स्व-मातु:—अपनी माता (यशोदादेवी) का; स्विन्न-गात्राया:—वृथा श्रम के कारण पसीने से लथपथ शरीर; विस्रस्त—गिर रहे; कबर—उनके बालों से; स्रज:—फूल; दृष्ट्वा—देखकर; परिश्रमम्—अधिक काम करने से थकी का अनुभव करती हुई अपनी माता को; कृष्ण:—भगवान् ने; कृपया—अपने भक्त तथा माता पर अहैतुकी कृपा द्वारा; आसीत्—राजी हो गये; स्व-बन्धने— अपने को बँधाने के लिए ।.
अनुवाद
माता यशोदा द्वारा कठिन परिश्रम किये जाने से उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया और उनके केशों में लगी कंघी और गूँथे हुए फूल गिरे जा रहे थे। जब बालक कृष्ण ने अपनी माता को इतना थका-हारा देखा तो वे दयार्द्र हो उठे और अपने को बँधाने के लिए राजी हो गये।
तात्पर्य
जब अंत में माता यशोदा तथा अन्य स्त्रियों ने देखा कि अनेक कंगनों तथा रत्नजटित आभूषणों से सज्जित कृष्ण को घर-भर की रस्सियों से भी नहीं बाँधा जा सका तो उन्होंने निर्णय लिया कि कृष्ण इतना भाग्यशाली है कि उसे किसी भौतिक वस्तु से बाँधा नहीं जा सकता। अतएव उन्होंने उन्हें बाँधने का विचार त्याग दिया। किन्तु कभी कभी कृष्ण अपने भक्तों से प्रतियोगिता करते हुए हारने के लिए राजी हो जाते हैं। इस तरह कृष्ण की अन्तरंगा शक्ति योगमाया काम कर गई और कृष्ण ने माता यशोदा के हाथों से बाँधा जाना स्वीकार कर लिया।
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