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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 16: भगवान् की विभूतियाँ  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में भगवान् कृष्ण अपने प्रकट ऐश्वर्यों या विभूतियों का वर्णन ज्ञान, बल, प्रभाव इत्यादि विशेष शक्तियों के रूप में करते हैं। श्री उद्धव ने समस्त तीर्थस्थानों...
 
श्लोक 1:  श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आप अनादि तथा अनन्त, साक्षात् परब्रह्म तथा अन्य किसी वस्तु से सीमित नहीं हैं। आप सभी वस्तुओं के रक्षक तथा जीवनदाता, उनके संहार तथा सृष्टि हैं।
 
श्लोक 2:  हे प्रभु, यद्यपि अपवित्र लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आप समस्त उच्च तथा निम्न सृष्टियों में स्थित हैं, किन्तु वे ब्राह्मण जो वैदिक मत को भलीभाँति जानते हैं आपकी वास्तविक रूप में पूजा करते हैं।
 
श्लोक 3:  कृपया मुझसे उन सिद्धियों को बतलायें जिन्हें महर्षिगण आपकी भक्तिपूर्वक पूजा द्वारा प्राप्त करते हैं। कृपया यह भी बतलायें कि वे आपके किन विविध रूपों की पूजा करते हैं।
 
श्लोक 4:  हे सर्वपालक प्रभु, यद्यपि आप सभी जीवों के परमात्मा हैं किन्तु आप गुप्त रहते हैं। इस तरह आपके द्वारा मोहग्रस्त बनाये जाकर सारे जीव आपको देख नहीं पाते यद्यपि आप उन्हें देखते रहते हैं।
 
श्लोक 5:  हे परमशक्तिमान प्रभु, कृपा करके मुझे अपनी वे असंख्य शक्तियाँ बतलायें जिन्हें आप पृथ्वी में, स्वर्ग में, नरक में तथा समस्त दिशाओं में प्रकट करते हैं। मैं आपके उन चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ जो समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं।
 
श्लोक 6:  भगवान् ने कहा : हे प्रश्नकर्ताओं में श्रेष्ठ, अर्जुन ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों से युद्ध करने की इच्छा से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में मुझसे यही प्रश्न पूछा था जिसे तुम पूछने जा रहे हो।
 
श्लोक 7:  कुरुक्षेत्र युद्धस्थल में अर्जुन ने सोचा कि अपने सम्बन्धियों का वध करना अत्यन्त गर्हित एवं अधार्मिक कार्य है, जो राज्य प्राप्त करने की उसकी इच्छा से प्रेरित है। अतएव यह सोच कर कि मैं अपने सम्बन्धियों का मारने वाला होऊँगा और वे विनष्ट हो जायेंगे, वह युद्ध से विरत होना चाहता था। इस तरह वह संसारी चेतना से दुखी था।
 
श्लोक 8:  उस समय मैंने पुरुषों में व्याघ्र अर्जुन को तर्क द्वारा समझाया और युद्ध के मोर्चे में ही अर्जुन ने मुझसे उसी तरह के प्रश्न किये थे जिस तरह तुम अब कर रहे हो।
 
श्लोक 9:  हे उद्धव, मैं समस्त जीवों का परमात्मा हूँ, अतएव मैं स्वाभाविक रूप से उनका हितेच्छु तथा परम नियन्ता हूँ। सारे जीवों का स्रष्टा, पालक तथा संहर्ता होने से मैं उनसे भिन्न नहीं हूँ।
 
श्लोक 10:  मैं उन्नति चाहने वालों का चरम गन्तव्य हूँ और जो नियंत्रण रखना चाहते हैं उनमें मैं काल हूँ। मैं भौतिक गुणों की साम्यावस्था हूँ और पवित्रों में मैं स्वाभाविक गुण हूँ।
 
श्लोक 11:  गुणयुक्त वस्तुओं में मैं प्रकृति की मुख्य अभिव्यक्ति हूँ और महान् वस्तुओं में मैं समग्र सृष्टि हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं आत्मा हूँ और दुर्जेय वस्तुओं में मैं मन हूँ।
 
श्लोक 12:  वेदों में मैं आदि शिक्षक ब्रह्मा और समस्त मंत्रों में मैं तीन अक्षरों (मात्राओं) वाला ॐकार हूँ। अक्षरों में मैं प्रथम अक्षर अ (अकार) और पवित्र छन्दों में गायत्री मंत्र हूँ।
 
श्लोक 13:  मैं देवताओं में इन्द्र तथा वसुओं में अग्नि हूँ। मैं अदिति-पुत्रों में विष्णु तथा रुद्रों में भगवान् शिव हूँ।
 
