परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिशश्च। उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानम् अभिसंविवेश ॥ “सारी जीव-योनियों, सारे लोकों तथा सारी दिशाओं में अन्तरिक्ष की सारी सीमाओं को पार करके मनुष्य मूल अमर आत्मा के पास पहुँचता है। तब उसे उनके राज्य में स्थायी रूप से प्रवेश करने तथा उनकी साक्षात् पूजा करने का अवसर प्राप्त होता है।” भले ही विविध परस्पर विरोधी भौतिक दर्शनों के समर्थक अपने को अत्यन्त बुद्धिमान मानें, किन्तु वे सबके सब भगवान् की माया द्वारा मोहित हैं। वैष्णवजन सामान्य मोह की इस रीति को जानते हैं, इसलिए वे दास्य, सख्य इत्यादि भक्ति-रसों में भगवान् के प्रति अपने को समर्पित करते हैं। वे दार्शनिक वाद-विवाद की गर्मी और झगड़े में न पडक़र प्रतिक्षण आनन्द का अनुभव करते हैं, क्योंकि उनके प्रेम का लक्ष्य वह है, जो भवबन्धन को अन्त करने वाला है। भगवान् विष्णु के भक्त न केवल इस जीवन में अपितु अगले जीवनों में भी निरन्तर आनन्द का भोग करते हैं। वे चाहे जो भी जन्म लें, वे भगवान् के साथ प्रेमाभक्ति के आदान-प्रदान का आनंद लेते रहते हैं। इस प्रकार निष्ठावान वैष्णव प्रार्थना करता है— नाथ योनि सहस्रेषु येषु येषु भ्रमाम्यहम्। तत्र तत्राच्युता भक्तिरच्युतास्तु दृढा त्वयि ॥ “हे नाथ! मैं जीवन की हजारों योनियों में जहाँ-जहाँ घूमूँ प्रत्येक अवस्था में हे अच्युत! मैं आपकी दृढ़ भक्ति पाऊँ।” (विष्णु पुराण ) कुछ दार्शनिक यह प्रश्न उठा सकते हैं कि वैष्णवजन त्वम् (तुम, जीव) तथा तत् (वह, ब्रह्म) के पूर्ण वैश्लेषिक ज्ञान के बिना एवं भौतिक जीवन के प्रति पर्याप्त घृणा उत्पन्न किये बिना इस भवबन्धन को कैसे जीत सकते हैं? यहाँ पर साक्षात् वेद उत्तर देते हैं कि भगवद्भक्तों पर भौतिक मोह बने रहने की गुंजाईश नहीं रहती, क्योंकि भक्ति की प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही भगवत्कृपा से सारा भय तथा आसक्ति दूर हो जाते हैं। इस जगत में समय (काल) ही समस्त भय का कारण है। वह भूत, वर्तमान तथा भविष्य इन अपने तीन विभागों से रोग, मृत्यु तथा नरक-यातना का भय उत्पन्न करता है, किन्तु केवल उनके लिए जिन्होंने भगवान् के चरणों की शरण नहीं ग्रहण की है। जैसाकि स्वयं भगवान् ने रामायण (लंका खण्ड १८.३३) में कहा है— सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वदा तस्मै ददाम्येतद् व्रतं मम ॥ “यदि कोई एक बार भी यह याचना करते हुए कि “मैं आपका हूँ” मेरी शरण में आता है, उसे मैं शाश्वत अभय प्रदान करता हूँ। यह मेरा दृढ़ व्रत है।” साथ ही, भगवद्गीता (७.१४) में भगवान् कहते हैं— दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायां एतां तरन्ति ते ॥ “तीन गुणों से युक्त मेरी इस दैवी शक्ति से पार पाना कठिन है। किन्तु जिन्होंने मेरी शरण ग्रहण कर ली है, वे आसानी से इसे पार कर सकते हैं।” वैष्णवजन शुष्क दार्शनिक विषयों में दीर्घ समय के लिए व्यर्थ बहस में सिर खपाकर अपना समय नहीं गँवाना चाहते। वे किसी दार्शनिक प्रतिद्वन्द्वी से झगडऩे की बजाय भगवान् की पूजा करना चाहेंगे। वैष्णवों की समझ शास्त्र के आवश्यक सन्देश से मेल खाती है। इन भक्तों की परब्रह्म के प्रति धारणा, जो कि कृष्ण, राम आदि दैवी रूपों की प्रेममयी लीलाओं तथा अगाध समुद्र के रूप में है और स्वयं में भगवान् के नित्य दास की कल्पना तत् तथा त्वम् जैसे वेदान्त दर्शन के पूर्ण निष्कर्ष के तुल्य है। भगवान् तथा उनके उद्भव यथा जीवात्माएँ एक ही समय भिन्न तथा अभिन्न हैं, जिस तरह कि सूर्य तथा उसकी विस्तारशील किरणें। जीवों की इतनी संख्या है कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती और इनमें से हर एक सदैव चेतना से युक्त सजीव है, जैसाकि श्रुतियाँ पुष्टि करती हैं—नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् (कठ उपनिषद् ५.