि यह उत्तर अप्रासंगिक है। किन्तु शुकदेव गोस्वामी का उत्तर वास्तव में अप्रासंगिक नहीं है, जैसाकि श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती व्याख्या करते हैं। सूक्ष्म प्रश्नों के उत्तर प्राय: अप्रत्यक्ष रीति से दिये जाते हैं। जैसाकि स्वयं भगवान् ने उद्धव को दिये गये अपने उपदेशों में (भागवत ११.२१.३५) कहा है—परोक्षवादा ऋषय: परोक्षं मम च प्रियम्—वैदिक भविष्य द्रष्टा तथा मंत्र गुह्य शब्दावली का प्रयोग करते हैं और मैं भी ऐसे ही गोपनीय वर्णनों से प्रसन्न रहता हूँ। इस वर्तमान प्रसंग में वे निर्विशेषवादी, जिनकी ओर से परीक्षित महाराज ने यह प्रश्न पूछा है, प्रत्यक्ष उत्तर को नहीं समझ सकते, इसीलिए शुकदेव गोस्वामी यह परोक्ष उत्तर देते हैं, “तुम कहते हो कि ब्रह्म का वर्णन शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता। किन्तु यदि भगवान् ने बुद्धि, मन तथा इन्द्रियाँ न बनाई होतीं तो ध्वनि आदि अनुभव की जाने वाली वस्तुएँ तुम्हारे ब्रह्म की ही तरह अवर्णनीय रह जातीं। तब तो तुम जन्म से अंधे तथा बहरे रहते और भौतिक स्वरूपों तथा ध्वनियों के बारे में कुछ भी न जानते, ब्रह्म की बात तो कोसों दूर रहती। अत: जिस तरह दयालु ईश्वर ने हमें अनुभव करने की अनुभूति तथा दृष्टि, ध्वनि आदि की अनुभूति का अन्यों को वर्णन करने के साधन प्रदान किये हैं उसी तरह वही ईश्वर किसी न किसी को ब्रह्म की अनुभूति करने की ग्रहणशील क्षमता प्रदान कर सकता है। यदि वह चाहे तो शब्दों से किसी असाधारण विधि से काम करा सकता है—भौतिक पदार्थों, गुणों, श्रेणियों तथा कार्यों की ओर सामान्य संदर्भ बताने के अलावा—जिससे वे ब्रह्म को व्यक्त कर सकें। अन्तत: वह सर्वशक्तिमान स्वामी (प्रभु ) है और अवर्णनीय को वर्णनीय बना सकता है।” मत्स्यराज राजा सत्यव्रत को विश्वास दिलाते हैं कि ब्रह्म को वेदों के शब्दों से जाना जा सकता है— मदीयं महिमानं च परं भ्रह्मेति शब्दितम्। वेत्सस्यनुग्रहीतं मे सम्प्रश्नैर्विवृतं हृदि ॥ “मैं तुम्हें ठीक से सलाह दूँगा और तुम पर दया करूँगा और चूँकि तुमने प्रश्न किया है, इसलिए मेरी महिमा से सम्बन्धित हर बात, जो कि परब्रह्म के नाम से विख्यात है तुम्हारे हृदय में प्रकट हो जायेगी। इस तरह तुम मेरे विषय में सब कुछ जान सकोगे।” (भागवत ८.२४.३८) जिस भाग्यशाली जीव को भगवान् ने दैवी उत्सुकता प्रदान की है, वह ब्रह्म के स्वभाव के बारे में प्रश्न करेगा और महान् ऋषियों द्वारा दिये गये उत्तरों को सुनकर, जो वेदों में उद्धृत है, वह भगवान् को यथारूप में जान सकेगा। अतएव परम पुरुष की विशेष कृपा से ही ब्रह्म शब्दितम् (शब्दों द्वारा निरूपित) बनता है। अन्यथा वेदों के शब्द भगवान् की विशेष कृपा के बिना परम ब्रह्म को प्रकट नहीं कर सकते। