श्रीशुक उवाच
एवं स ऋषिणादिष्टं गृहीत्वा श्रद्धयात्मवान् ।
पूर्ण: श्रुतधरो राजन्नाह वीरव्रतो मुनि: ॥ ४५ ॥
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्—इस प्रकार से; स:—वह (नारद); ऋषिणा—ऋषि (नारायण ऋषि) द्वारा; आदिष्टम्—आदेश दिया गया; गृहीत्वा—स्वीकार करके; श्रद्धया—श्रद्धापूर्वक; आत्म-वान्—आत्मवान; पूर्ण:—अपने कार्यों में सफल; श्रुत—उसने जो कुछ सुना था, उस पर; धर:—ध्यान करते हुए; राजन्—हे राजा (परीक्षित); आह—कहा; वीर—वीर क्षत्रिय की तरह; व्रत:—जिसका व्रत; मुनि:—मुनि ने ।.
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब श्री नारायण ऋषि ने उन्हें इस तरह आदेश दिया, तो आत्मवान नारद मुनि ने उस आदेश को दृढ़ निष्ठा के साथ स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनका व्रत एक योद्धा जैसा वीत्वपूर्ण होता है। हे राजन्, अब अपने सारे कार्यों में सफल होकर, उन्होंने जो कुछ सुना था, उस पर विचार किया और भगवान् को इस प्रकार उत्तर दिया।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