साक्षात् वेदों की इस स्तुति में भौतिकतावादियों के तर्क को सत इदम् उत्थितं सत् शब्दों द्वारा सारांश रूप में कहा गया है। सामान्य रूप से यह तर्क सही है कि किसी वस्तु से उत्पन्न वस्तु उस वस्तु से बनी होती है। उदाहरणार्थ, सोने से बने कुण्डल तथा अन्य गहने सोना ही हैं। इस तरह मीमांसक जन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह जगत भी शाश्वत सत्य है क्योंकि जिस रूप में हम इस जगत को जानते हैं वह नित्य सत्य की अभिव्यक्ति है। किन्तु संस्कृत का अपादान कारक सत: (शाश्वत सत्य से) कार्य तथा कारण में निश्चित पृथकता को बतलाने वाला है। अतएव सत् से जो भी उत्पन्न होता है, वह उससे सार्थक रूप से भिन्न होगा—अर्थात् क्षणिक होगा। इस तरह भौतिकतावादियों का तर्क दोषपूर्ण होता है, क्योंकि इससे जो सिद्ध करना होता है उसके विरुद्ध सिद्ध होता है (तर्कहतम् ) अर्थात् इस जगत को जैसा हम जानते हैं, केवल वैसा ही है, यह नित्य है और इससे पृथक् कोई दिव्य सत्य नहीं है। प्रतिरक्षा पक्ष में मीमांसक यह दावा कर सकते हैं कि वे अभेद नहीं सिद्ध करना चाहते, अपितु भेद की संभावना को अथवा दूसरे शब्दों में ज्ञात जगत से भिन्न किसी सत्य की संभावना को गलत सिद्ध करना चाहते हैं। मीमांसा तर्क के समर्थन का यह प्रयास व्यभिचरति क्व च जैसे पद से आसानी से निराकरित हो जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सामान्य नियम का विरोध करने वाले उदाहरण भी मिलते हैं। हाँ, कभी कभी स्रोत अपने से उत्पन्न वस्तु से अत्यधिक भिन्न होता है, जैसे कि मनुष्य तथा उसका युवक पुत्र या हथौड़ा तथा मिट्टी के घड़े का विनाश। किन्तु मीमांसक उत्तर देते हैं कि ब्रह्माण्ड की सृष्टि उस तरह की नहीं है जैसे कि आपके अन्य विपरीत उदाहरण हैं: पिता तथा हथौड़ा मात्र सक्षम कारण हैं, जबकि सत् भी इस ब्रह्माण्ड का उपादान कारण है। इस उत्तर की आशा क्व च मृषा (कभी कभी कार्य भ्रामक होता है) शब्दों से की जाती है। जब पृथ्वी पर रस्सी में सर्प का भ्रम होता है, तो रस्सी सर्प के भ्रम का उपादान कारण है, जो काल्पनिक सर्प से कई मामलों में, विशेष रूप से सत्य होने के कारण भिन्न है। मीमांसक फिर उत्तर देते हैं कि काल्पनिक सर्प का उपादान कारण रस्सी ही नहीं है—यह तो रस्सी अप्रेक्षक की अज्ञानता (अविद्या ) है। चूँकि अविद्या वस्तु नहीं है, अतएव इससे उत्पन्न सर्प भ्रम कहलाता है। साक्षात् वेद उत्तर देते हैं कि इतने पर भी यह सत्य है कि अज्ञान के साथ सत् से (तथोभययुक् ) ब्रह्माण्ड की सृष्टि होती है। यहाँ पर भ्रम का काल्पनिक तत्त्व, माया, जीवों की यह भ्रान्त धारणा है कि उनके अपने शरीर तथा परिवर्तनशील अन्य भौतिक स्वरूप स्थायी हैं। लेकिन मीमांसक प्रत्युत्तर देते हैं कि इस संसार विषयक हमारा अनुभव वैध है, क्योंकि जिन वस्तुओं का हम अनुभव करते हैं, वे हमारे व्यावहारिक कार्य के लिए उपयोगी हैं। यदि हमारे अनुभव वैध न होते तो हम कभी निश्चित न कर पाते कि हमारी अनुभूतियाँ तथ्यों के संगत हैं। हमारी दशा उस मनुष्य जैसी होती जो पूरी जाँच-पड़ताल के बाद भी संशय करता कि रस्सी साँप हो सकती है। किन्तु नहीं। श्रुतियाँ यहाँ उत्तर देती हैं कि पदार्थ का नश्वर स्वरूप नित्य आध्यात्मिक सत्य का भ्रामक अनुकरण है, जिसे बद्धजीवों की भौतिक कर्म करने की इच्छा पूरी करने के लिए चतुराई से गढ़ा गया है (व्यवहृतये विकल्प इषित:)। इस जगत के स्थायित्व का भ्रम उन अन्धे पुरुषों की परम्परा द्वारा चालू रहता है, जो अपने पूर्वगामियों से भौतिकतावादी विचार सीखते हैं और अपने वंशजों को यह भ्रम हस्तान्तरित करते जाते हैं। कोई भी यह देख सकता है कि प्राय: भ्रम के आधार को हटा देने पर भी स्थायी मानसिक प्रभाव के बल के अन्तर्गत उसकी मानसिक छाप