श्लोक 14:  मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु मुनि तथा राजर्षियों में मनु हूँ। देवर्षियों में मैं नारद मुनि तथा गौवों में कामधेनु हूँ।
 
श्लोक 15:  मैं सिद्धों में भगवान् कपिल तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ। प्रजापतियों में मैं दक्ष तथा पितरों में अर्यमा हूँ।
 
श्लोक 16:  हे उद्धव, तुम मुझे दिति के असुर पुत्रों में असुरों का साधु-स्वामी प्रह्लाद महाराज जानो। मैं नक्षत्रों तथा औषधियों में उनका स्वामी चन्द्र हूँ और यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुवेर हूँ।
 
श्लोक 17:  मैं राजसी हाथियों में ऐरावत और जलचरों में समुद्रों का अधिपति वरुण हूँ। समस्त उष्मा तथा प्रकाश प्रदान करने वाली वस्तुओं में मैं सूर्य और मनुष्यों में राजा हूँ।
 
श्लोक 18:  घोड़ों में मैं उच्चैश्रवा तथा धातुओं में स्वर्ण हूँ। दंड देने वालों तथा दमन करने वालों में मैं यमराज हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।
 
श्लोक 19:  हे निष्पाप उद्धव, श्रेष्ठ सर्पों में मैं अनन्तदेव हूँ और पैने सींग तथा दाँत वाले पशुओं में मैं सिंह हूँ। आश्रमों में मैं चौथा आश्रम अर्थात् संन्यास आश्रम हूँ और चारों वर्णों में प्रथम वर्ण अर्थात् ब्राह्मण हूँ।
 
श्लोक 20:  पवित्र तथा प्रवहमान वस्तुओं में मैं पवित्र गंगा हूँ और स्थिर जलाशयों में समुद्र हूँ। हथियारों में मैं धनुष और हथियार चलाने वालों में मैं त्रिपुरारि शिव हूँ।
 
श्लोक 21:  निवासस्थानों में मैं सुमेरु पर्वत हूँ और दुर्गम स्थानों में हिमालय हूँ। वृक्षों में मैं पवित्र वट वृक्ष तथा धान्यों में मैं जौ (यव) हूँ।
 
श्लोक 22:  पुरोहितों में मैं वसिष्ठ मुनि और वैदिक संस्कृति के अग्रगण्यों में बृहस्पति हूँ। मैं महान् सेनानियों में स्कन्द और उच्च जीवन बिताने वालों में महापुरुष ब्रह्मा हूँ।
 
श्लोक 23:  यज्ञों में मैं वेदाध्ययन और व्रतों में अहिंसा हूँ। पवित्र करने वाली सभी वस्तुओं में मैं वायु, अग्नि, सूर्य, जल तथा वाणी हूँ।
 
श्लोक 24:  मैं योग की आठ उत्तरोत्तर अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था—समाधि—हूँ जिसमें आत्मा मोह से पूर्णतया पृथक् हो जाता है। विजय की आकांक्षा रखने वालों में मैं कुशल राजनीतिक सलाहकार हूँ और दक्ष विवेकी विधियों में मैं आत्मज्ञान हूँ जिसके द्वारा पदार्थ से आत्मा को विभेदित किया जाता है। मैं समस्त निर्विशेषवादियों (ज्ञानियों) में अनुभूति-वैविध्य हूँ।
 
श्लोक 25:  मैं स्त्रियों में शतरूपा और पुरुषों में उसका पति स्वायम्भुव मनु हूँ। मुनियों में मैं नारायण हूँ और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ।
 
श्लोक 26:  धार्मिक सिद्धान्तों में मैं संन्यास हूँ और समस्त प्रकार की सुरक्षा में अन्तस्थ नित्य आत्मा की चेतना हूँ। रहस्यों में मैं मधुर वाणी तथा मौन हूँ तथा सम्भोगरत युग्मों में ब्रह्मा हूँ।
 
श्लोक 27:  सतर्क कालचक्रों में मैं वर्ष हूँ और ऋतुओं में वसन्त हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष तथा नक्षत्रों में शुभ अभिजित हूँ।
 
श्लोक 28:  युगों में मैं सत्ययुग और स्थिर मुनियों में देवल तथा असित हूँ। वेदों का विभाजन करने वालों में मैं कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास हूँ और विद्वानों में मैं आध्यात्मिक विज्ञान का ज्ञाता शुक्राचार्य हूँ।
 
श्लोक 29:  भगवान् नाम के अधिकारियों में मैं वासुदेव हूँ तथा हे उद्धव, तुम निस्सन्देह भक्तों में मेरा प्रतिनिधित्व करते हो। मैं किम्पुरुषों में हनुमान हूँ और विद्याधरों में सुदर्शन हूँ।
 
