श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 9: माता यशोदा द्वारा कृष्ण का बाँधा जाना  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  माता यशोदा कृष्ण को स्तन-पान करा रहीं थीं किन्तु उन्होंने देखा कि आग के ऊपर दूध उबल रहा है। चूँकि दासियाँ अन्य कार्य में व्यस्त थीं, अत: दूध पिलाना बन्द करके माता...
 
श्लोक 1-2:  श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : एक दिन जब माता यशोदा ने देखा कि सारी नौकरानियाँ अन्य घरेलू कामकाजों में व्यस्त हैं, तो वे स्वयं दही मथने लगीं। दही मथते समय उन्होंने कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का स्मरण किया और स्वयं उन क्रीड़ाओं के विषय में गीत बनाते हुए उन्हें गुनगुनाकर आनन्द लेने लगीं।
 
श्लोक 3:  केसरिया-पीली साड़ी पहने, अपनी स्थूल कमर में करधनी बाँधे, माता यशोदा मथानी की रस्सी खींचने में काफी परिश्रम कर रही थीं, उनकी चूडिय़ाँ तथा कान के कुण्डल हिल-डुल रहे थे और उनका पूरा शरीर हिल रहा था। अपने पुत्र के प्रति प्रगाढ़ प्रेम के कारण उनके स्तन दूध से गीले थे। उनकी भौंहें अत्यन्त सुन्दर थीं और उनका मुखमण्डल पसीने से तर था। उनके बालों से मालती के फूल गिर रहे थे।
 
श्लोक 4:  जब यशोदा दही मथ रही थीं तो उनका स्तन-पान करने की इच्छा से कृष्ण उनके सामने प्रकट हुए और उनके दिव्य आनन्द को बढ़ाने के लिए उन्होंने मथानी पकड़ ली और दही मथने से उन्हें रोकने लगे।
 
श्लोक 5:  तब माता यशोदा ने कृष्ण को सीने से लगाया, उन्हें अपनी गोद में बैठाया और बड़े स्नेह से भगवान् का मुँह देखने लगीं। अगाध स्नेह के कारण उनके स्तन से दूध बह रहा था। किन्तु जब उन्होंने देखा कि आग के ऊपर रखी कड़ाही से दूध उबल कर बाहर गिर रहा है, तो वे बच्चे को दूध पिलाना छोड़ कर उफनते दूध को बचाने के लिए तुरन्त चली गईं यद्यपि बच्चा अपनी माता के स्तनपान से अभी तृप्त नहीं हुआ था।
 
श्लोक 6:  अत्यधिक क्रुद्ध होकर तथा अपने लाल-लाल होंठों को अपने दाँतों से काटते हुए और आँखों में नकली आँसू भरते हुए कृष्ण ने एक कंकड़ मार कर मटकी तोड़ दी। इसके बाद वे एक कमरे में घुस गये और एकान्त स्थान में ताजा मक्खन खाने लगे।
 
श्लोक 7:  गर्म दूध को अँगीठी से उतार कर माता यशोदा मथने के स्थान पर लौटीं और जब देखा कि मटकी टूटी पड़ी है और कृष्ण वहाँ नहीं हैं, तो वे जान गईं कि यह कृष्ण की ही करतूत है।
 
श्लोक 8:  कृष्ण उस समय मसाला पीसने वाली लकड़ी की ओखली को उलटा करके उस पर बैठे हुए थे और मक्खन तथा दही जैसी दूध की बनी वस्तुएँ अपनी इच्छानुसार बन्दरों को बाँट रहे थे। चोरी करने के कारण वे चिन्तित होकर चारों ओर देख रहे थे कि कहीं उनकी माता आकर उन्हें डाँटें नहीं। माता यशोदा ने उन्हें देखा तो वे पीछे से चुपके से उनके पास पहुँचीं।
 
श्लोक 9:  जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी माता को छड़ी लिए हुए देखा तो वे तेजी से ओखली के ऊपर से नीचे उतर आये और इस तरह भागने लगे मानो अत्यधिक भयभीत हों। जिन्हें योगीजन बड़ी बड़ी तपस्याएँ करके ब्रह्म-तेज में प्रवेश करने की इच्छा से परमात्मा के रूप में ध्यान के द्वारा पकडऩे का प्रयत्न करने पर भी उन तक नहीं पहुँच पाते उन्हीं भगवान् कृष्ण को अपना पुत्र समझ कर पकडऩे के लिए यशोदा उनका पीछा करने लगीं।
 
श्लोक 10:  कृष्ण का पीछा करते हुए भारी स्तनों के भार से बोझिल पतली कमर वाली माता यशोदा को अपनी चाल मन्द करनी ही पड़ी। तेजी से कृष्ण का पीछा करने के कारण उनके बाल शिथिल पड़ गये थे और उनमें लगे फूल उनके पीछे पीछे गिर रहे थे। फिर भी वे अपने पुत्र कृष्ण को पकडऩे में सफल हुईं।
 
श्लोक 11:  माता यशोदा द्वारा पकड़े जाने पर कृष्ण और अधिक डर गये और उन्होंने अपनी गलती स्वीकार कर ली। ज्योंही माता यशोदा ने कृष्ण पर दृष्टि डाली तो देखा कि वे रो रहे थे। उनके आँसू आँखों के काजल से मिल गये और हाथों से आँखें मलने के कारण उनके पूरे मुखमण्डल में वह काजल पुत गया। माता यशोदा ने अपने सलोने पुत्र का हाथ पकड़ते हुए धीरे से डाँटना शुरू किया।
 