बनी रहती है। इस तरह पूरे इतिहास में अंधे दार्शनिकों ने अन्य अन्धे व्यक्तियों को यह आश्वस्त करके दिग्भ्रमित किया है कि वे संसारी अनुष्ठान करके सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। मूर्ख लोग भले ही जाली सिक्कों में पारस्परिक आदान-प्रदान कर लें, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि ऐसा धन भोजन, दवा तथा अन्य व्यापार की वस्तुएँ खरीदने के लिए व्यर्थ है। यदि इस जाली धन को दान में दिया जाय, तो इससे पुण्य भी नहीं मिलेगा। लेकिन मीमांसक कहते हैं कि वैदिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने वाला निष्ठावान व्यक्ति मोहग्रस्त मूर्ख कैसे हो सकता है, क्योंकि वैदिक शास्त्रों की संहिताएँ तथा ब्राह्मण यह स्थापित करते हैं कि कर्म का फल शाश्वत है? उदाहरणार्थ, अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिन: सुकृतं भवति—चातुर्मास व्रत रखने वाले को अक्षय सद्कर्म मिलते हैं तथा अपाम सोमम् अमृता बभूम—हमने सोम रस पिया है और अमर हो चुके हैं (ऋग्वेद ८.४३.३)। यह इंगित करके श्रुतियाँ उत्तर देती हैं कि ईश्वर के बुद्धिमत्तापूर्ण शब्द, जिनसे वेद बने हैं, उनको मोहित करते हैं, जिनकी क्षीण बुद्धि कर्म में अत्यधिक श्रद्धा के भार से कुचली जा चुकी है। यहाँ पर उरु-वृत्तिभि: विशिष्ट शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो बतलाता है कि वैदिक मंत्र गौण, लक्षणा आदि भाषा वैज्ञानिक अर्थों से नाना प्रकार के भ्रामक अर्थ प्रदान करके अपने रहस्य की रक्षा सभी से करते हैं, सिवाय उनसे जिनकी श्रद्धा भगवान् विष्णु में है। अपने आदेशों में वास्तव में वेद यह नहीं कहते कि कर्म के फल शाश्वत हैं, अपितु रूपकों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप में नियमित यज्ञों की प्रशंसा करते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् निश्चित रूप से कहता है कि अनुष्ठानिक कर्म के फल अस्थायी होते हैं—तद् यथेह कर्मचितो लोक: क्षीयते एवम् एवामुत्र पुण्यचितो लोक: क्षीयते—जिस तरह इस जगत में कठिन श्रम करके मनुष्य जो भी लाभ उठाना चाहता है, वह अन्तत: समाप्त हो जाता है, उसी तरह अपनी शुद्धता से मनुष्य अगले लोक में अपने लिए जो भी जीवन कमाता है, वह भी समाप्त हो जायेगा। (छान्दोग्य उपनिषद् ८.१.१६) अनेक श्रुति मंत्रों के प्रमाण के अनुसार सम्पूर्ण भौतिक जगत परम सत्य का क्षणिक उद्भव है। उदाहरणार्थ, मुण्डक उपनिषद् (१.१.७) कहता है— यथोर्णनाभि: सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्याम् ओषधय: सम्भवन्ति। यथा सत: पुरुषात् केशलोमानि तथाक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् ॥ “जिस तरह मकड़ी द्वारा जाल का विस्तार किया जाता है और फिर समेट लिया जाता है, जिस तरह पौधे पृथ्वी से उगते हैं और जिस तरह जीवित व्यक्ति के सिर तथा शरीर पर बाल उगते हैं, उसी तरह यह ब्रह्माण्ड अक्षर ब्रह्म से उत्पन्न होता है।” श्रील श्रीधर स्वामी प्रार्थना करते हैं— उद्भूतं भवत: सतोऽपि भुवनं सन्नैव सर्प: स्रज: कुर्वत् कार्यं अपीह कूतकनकं वेदोऽपि नैवं पर:। अद्वैतं तव सत्परं तु परमानन्दं पदं तन्मुदा वन्दे सुन्दरमिन्दिरानुत हरे मा मुञ्च मामानतम् ॥ “यद्यपि यह जगत सत्य के सार रूप आप से उदय हुआ है, किन्तु यह शाश्वत रूप से सत्य नहीं है। रस्सी से प्रकट होने वाला भ्रामक सर्प स्थायी वास्तविकता नहीं होता, न ही स्वर्ण से उत्पन्न विकार ही। वेद कभी यह नहीं कहते कि ये वास्तविक हैं। वास्तविक दिव्य अद्वैत सत्य आपका परम आनन्दमय निजी धाम है। मैं उस धाम को नमस्कार करता हूँ। हे हरि! मैं भी आपको नमस्कार करता हूँ, जिन्हें देवी इन्दिरा सदैव नमस्कार करती हैं। इसलिए आप मुझे कभी भी छोड़ें नहीं।” |