अविज्ञातं विज्ञानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ “जो कोई परम सत्य के विषय में किसी प्रकार का मत रखने से इनकार करता है उसका मत सही होता है, किन्तु जो ब्रह्म के विषय में अपना मत रखता है, वह उन्हें नहीं जानता। जो यह दावा करते हैं कि वे उन्हें जानते हैं उनसे वे अज्ञात होते हैं, वे उन्हीं के द्वारा जाने जाते हैं, जो उन्हें जानने का दावा नहीं करते।” (केन उपनिषद् २.३) आचार्य श्रीधर स्वामी ने इस श्लोक की व्याख्या इस प्रकार की है अनेक दार्शनिकों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से जीवन के रहस्यों का अध्ययन किया है और व्यापक दृष्टि से भिन्नता के सिद्धान्त बनाये हैं। उदाहरणार्थ, अद्वैत मायावादी यह सुझाव रखते हैं कि जीव केवल एक है और उसे आच्छादित किए हुए एक अविद्या की शक्ति है, जो अनेक रूप उत्पन्न करती है। किन्तु इस परिकल्पना से यह बेतुका निष्कर्ष निकलता है कि जब कोई जीव मुक्त हो जाता है, तो सभी मुक्त हो जाते हैं। दूसरी ओर यदि एक जीव को आच्छादित करने वाली अनेक अविद्याएँ होंगी तो प्रत्येक अविद्या उस जीव के कुछ ही हिस्से को ढकेगी और तब हमें यह कहना होगा कि किसी विशेष समय पर वह अंशत: मुक्त होता है और उसके शेष अंश बन्धन में पड़े रहते हैं। यह सर्वथा बेहूदा विचार है। इस तरह जीवों की बहुरूपता से बचा नहीं जा सकता। यही नहीं, अन्य सिद्धान्तवादी भी हैं, यथा न्याय तथा वैशेषिक के समर्थक, जो यह दावा करते हैं कि जीवात्मा का आकार अनिश्चित है। इन विद्वानों का तर्क है कि यदि आत्माएँ सूक्ष्म होतीं, तो वे अपने ही शरीरों में व्याप्त न होतीं और यदि वे मध्यम आकार की होतीं, तो वे खंडों में विभाजित हो सकतीं और तब नित्य न होतीं। यह धारणा कम-से-कम न्याय-वैशेषिका तत्त्व-मीमांसा के अनुसार मानी जाती है, किन्तु यदि असंख्य नित्य जीवात्माएँ असीमत: विशाल हों, तो वे बन्धन की किसी शक्ति से किस तरह आच्छादित हो सकतीं, चाहे वे अविद्या से सम्बद्ध होतीं या स्वयं परमेश्वर से? इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मा के लिए न तो कोई अविद्या हो सकती है न ही उसे किसी प्रतिबन्ध से मुक्त होना है। अनन्त आत्माओं को बिना परिवर्तन के नित्य उसी रूप में रहे आना है। इसका अर्थ यह होगा कि सभी आत्माएँ ईश्वर के तुल्य होंगी, क्योंकि ईश्वर को इन सर्वव्यापी अपरिवर्तनशील प्रतिद्वन्द्वियों को नियंत्रित करने के लिए अवसर ही नहीं मिलेगा। वे वैदिक श्रुति मंत्र जो एक स्वर से व्यष्टि आत्माओं पर ईश्वर की प्रभुता को बतलाते हैं, उनका तर्कसंगत खंडन नहीं किया जा सकता। असली दार्शनिक को श्रुति के कथनों को सभी चर्चित विषयों में विश्वसनीय प्रमाण मानना चाहिए। निस्सन्देह अनेक स्थानों पर वैदिक वाङ्मय में परमेश्वर की शाश्वत अपरिवर्तनशील अभिन्नता को जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसे हुए जीवों की परिवर्तनशील देहों से भिन्न बतलाया गया है। श्रील श्रीधर स्वामी प्रार्थना करते हैं— अन्तर्यन्ता सर्वलोकस्य गीत: श्रुत्या युक्त्या चैवम् एवावसेय:। य: सर्वज्ञ: सर्वशक्तिर्नृसिंह: श्रीमन्तं तं चेतसैवावलम्बे ॥ “मैं अपने हृदय में उसकी शरण ग्रहण करता हूँ, जिनका सारे जगतों के आन्तरिक नियन्ता के रूप में महिमागान किया जाता है और जिसकी पुष्टि सारे वेद तर्क द्वारा करते हैं। वह सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान लक्ष्मीपति नृसिंह हैं।” |