१३ तथा श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.१३)। जब भौतिक सृष्टि के प्रारम्भ में महाविष्णु के शरीर से ये जीव बाहर निकलते हैं, तो वे भगवान् की तटस्था शक्ति के सूक्ष्म कण होने के कारण एकसमान होते हैं। किन्तु विभिन्न अवस्थाओं के कारण वे चार समूहों में बँट जाते हैं कुछ तो अज्ञान से ढके रहते हैं, जो उनकी दृष्टि को बादल के समान ढाँप लेती है। कुछ ज्ञान तथा भक्ति के मिश्रण से अज्ञान से मुक्त हो जाते हैं। तीसरा समूह नितान्त शुद्ध भक्ति से पूर्ण होता है, जिनमें कल्पित ज्ञान तथा सकाम कर्म की कुछ कुछ मिश्रित इच्छा रहती है। ऐसे जीवों को पूर्ण ज्ञान तथा आनन्द से युक्त शुद्ध शरीर प्राप्त होता है, जिससे वे भगवद्भक्ति में लग सकते हैं। अन्तिम समूह उनका है, जिनका अज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। वे भगवान् के नित्य संगी हैं। नारद पञ्चरात्र में जीवात्मा की तटस्थ स्थिति का वर्णन हुआ है— यत् तटस्थं तु चिद्रूपं स्वसंवेद्याद् विनिर्गतम्। रञ्जितं गुणरागेण स जीव इति कथ्यते ॥ “तटस्थ शक्ति को भगवान् की संवित् (ज्ञान) शक्ति से उद्भूत समझना चाहिए। यह उद्भव, जीव कहलाता है, जो प्रकृति के गुणों द्वारा बद्ध हो जाता है।” चूँकि जीव भगवान् की बहिरंगा शक्ति, माया और उनकी अन्तरंगा दिव्य शक्ति चित् के मध्य स्थित है, इसलिए जीव तटस्थ कहलाता है। किन्तु जब भगवद्भक्ति का अनुशीलन करके वह मुक्ति पा लेता है, तो वह पूर्णतया भगवान् की अन्तरंगा शक्ति की शरण में आ जाता है। तब वह प्रकृति के गुणों से कलुषित नहीं होता। इसकी पुष्टि भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता (१४.२६) में की है— मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ “जो प्रत्येक दशा में एकान्तिक भाव से पूर्ण भक्ति में अपने को लगाता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघकर ब्रह्म पद को प्राप्त होता है।” आत्मा की पूजा का लक्ष्य तीन प्रकार से अनुभव किया जाता है ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान्। निर्विशेष ब्रह्म सूर्य के चमकीले तेज जैसा है, परमात्मा सूर्य-मंडल जैसा है और भगवान् सूर्य के भीतर का अधिष्ठाता देव है, जिसके साथ विस्तृत साज-सामान रहता है। अथवा एक अन्य दृष्टान्त दिया जा सकता है, उन यात्रियों का जो किसी शहर की ओर आते हुए, उसके चिह्नों को शुरु में दूर से नहीं पहचान पाते—उन्हें अपने सामने अस्पष्ट-सा चमकता हुआ कुछ दिखता रहता है। किन्तु जब वे पास आते हैं, तो कुछ ऊँची इमारतें दिखने लगती हैं और जब वे बिल्कुल निकट पहुँच जाते हैं, तो शहर को भलीभाँति देख सकते हैं—मकानों, मार्गों, सार्वजनिक इमारतों, उद्यानों तथा नागरिकों की चहल पहल से भरा शहर। इसी तरह जो लोग निर्विशेष ध्यान की ओर प्रवृत्ति रखते हैं, उन्हें भगवान् के तेज का कुछ कुछ साक्षात्कार (ब्रह्म) हो सकता है, जो और अधिक निकट जाते हैं, वे उन्हें हृदय में परमात्मा रूप में देख सकते हैं और जो उनके बिल्कुल पास आते हैं, वे उन्हें पूरी तरह साक्षात् रूप में (भगवान्) जान सकते हैं। सार रूप में श्रील श्रीधर स्वामी स्तुति करते हैं— संसारचक्रक्रकचैर्विदीर्णम् उदीर्णनानाभवतापतप्तम्। कथञ्चिदापन्नमिह प्रपन्नं त्वमुद्धर श्रीनृहरे नृलोकम् ॥ “हे नरहरि! कृपा करके उन जीवों का उद्धार कीजिये, जिन्होंने नाना प्रकार के कष्ट सहे हैं और संसार के चक्र की तेज धार से विदीर्ण कर दिये गये हैं, किन्तु जिन्होंने किसी तरह से अब आपको ढूँढ़ लिया है और अपने को आपकी शरण में समर्पित कर रहे हैं।” |