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती का सुझाव है कि इस श्लोक में शुकदेव गोस्वामी द्वारा कहा गया बुद्धि शब्द महत् तत्त्व को सूचित करने वाला हो सकता है, जिससे आकाश के विभिन्न अंश (यथा ध्वनि) निकलते हैं, जिन्हें यहाँ पर इन्द्रिय कहा गया है। तब मात्रार्थम् का अर्थ होगा “ब्रह्म का वर्णन करने के लिए दिव्य ध्वनि का प्रयोग करने के हेतु” क्योंकि इसी निश्चित कार्य के लिए भगवान् ने प्रकृति को आकाश तथा ध्वनि उत्पन्न करने के लिए प्रेरित किया। सृष्टि के प्रयोजन को आगे समझाने के लिए भवार्थम् तथा आत्मने कल्पनाय (अकल्पनाय के स्थान पर कल्पनाय लेने पर) शब्दों का प्रयोग हुआ है। भवार्थम् का अर्थ है “जीवों के कल्याण हेतु।” परमात्मा (आत्मने ) की पूजा (कल्पनम् ) ही वह साधन है, जिससे सारे जीव उस दैवी प्रयोजन को पूरा कर सकते हैं, जिसके लिए वे जीवित हैं। बुद्धि, मन तथा इन्द्रियाँ भगवान् की पूजा करने के ही निमित्त प्रयुक्त होनी चाहिए, चाहे जीव उन्हें आध्यात्मिक शुद्धता के स्तर पर लाया हो या नहीं। किस तरह शुद्ध तथा अशुद्ध भक्त अपनी बुद्धि, मन तथा इन्द्रियों का उपयोग भगवान् की पूजा करने में लगायें इसका वर्णन गोपालतापनी उपनिषद् में (पूर्व १२) में मिलता है— सत्पुण्डरीकनयनं मेघाभं वैद्युताम्बरम्। द्विभुजं मौनमुद्राध्यं वनमालिनमीश्वरम् ॥ “द्विभुजी रूप में प्रकट होने वाले भगवान् के दिव्य नेत्र कमल जैसे, वर्ण बादलों के रंग का तथा वस्त्र बिजली की चमक जैसे थे। वे जंगली फूलों की माला पहने थे तथा उनका सौन्दर्य उनकी मौन मुद्रा के कारण बढ़ गया था।” चूँकि भगवान् के पूर्ण भक्तों की दिव्य बुद्धि तथा इन्द्रियाँ भगवान् के शुद्ध आध्यात्मिक सौन्दर्य को ठीक से देखती हैं और उनकी अनुभूतियों की प्रतिध्वनि गोपालतापनी श्रुति के वर्णन में प्रतिध्वनित होती हैं, जिसमें भगवान् कृष्ण के नेत्रों, शरीर तथा वस्त्र की उपमा कमल, बादल तथा बिजली से दी गई है। दूसरी ओर, साधन भक्ति के स्तर पर भक्तों को जो शुद्ध होने की प्रक्रिया से गुजर रहे होते हैं भगवान् के असीम दिव्य सौन्दर्य का कुछ कुछ ही अनुभव रहता है। फिर भी गोपालतापनी उपनिषद् जैसे शास्त्रों से इस जैसे उद्धरणों को सुनकर वे अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान् के ध्यान में लग जाते हैं। यद्यपि नवदीक्षित भक्त भगवान् की पूर्ण अनुभूति प्राप्त करना या स्थिर होकर उनके शरीर को घेरने वाले ऐश्वर्य पर ध्यान करना पूरी तरह नहीं सीख पाते, फिर भी वे यह कल्पना करने में आनन्द पाते हैं कि “हम अपने प्रभु का ध्यान कर रहे हैं।” और भगवान् अपनी अपार कृपा की तरंगों में बह कर स्वयं सोचते हैं, “ये भक्तगण मेरा ध्यान कर रहे हैं।” जब उनकी भक्ति परिपक्व हो जाती है, तो वे उन्हें अपने चरणों की घनिष्ठ सेवा करने की ओर खींच लेते हैं। इस तरह यह निष्कर्ष निकला कि ब्रह्म की कृपा से ही वेद ब्रह्म के साकार स्वरूप तक पहुँच सकते हैं। |