रञ्जितं गुणरागेण सजीव इति कथ्यते ॥ “तटस्था शक्ति जो स्वभावत: आध्यात्मिक है, स्व-सचेत संवित् शक्ति से उत्पन्न होती है और भौतिक गुणों के प्रति आसक्त होने से कलुषित हो जाती है, जीव कहलाती है।” यद्यपि जीवात्मा भी भगवान् कृष्ण का अंश है, किन्तु वह कृष्ण के स्वतंत्र अंश विष्णु से इस बात में भिन्न है कि वह वैधानिक स्थिति से आत्मा तथा पदार्थ के बीच तटस्थ है। महावराह पुराण में बतलाया गया है— स्वांशश्चाथ विभिन्नांश इति द्विधा श इष्यते। अंशिनो यत्तु सामर्थ्यं यत्स्वरूपं यथा स्थिति: ॥ तदेव नाणुमात्रोऽपि भेदं स्वांशांशिनो: क्वचित्। विभिन्नांशोऽल्पशक्ति: स्यात् किञ्चित् सामर्थ्यमात्रयुक् ॥ “भगवान् दो प्रकार से जाना जाता है अपने स्वांश रूपों में तथा अपने भिन्नांशों के रूप में। स्वांशों तथा उनके स्रोत के मध्य कभी भी न तो सामर्थ्यों में, न रूपों या स्थितियों में कोई अनिवार्य भेद पाया जाता है। दूसरी ओर विभिन्नांशों में केवल अल्प शक्ति होती है, क्योंकि भगवान् की शक्ति का अल्प अंश ही इन्हें प्रदत्त किया जाता है।” इस जगत में बद्धजीव इस तरह प्रकट होता है, मानो भीतर तथा बाहर से पदार्थ द्वारा आच्छादित हो। बाह्य रूप से स्थूल पदार्थ उसके शरीर तथा परिवेश के रूप में आच्छादित किये रहता है, जबकि भीतर से इच्छा तथा द्वेष उसकी चेतना को कोंचते रहते हैं। किन्तु स्वरूपसिद्ध मुनियों की दिव्य दृष्टि में ये दोनों प्रकार के आवरण निरर्थक हैं। तर्क द्वारा सारी भौतिक पहचानों का, जो आत्मा के स्थूल तथा सूक्ष्म आवरणों पर आधारित भ्रांत धारणाएँ हैं, निषेध कर देने पर विचारवान व्यक्ति यह पायेगा कि आत्मा तनिक भी भौतिक नहीं है, प्रत्युत यह दैवी आत्मा का स्फुलिंग है और भगवान् का दास है। यह समझ कर मनुष्य को भगवान् के चरणकमलों की पूजा करनी चाहिए। ऐसी पूजा वैदिक अनुष्ठान रूपी वृक्ष का पूर्ण विकसित पुष्प है। भगवान् के चरणकमलों के वैभव की अनुभूति होने पर जो धीरे धीरे वैदिक यज्ञों के करने से पनपती है, संसार से मोक्ष का फल अपने आप मिल जाता है और भगवान् की कृपा में अटूट श्रद्धा उत्पन्न होती है। इस जगत में रहते हुए भी यह सब प्राप्त किया जा सकता है। भगवान् कृष्ण ने गोपालतापनी उपनिषद् (उत्तर ४७) में कहा है— मथुरामण्डले यस्तु जम्बूद्वीपे स्थितोऽथ वा। योऽर्चयेत् प्रतिमां प्रति स मे प्रियतरो भुवि ॥ “जो व्यक्ति मथुरा जनपद में या जम्बूद्वीप में कहीं भी रहकर मेरे अर्चाविग्रह के रूप में मेरी पूजा करता है, वह इस जगत में मेरा सर्वाधिक प्रिय बन जाता है।” श्रील श्रीधर स्वामी स्तुति करते हैं— त्वदंशस्य ममेशान त्वन्मायाकृतबन्धनम्। त्वदंघ्रिसेवामादिश्य परानन्द निवर्तय ॥ “हे प्रभु! मैं आपका भिन्नांश हूँ, मुझे अपनी माया द्वारा बनाये हुए बन्धन से मुक्त कीजिये। हे परमानन्द के धाम! आप मुझे अपने चरणों की सेवा में लगाकर ऐसा कीजिये।” |