श्लोक 30:  रत्नों में मैं लाल हूँ और सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली हूँ। सभी प्रकार के तृणों में मैं पवित्र कुश हूँ और आहुतियों में घी तथा गाय से प्राप्त होने वाली अन्य सामग्री हूँ।
 
श्लोक 31:  व्यापारियों में मैं लक्ष्मी हूँ और कपट करने वालों में मैं जुआ (द्यूत क्रीड़ा) हूँ। सहिष्णुओं में मैं क्षमाशीलता और सतोगुणियों में सद्गुण हूँ।
 
श्लोक 32:  बलवानों में मैं शारीरिक तथा मानसिक बल हूँ और अपने भक्तों का भक्तिमय कर्म हूँ। मेरे भक्तगण मेरी पूजा नौ विभिन्न रूपों में करते हैं जिनमें से मैं आदि तथा प्रमुख वासुदेव हूँ।
 
श्लोक 33:  मैं गन्धर्वों में विश्वावसु तथा स्वर्गिक अप्सराओं में पूर्वचित्ति हूँ। मैं पर्वतों की स्थिरता तथा पृथ्वी की सुगन्ध हूँ।
 
श्लोक 34:  मैं जल का मधुर स्वाद हूँ और चमकीली वस्तुओं में सूर्य हूँ। मैं सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों का प्रकाश हूँ और आकाश में ध्वनित होने वाला दिव्य शब्द हूँ।
 
श्लोक 35:  ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में मैं विरोचन-पुत्र बलि महाराज हूँ और वीरों में अर्जुन हूँ। निस्सन्देह, मैं समस्त जीवों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हूँ।
 
श्लोक 36:  मैं पाँच कर्मेन्द्रियों—पाँव, वाणी, गुदा, हाथ तथा जननांग—के साथ ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों— स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, श्रवण तथा गन्ध—का कार्यकलाप हूँ। मैं शक्ति भी हूँ जिससे प्रत्येक इन्द्रिय अपने अपने इन्द्रिय-विषय का अनुभव करती है।
 
श्लोक 37:  मैं स्वरूप, स्वाद, गंध, स्पर्श तथा ध्वनि; मिथ्या अहंकार, महत् तत्त्व; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश; जीव, भौतिक प्रकृति; सतो, रजो तथा तमोगुण; एवं दिव्य भगवान् हूँ। ये सारी वस्तुएँ, इन सबों के लक्षण तथा इस ज्ञान से उत्पन्न दृढ़ निश्चय भी मैं ही हूँ।
 
श्लोक 38:  परमेश्वर के रूप में मैं जीव, प्रकृति के गुणों तथा महत्-तत्त्व का आधार हूँ। इस प्रकार मैं सर्वस्व हूँ और कोई भी वस्तु मेरे बिना विद्यमान नहीं रह सकती।
 
श्लोक 39:  भले ही मैं कुछ समय में ब्रह्माण्ड के समस्त अणुओं की गणना कर सकूँ, किन्तु असंख्य ब्रह्माण्डों में प्रदर्शित अपने समस्त ऐश्वर्यों की गणना मैं भी नहीं कर पाऊँगा।
 
श्लोक 40:  जो भी शक्ति, सौन्दर्य, यश, ऐश्वर्य, दीनता, त्याग, मानसिक आनन्द, सौभाग्य, शक्ति, सहिष्णुता या आध्यात्मिक ज्ञान हो सकता है, वह सब मेरे ऐश्वर्य का अंश है।
 
श्लोक 41:  मैंने तुमसे संक्षेप में अपने सारे आध्यात्मिक ऐश्वर्यों तथा अपनी सृष्टि के उन अद्वितीय भौतिक गुणों का भी वर्णन किया, जो मन से अनुभव किये जाते हैं और परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न तरीकों से परिभाषित होते हैं।
 
श्लोक 42:  अतएव अपनी वाणी पर संयम रखो, मन को दमित करो, प्राण-वायु पर विजय पाओ, इन्द्रियों को नियमित करो तथा विमल बुद्धि के द्वारा अपनी विवेकपूर्ण प्रतिभा को अपने वश में करो। इस तरह तुम पुन: भौतिक जगत के पथ पर कभी च्युत नहीं होगे।
 
श्लोक 43:  जो योगी अपनी श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा अपनी वाणी तथा मन पर पूरा नियंत्रण नहीं रखता, उसके आध्यात्मिक व्रत, तपस्या तथा दान उसी तरह बह जाते हैं जिस तरह कच्चे मिट्टी के घड़े से पानी बह जाता है।
 
श्लोक 44:  मेरे शरणागत होकर मनुष्य को वाणी, मन तथा प्राण पर नियंत्रण रखना चाहिए और तब भक्तिमयी बुद्धि के द्वारा वह अपने जीवन-लक्ष्य को पूरा कर सकेगा।
 
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