परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदम् आयान् नास्त्यकृत: कृतेन ॥ “जब ब्राह्मण यह जान लेता है कि स्वर्ग जाना कर्म का दूसरा संचय मात्र ही है, तो वह विरक्त हो जाता है और अपने कर्मों से दूषित नहीं होता।” बृहदारण्यक उपनिषद् (४.४.९) तथा कठ उपनिषद् (६.१४) से इसकी पुष्टि होती है— यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रीता:। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ “जब कोई व्यक्ति अपने हृदय की सारी पापपूर्ण इच्छाएँ त्याग देता है, तो मृत्यु के बदले वह शाश्वत आध्यात्मिक जीवन लेता है और ब्रह्म में असली सुख पाता है। गोपालतापनी उपनिषद् (पूर्व १५) में यह निष्कर्ष दिया गया है कि भक्तिरस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधिनैरास्येन् आमुष्मिन् मन:कल्पनम् एतदेव नैष्कर्म्यम्—“भक्ति तो परमेश्वर की पूजा करने की विधि है। इसमें सारी भौतिक उपाधियों से चाहे वे इस जीवन की हों या अगले की, मुँह मोड़ कर उन्हीं पर मन को स्थिर करना होता है। यही असली वैराग्य है।” श्रुतियों ने यहाँ पर जिन वस्तुओं के नाम गिनाये हैं, वे सभी सांसारिक सफलता के मापदण्ड हैं— स्वजना: (सेवक), आत्मा (सुन्दर शरीर), सुता: (गर्व करने योग्य पुत्र), दारा: (सुन्दर आकर्षक पत्नी), धनम् (धन), धाम (प्रतिष्ठापूर्णघर), धरा (भूमि), असव: (स्वास्थ्य तथा शक्ति) तथा रथा: (मोटर-कार तथा अन्य वाहन जो प्रतिष्ठा को प्रदर्शित करते हैं)। किन्तु जिसने भक्ति के आनन्द का अनुभव करना प्रारम्भ कर दिया है, वह इन सारी वस्तुओं का आकर्षण त्याग देता है, क्योंकि उसे समस्त आनन्द के आगार भगवान् में, जो अपने आनन्द को अपने सेवकों में बाँटते हैं असली तुष्टि मिलती है। हममें से हर व्यक्ति अपना जीवन-मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र है—हम चाहें तो अपना शरीर, मन, वचन, प्रतिभा तथा धन भगवान् के यश को अर्पित कर दें या फिर हम उनकी उपेक्षा करके अपने निजी सुख के लिए संघर्ष करें। यह दूसरा मार्ग यौन तथा अभिलाषा की दासता की ओर ले जाने वाला है, जिसमें आत्मा को कभी असली संतोष नहीं मिलता, अपितु वह निरन्तर कष्ट उठाता रहता है। वैष्णवजन भौतिकतावादियों को इस तरह भोगते देखकर दुखी होते हैं, अतएव वे उन्हें प्रबोधित करने का प्रयास करते रहते हैं। श्रील श्रीधर स्वामी प्रार्थना करते हैं— भजतो हि भवान् साक्षात् परमानन्दचिद्धन:। आत्मैव किमत: कृत्यं तुच्छदारसुतादिभि: ॥ “जो आपकी पूजा करते हैं उनके लिए आप उनकी आत्मा और सर्वोच्च आनन्द के आध्यात्मिक कोष बन जाते हैं। उन्हें संसारी पत्नियों, बच्चों इत्यादि से क्या काम?” |