भगवान् इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, जैसाकि वे भगवद्गीता (९.४) में कहते हैं मया ततं इदं सर्वं जगत्। इस जगत की कोई भी वस्तु, यहाँ तक कि मिट्टी का अत्यन्त तुच्छ पात्र या वस्त्र का टुकड़ा भी उनकी उपस्थिति से रहित नहीं है। चूँकि वे अपने को ईर्ष्यालु आँखों से अदृश्य (अव्यक्तमूर्तिना ) रखते हैं, अतएव भौतिकतावादी उनकी भौतिक शक्ति से गुमराह होकर यह सोचते हैं कि भौतिक सृष्टि का स्रोत परमाणुओं तथा भौतिक शक्तियों का मिश्रण है। ऐसे मूर्ख भौतिकतावादियों पर अनुग्रह प्रदर्शित करते हुए साक्षात् वेद इस स्तुति में उन्हें जीवन के असली उद्देश्य को स्मरण रखने की सलाह देते हैं यह उद्देश्य है अपने सबसे बड़े हितैषी प्रभु की प्रेमाभक्ति द्वारा सेवा करना। मनुष्य-शरीर आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने के लिए आदर्श सुविधा है इसके अंग—कान, जीभ, आँखें इत्यादि—भगवान् के विषय में श्रवण करने, उनके यश का कीर्तन करने, उनकी पूजा करने तथा अन्य सभी आवश्यक भक्ति-कार्य करने के लिए अतीव उपयुक्त हैं। मनुष्य का भौतिक शरीर कुछ ही समय तक ठीक-ठाक रहने वाला है अतएव इसे कुलायम् कहा गया है—पृथ्वी में विलीन होते हुए (कौलीयते )। तो भी यदि इसे उचित ढंग से उपयोग में लाया जाय, तो यह मनुष्य का श्रेष्ठ मित्र हो सकता है। किन्तु जब मनुष्य भौतिक चेतना में निमग्न रहता है, तो शरीर झूठा मित्र बन जाता है और मोहग्रस्त जीव को अपने असली स्वार्थ से हटा देता है। जो लोग अपने अपने पतियों अथवा पत्नियों, अपनी सन्तानों, पालतू पशुओं इत्यादि के शरीरों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, वे अपनी भक्ति को माया अर्थात् असद् उपासना की ओर निर्देशित करते हैं। इस तरह से ऐसे लोग आध्यात्मिक आत्महत्या करते हैं, जैसाकि श्रुतियों ने यहाँ पर कहा है। इससे वे मानवीय जीवन के उच्चतर कर्तव्यों का पालन न करने के लिए भावी दण्ड के भागी होते हैं। ईशोपनिषद् (३) में घोषणा की गई है— असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता:। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना: ॥ “आत्मा को मारने वाला चाहे जो भी हो उसे श्रद्धाविहीन (असूर्या) नामक लोक में जाना होगा, जो अंधकार तथा अज्ञान से पूर्ण है।” जो लोग इन्द्रिय-तृप्ति के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं या जो लोग झूठे भौतिकतावादी शास्त्रों तथा दर्शनों के रूप में अस्थायी की पूजा करते हैं, वे उन इच्छाओं को बनाये रखते हैं, जो उन्हें क्रमश: निम्न से निम्नतर शरीरों में ले जाती हैं। चूँकि वे सदा के लिए संसार-चक्र में फँसे रहते हैं, अत: उनके उद्धार की एकमात्र आशा यही है कि भगवद्भक्तों के द्वारा दी गई दयापूर्ण शिक्षाओं को सुनने का अवसर पा सकें। श्रील श्रीधर स्वामी प्रार्थना करते हैं— त्वय्यात्मनि जगन्नाथे मन्मनो रमतामिह। कदा ममेदृशं जन्म मानुषं सम्भविष्यति ॥ “मुझे कब वह मनुष्य-जन्म प्राप्त होगा, जिसमें मेरा मन परमात्मा एवं जगत के ईश्वर आपमें आनन्द ले सकेगा?” |