श्लोक 12:  यह जाने बिना कि कृष्ण कौन हैं या वे कितने शक्तिमान हैं, माता यशोदा कृष्ण के अगाध प्रेम में सदैव विह्वल रहती थीं। कृष्ण के लिए मातृ-स्नेह के कारण उन्हें इतना तक जानने की परवाह नहीं रहती थी कि कृष्ण हैं कौन? अतएव जब उन्होंने देखा कि उनका पुत्र अत्यधिक डर गया है, तो अपने हाथ से छड़ी फेंक कर उन्होंने उसे बाँधना चाहा जिससे और आगे उद्दण्डता न कर सके।
 
श्लोक 13-14:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का न आदि है, न अन्त, न बाह्य है न भीतर, न आगा है न पीछा। दूसरे शब्दों में, वे सर्वव्यापी हैं। चूँकि वे काल तत्त्व के वशीभूत नहीं हैं अतएव उनके लिए भूत, वर्तमान तथा भविष्य में कोई अन्तर नहीं है। वे सदा-सर्वदा अपने दिव्य स्वरूप में रहते हैं। सर्वोपरि तथा परम होने के कारण सभी वस्तुओं के कारण-कार्य होते हुए भी वे कारण-कार्य के अन्तरों से मुक्त रहते हैं। वही अव्यक्त पुरुष, जो इन्द्रियातीत हैं, अब मानवीय बालक के रूप में प्रकट हुए थे और माता यशोदा ने उन्हें सामान्यसा अपना ही बालक समझ कर रस्सी के द्वारा ओखली से बाँध दिया।
 
श्लोक 15:  जब माता यशोदा उत्पाती बालक को बाँधने का प्रयास कर रही थीं तो उन्होंने देखा कि बाँधने की रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ रही थी। अत: उसमें जोडऩे के लिए वे दूसरी रस्सी ले आईं।
 
श्लोक 16:  यह नई रस्सी भी दो अंगुल छोटी पड़ गई और जब इसमें दूसरी रस्सी लाकर जोड़ दी गई तब भी वह दो अंगुल छोटी ही पड़ी। उन्होंने जितनी भी रस्सियाँ जोड़ीं, वे व्यर्थ गईं—वे छोटी की छोटी पड़ती गईं।
 
श्लोक 17:  इस तरह माता यशोदा ने घर-भर की सारी रस्सियों को जोड़ डाला किन्तु तब भी वे कृष्ण को बाँध न पाईं। पड़ोस की वृद्धा गोपिकाएँ, जो माता यशोदा की सखियाँ थीं मुसका रही थीं और इस तमाशे का आनन्द ले रही थीं। इसी तरह माता यशोदा श्रम करते हुए भी मुसका रही थीं। वे सभी आश्चर्यचकित थीं।
 
श्लोक 18:  माता यशोदा द्वारा कठिन परिश्रम किये जाने से उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया और उनके केशों में लगी कंघी और गूँथे हुए फूल गिरे जा रहे थे। जब बालक कृष्ण ने अपनी माता को इतना थका-हारा देखा तो वे दयार्द्र हो उठे और अपने को बँधाने के लिए राजी हो गये।
 
श्लोक 19:  हे महाराज परीक्षित, शिवजी, ब्रह्माजी तथा इन्द्र जैसे महान् एवं उच्चस्थ देवताओं समेत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान् के वश में हैं। फिर भी भगवान् का एक दिव्य गुण यह है कि वे अपने भक्तों के वश में हो जाते हैं। यही बात इस लीला में कृष्ण द्वारा दिखलाई गई है।
 
श्लोक 20:  इस भौतिक जगत से मोक्ष दिलाने वाले भगवान् की ऐसी कृपा न तो कभी ब्रह्माजी, न शिवजी, न ही भगवान् की अर्धांगिनी लक्ष्मी ही प्राप्त कर सकती हैं, जैसी माता यशोदा ने प्राप्त की।
 
श्लोक 21:  माता यशोदा के पुत्र भगवान् कृष्ण स्वत: स्फूर्त प्रेमाभक्ति में लगे भक्तों के लिए सुलभ हैं किन्तु वे मनोधर्मियों, घोर तपों द्वारा आत्म-साक्षात्कार के लिये प्रयास करने वालों अथवा शरीर को ही आत्मा मानने वालों के लिए सुलभ नहीं होते।
 
श्लोक 22:  जब माता यशोदा घरेलू कार्यों में अत्यधिक व्यस्त थीं तभी भगवान् कृष्ण ने दो जुड़वाँ वृक्ष देखे, जिन्हें यमलार्जुन कहा जाता था। ये पूर्व युग में कुवेर के देव-पुत्र थे।
 
श्लोक 23:  पूर्वजन्म में नलकूवर तथा मणिग्रीव नामक ये दोनों पुत्र अत्यन्त ऐश्वर्यवान तथा भाग्यशाली थे। किन्तु गर्व तथा मिथ्या प्रतिष्ठा के कारण उन्होंने किसी की परवाह नहीं की इसलिए नारदमुनि ने उन्हें वृक्ष बन जाने का शाप दे डाला।
 
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