तत् दाम—बाँधने की वह रस्सी; बध्यमानस्य—माता यशोदा द्वारा बाँधा जाने वाला; स्व-अर्भकस्य—अपने पुत्र का; कृत- आगस:—अपराध करने वाले; द्वि-अङ्गुल—दो अंगुल; ऊनम्—छोटी, कम; अभूत्—हो गई; तेन—उस रस्सी से; सन्दधे— जोड़ दिया; अन्यत् च—दूसरी रस्सी; गोपिका—माता यशोदा ने ।.
अनुवाद
जब माता यशोदा उत्पाती बालक को बाँधने का प्रयास कर रही थीं तो उन्होंने देखा कि बाँधने की रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ रही थी। अत: उसमें जोडऩे के लिए वे दूसरी रस्सी ले आईं।
तात्पर्य
कृष्ण द्वारा माता यशोदा को अपनी अनन्त शक्ति प्रदर्शित करने का यह पहली शुरुआत है, जब माता यशोदा कृष्ण को बाँधने का प्रयास कर रही थीं तो रस्सी छोटी पड़ गई। वे पहले ही पूतना, शकटासुर तथा तृणावर्त का वध करके अपनी असीम शक्ति का प्रदर्शन कर चुके थे। अब कृष्ण अपनी माता यशोदा को अन्य विभूति या शक्ति का प्रदर्शन दिखला रहे थे। वे यह दिखला देना चाहते थे कि “जब तक मैं नहीं चाहूँगा आप मुझे बाँध नहीं सकतीं।” इस तरह कृष्ण को बाँधने के प्रयास में माता यशोदा ने एक के बाद दूसरी रस्सी लाकर जोड़ी किन्तु अंत तक वे असफल ही रहीं। किन्तु जब कृष्ण सहमत हो गये तो वे सफल हो गईं। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को कृष्ण से दिव्य प्रेम करना चाहिए किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह कृष्ण को वश में कर सकता है। जब कृष्ण किसी की भक्ति से तुष्ट हो जाते हैं, तो वे सारा कार्य स्वयं कर देते हैं। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यद:। ज्यों ज्यों भक्त सेवा में आगे बढ़ता रहता है त्यों त्यों वे अपने को प्रकट करते रहते हैं। जिह्वादौ: यह सेवा जीभ से—कीर्तन से तथा प्रसाद प्राप्त करने से—शुरू होती है।
अत: श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियै।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यद: ॥
(भक्तिरसामृत सिन्धु १.२.२३४)
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