सामान्य लोगों को आश्चर्य हो सकता है, या वे मोहग्रस्त हो सकते हैं कि भगवान् ने हँसी-खुशी से अपने वंश के शापित होने तथा विनष्ट होने की स्वीकृति क्यों प्रदान कर दी। यहाँ पर प्रयुक्त अन्वमोदत शब्द किसी वस्तु में प्रसन्नता व्यक्त करने या सहमति प्रदान करने का सूचक है। कालरूपी शब्द भी प्रयुक्त हुआ है अर्थात् काल के रूप में कृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मण-शाप की स्वीकृति दे दी। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद ने टीका की है कि भगवान् कृष्णचन्द्र ने शाप को अक्षत रखना चाहा, जिससे धर्म के असली नियमों का पालन हो सके एवं कृष्ण-वंश के धोखेबाज सदस्यों द्वारा किया गया अशोभनीय अपराध नष्ट हो सके। भगवद्गीता में स्पष्ट बतलाया गया है कि भगवान् के भौतिक संसार में अवतरित होने का एकमात्र उद्देश्य धर्म के मौलिक नियमों की पुनर्स्थापना करना है, जिनके द्वारा प्रकृति के नियमों से गहन दुख पा रहे बद्धजीव भगवान् कृष्ण के नित्यमुक्त दास के रूप में अपनी मूल स्थिति को फिर से प्राप्त कर सकें। इस भौतिक जगत में जीव इस कामना से आता है कि वह प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जमा सके, यद्यपि जीव स्वामी न होकर नित्यदास होता है। अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए सम्पूर्ण जगत का उपभोग करने की इस विकृत प्रवृत्ति के कारण ही जीव आध्यात्मिक जीवन के सिद्धान्तों को विकृत करने के लिए सन्नद्ध दिखता है, जिससे धार्मिक नियम, उसकी भौतिक इन्द्रियतृप्ति के अनुकूल बन जाय। किन्तु धर्म का उद्देश्य, तो भगवान् के नियमों का पालन करते हुए उन्हें प्रसन्न करना है। इसीलिए भगवान् कृष्ण समय समय पर अपने चरणकमलों की भक्ति की सही विधि को पुनरुज्जीवित करने के लिए स्वयं आते हैं। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में यह स्पष्ट कहा गया है कि भगवान् कृष्ण ने पृथ्वी पर अपनी अधिकांश लीलाएँ समाप्त कर ली थीं और अब वे अपने प्रस्थान की अन्तिम तैयारी कर रहे थे। इसलिए वे इस युग के जीवों के लिए स्पष्ट उपदेश छोड़ जाना चाहते थे कि तथाकथित धार्मिक व्यक्ति भले ही वह इतना उच्च हो कि उन्हीं के कुल में उत्पन्न हो भगवान् के शुद्ध भक्तों यथा नारद मुनि को दिये जाने वाले आदर तथा सम्मान का उल्लंघन नहीं कर सकता। कृष्ण के शुद्ध भक्त की सेवा करने का सिद्धान्त आध्यात्मिक प्रगति के लिए इतना आवश्यक है कि भगवान् ने कलियुग के बद्धजीवों को यह बात बतलाने के लिए अपने समूचे वंश के विनाश की अचिन्त्य लीला सम्पन्न की। श्रीमद्भागवतम् में उन संकटों की ओर इशारा किया गया है, जो भगवान् के लोप होने के बाद आयेंगे। ऐसे ही संकट श्री चैतन्य महाप्रभु के तिरोधान के बाद आए थे, क्योंकि गौड़ीय वैष्णव उन्हें साक्षात् कृष्ण मानते थे। भागवतम् अपनी विविध शिक्षाओं द्वारा धोखाधड़ी वाले उस छद्म धर्म को निकाल फेंकने के लिए कहती है, जो भगवान् के प्रस्थान के बाद मानव समाज में प्रचलित हो जाता है।
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी वदान्य लीलाओं द्वारा दक्षिण भारत से उन अप-सम्प्रदायों के झूठे सिद्धान्तों को, अथवा उन छद्म भक्तों की तथाकथित शिष्य-परंपरा को उखाड़ फेंका था, जिन्होंने बौद्धों तथा जैनों के नास्तिकतावादी सिद्धान्तों को ग्रहण करके अपने को प्रभावशाली बना रखा था। इस तरह महाप्रभु ने समूचे भारत को कृष्ण-भक्ति की ओर उन्मुख किया, जिससे चैतन्य महाप्रभु और उनके अनुयायियों के विस्तृत प्रचार के कारण भगवद्भक्ति के अतिरिक्त इस विश्व में वार्ता का कोई अन्य विषय ही न रह पाये। त्रिदण्डिपाद प्रबोधानन्द सरस्वती ने अपने श्लोक स्त्रीपुत्रादिकथां जहुर्विषयिन: में इस तथ्य को विस्तार से लिखा है।
श्री नरहरि सरकार ठाकुर ने अपनी पुस्तक कृष्णभजनामृत में श्री चैतन्य महाप्रभु का अनुसरण करने का दावा करने वाले ग्यारह छद्म शिष्य परम्पराओं के गौरांगनागरी वादियों, सखीभेक वादियों इत्यादि के अनुचित कथनों को सुधारा है। ये अवैध व्यक्ति धर्म के बहाने धोखाधड़ी करते हैं और भगवान् की शुद्ध पूजा या कथा के नाम पर अपनी धोखेबाजी का विज्ञापन करते हैं। जिस तरह कृष्ण ने अपने ही परिवार को विनष्ट करने के लिए भीषण संघर्ष छेड़ दिया था, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने प्रस्थान के बाद नाना प्रकार के मायावाद तथा कर्मवाद दर्शनों से सारे संसार को आप्लावित करा दिया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, जिससे ग्यारह अपसम्प्रदायों अथवा अवैध शिष्य-परंपराओं से सम्बद्ध लोग तथा अनेक अन्य अपसम्प्रदाय, जो भविष्य में पैदा हों, विनष्ट हो जाँय और वे श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त न कहला पायें। उसीके साथ साथ महाप्रभु ने अपने अनुयायियों को इन धोखेबाजों की छद्म भक्ति से पृथक् रखने की भी व्यवस्था की। गौरसुन्दर चैतन्य महाप्रभु के भक्तगण भगवान् कृष्ण की लीलाओं में महाप्रभु की लीलाओं के रहस्य को ढूँढ़ सकते हैं। भगवान् के दिव्य शरीर की लीलाओं को सामान्य संसारी विधि से नहीं समझा जा सकता। यही इस अध्याय का सार है।