किन्तु सच तो यह है कि आत्मा का सार ब्रह्म से तादात्म्य है, जिस तरह मिट्टी के पात्र की दीवालों के छोटे छोटे छिद्र सारत: विस्तीर्ण आकाश से एकाकार हैं। मिट्टी के पात्र के बनाने तथा टूटने की ही तरह किसी व्यष्टि आत्मा का “जन्म” पहले भौतिक शरीर से उसके आच्छादित होने में है और उसकी “मृत्यु” या मोक्ष उसके स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों का एक ही बार में सदा के लिए विनाश है। निश्चय ही ऐसा “जन्म” तथा “मृत्यु” परमेश्वर की कृपा से ही घटित होते हैं। प्रकृति का उसके नियन्ता से जो भौतिक सृष्टि में असंख्य बद्धजीव उत्पन्न करता है, संयोग होने की उपमा जल तथा वायु के संयोग से दी गई है, जिससे समुद्र की सतह पर फेन के असंख्य बुलबुले उत्पन्न होते हैं। जिस तरह सक्षम कारणरूपी वायु उपादान कारण रूपी जल को बुलबुला बनने के लिए बाध्य करता है, उसी तरह परम पुरुष अपने दृष्टिपात से प्रकृति को भौतिक तत्त्वों तथा इन तत्त्वों से बनने वाले अनेक पदार्थों के रूप में परिवर्तित होने के लिए प्रेरित करता है। इस तरह प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण अर्थात् सृजन का अवयव रूपी कारण है। किन्तु अन्तत: वह परमेश्वर का अंश भी है, इसलिए परमेश्वर ही एकमात्र उपादान कारण तथा सक्षम कारण भी हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् (२.२.१) में इसका वर्णन हुआ है तस्माद् वा एतस्माद् आत्मन आकाश: सम्भूत: इस परमात्मा से आकाश उत्पन्न हुआ तथा सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय उसने इच्छा की कि सन्तति में विस्तार करके मैं अनेक हो जाऊँ। जब जीवात्माएँ परमेश्वर तथा प्रकृति से “जन्म” लेती हैं, तब न तो वे उत्पन्न होती हैं, न ही जब वे भगवान् के नित्य धाम की ह्लादिनी लीलाओं में उनसे मिलने के लिए उनमें वापस “लीन” होती हैं, तो वे विनष्ट होती हैं। इसी तरह जिस प्रकार अति सूक्ष्म जीव बिना किसी वास्तविक परिवर्तन के जन्मते तथा मरते प्रतीत होते हैं उसी तरह परमात्मा बिना किसी विकार के अपने उद्भवों को बाहर निकाल सकता है और भीतर खींच सकता है। इस प्रकार बृहादरण्यक उपनिषद् पुष्टि करता है (४.५.१४) कि अविनाशी वारेऽयम् आत्मा—यह आत्मा निस्सन्देह अविनाशी है। यह कथन परमात्मा तथा उसके अधीन जीवात्मा दोनों पर लागू हो सकता है। जैसाकि श्रील श्रीधर स्वामी ने बतलाया है कि जीव की भौतिक अवस्था का विलय दो प्रकार से होता है आंशिक तथा पूर्ण। आंशिक विलय तब होता है, जब आत्मा को स्वप्नरहित निद्रा आती है, जब वह अपने शरीर को त्यागता है और जब सारी आत्माएँ फिर से ब्रह्माण्ड के प्रलय के समय महाविष्णु के शरीर में प्रवेश करती हैं। ये विभिन्न प्रकार के विलय विभिन्न प्रकार के फूलों से मधुमक्खियों द्वारा लाये गये मधु को मिलाने के समान हैं। मधु के विभिन्न स्वाद-गंध प्रत्येक जीव के सुप्त कर्मफलों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो अस्तित्व में रहने पर भी एक दूसरे से पहचाने नहीं जा सकते। तुलनात्मक दृष्टि से, जीवात्मा की भौतिक अवस्था का अन्तिम विलय संसार से उसकी मुक्ति है, जो नदियों का समुद्र में मिलने जैसी है। जिस तरह समुद्र में प्रवेश करने के बाद विभिन्न नदियों का जल परस्पर मिल जाता है और एक-दूसरे से पहचाना नहीं जा सकता, उसी तरह मुक्ति के साथ जीव की सारी झूठी भौतिक उपाधियाँ छूट जाती हैं और सारे मुक्त जीव पुन: भगवान् के सेवकों की भाँति समभाव से स्थित हो जाते हैं। उपनिषदों में इन विलयों का वर्णन इस प्रकार हुआ है यथा सौम्य मधु मधुकृतो निस्तिष्ठन्ति नानात्ययानां वृक्षाणां रसान् समवहारम् एकतां संगयन्ति। ते यथा तत्र न विवेकं लभन्ते अमुष्याहं वृक्षस्य रसोऽस्म्यमुष्याहं रसोऽस्मीत्येवमेव खलु सौम्येमा: सर्वा: प्रजा: सति सम्पदय न विदु: सति सम्पाद्यामहे “हे बालक! यह (आंशिक विलय) वैसा ही है, जैसाकि मधुमक्खियों द्वारा विविध प्रकार के वृक्षों के फूलों से निकाले रस को मिलाकर एक मिश्रण रूप में बनाया गया मधु होता है। जिस प्रकार मिश्रित रस यह अन्तर नहीं कर पाते कि मैं अमुक फूल का रस हूँ या कि किसी अन्य फूल का रस हूँ, उसी तरह हे बालक! जब ये सारे जीव परस्पर मिल जाते हैं, तो वे यह नहीं सोच पाते कि “अब हम एक दूसरे से मिल गये हैं।” (छन्दोग्य उपनिषद् ६.९.१-२) यथा नद्य: स्यन्दमाना: समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय। तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्त: परात्परं पुरुषं उपैति दिव्यम् ॥ “जिस तरह नदियाँ अपने गन्तव्य पर पहुँच कर अपने नामों तथा रूपों को त्याग कर समुद्र में मिलकर विलीन हो जाती हैं, उसी तरह विद्वान व्यक्ति भौतिक नामों तथा स्वरूपों से मुक्त होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है, जो अद्भुत भगवान् हैं।” (मुण्डक उपनिषद ३.२.८) श्रील श्रीधर स्वामी प्रार्थना करते हैं— यस्मिन्नुद्यद्विलयमपि यद् भाति विश्वं लयादौ जीवोपेतं गुरुकरुणया केवलात्मावबोधे। अत्यन्तान्तं व्रजति सहसा सिन्धुवत् सिन्धुमध्ये मध्ये चित्तं त्रिभुवनगुरुं भावये तं नृसिंहम् ॥ “परमेश्वर आत्म-प्रकाशित होने से सर्वज्ञ हैं। उनकी परम कृपा से, यह ब्रह्माण्ड जो कि बारम्बार उत्पन्न होता और लय होता है, विश्व-प्रलय के समय जीवों के साथ साथ उनमें विलीन होने के बाद उन्हीं में उपस्थित रहता है। ब्रह्माण्ड का यह पूर्ण विलय सहसा होता है, जिस तरह कि समुद्र में जाकर नदी मिल जाती है। मैं अपने हृदय के भीतर तीनों लोकों के स्वामी नृसिंह भगवान् का ध्यान करता हूँ।” |