श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 19: आध्यात्मिक ज्ञान की सिद्धि  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में यह बतलाया गया है कि किस तरह काल्पनिक ज्ञान के अभ्यासकर्ता अपनी विधि त्याग देते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त शाश्वत रूप से भक्ति में लगे रहते हैं। साथ ही...
 
श्लोक 1:  भगवान् ने कहा : जिस स्वरूपसिद्ध व्यक्ति ने प्रकाश पाने तक शास्त्रीय ज्ञान का अनुशीलन किया है और जो भौतिक ब्रह्माण्ड को मात्र मोह समझ कर, निर्विशेष चिन्तन से मुक्त होता है, उसे चाहिए कि वह उस ज्ञान को तथा उसे प्राप्त करने वाले साधनों को मुझे समर्पित कर दे।
 
श्लोक 2:  विद्वान स्वरूपसिद्ध दार्शनिकों के लिए मैं एकमात्र पूजा का लक्ष्य, इच्छित जीवन-लक्ष्य, उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन तथा समस्त ज्ञान का निश्चित मत हूँ। चूँकि मैं उनके सुख का तथा दुख से विमुक्ति का कारण हूँ, अत: ऐसे विद्वान व्यक्ति एकमात्र मुझे ही जीवन का प्रभावशाली उद्देश्य या प्रिय लक्ष्य बनाते हैं।
 
श्लोक 3:  जिन्होंने दार्शनिक तथा अनुभूत ज्ञान द्वारा पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली है, वे मेरे चरणकमलों को परम दिव्य वस्तु मानते हैं। इस प्रकार का विद्वान योगी मुझे अत्यन्त प्रिय होता है और इस पूर्ण ज्ञान से वह मुझे सुख में धारण किये रखता है।
 
श्लोक 4:  जो सिद्धि आध्यात्मिक ज्ञान के एक अंशमात्र से उत्पन्न होती है, वह तपस्या करने, तीर्थस्थानों में जाने, मौन प्रार्थना करने, दान देने अथवा अन्य पुण्यकर्मों में लगने से प्राप्त नहीं की जा सकती।
 
श्लोक 5:  इसलिए हे उद्धव, तुम ज्ञान के द्वारा अपने वास्तविक आत्मा को जानो। तत्पश्चात् अपने वैदिक ज्ञान की स्पष्ट अनुभूति से आगे बढ़ते हुए प्रेमाभक्ति भाव से मेरी पूजा करो।
 
श्लोक 6:  पुराकाल में बड़े बड़े मुनि वैदिक ज्ञान तथा आध्यात्मिक प्रबुद्धता रूपी यज्ञ के द्वारा यह जानते हुए अपने अन्त:करण में मेरी पूजा करते थे कि मैं ही समस्त यज्ञों का परमेश्वर तथा प्रत्येक हृदय में परमात्मा हूँ। इस तरह मेरे पास आने से इन मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की।
 
श्लोक 7:  हे उद्धव, प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित भौतिक शरीर तथा मन तुमसे लिपटे रहते हैं, किन्तु, वास्तव में, वे माया हैं क्योंकि वे वर्तमान काल में ही प्रकट होते हैं। इनका कोई आदि या अन्त नहीं है। इसलिए यह कैसे सम्भव हो सकता है कि शरीर की विभिन्न अवस्थाएँ—यथा जन्म, वृद्धि, प्रजनन, पालन, जरा तथा मृत्यु—तुम्हारी नित्य आत्मा से कोई सम्बन्ध रखते हों? इन अवस्थाओं का सम्बन्ध एकमात्र भौतिक देह से है, जिसका न तो इसके पूर्व अस्तित्व था और न रहेगा। शरीर केवल वर्तमान काल में ही रहता है।
 
श्लोक 8:  श्री उद्धव ने कहा : हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड स्वरूप, कृपा करके मुझे ज्ञान की वह विधि बतलाइये जो स्वत: विरक्ति तथा सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति लाने वाली है, जो दिव्य है और महान् आध्यात्मिक दार्शनिकों में परम्परा से चली आ रही है। महापुरुषों द्वारा खोजा जाने वाला यह ज्ञान आपके प्रति प्रेमाभक्ति को बताने वाला है।
 
श्लोक 9:  हे प्रभु, जो व्यक्ति जन्म तथा मृत्यु के घोर मार्ग में सताया जा रहा है और तीनों तापों से निरन्तर अभिभूत रहता है, उसके लिए मुझे आपके दो चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्भव आश्रय नहीं दिख रहा। ये उस सुखदायक छाते के तुल्य हैं, जो स्वादिष्ट अमृत की वर्षा करता है।
 
श्लोक 10:  हे सर्वशक्तिमान प्रभु, कृपा कीजिये और इस निराश जीव को, जो अंधेरे भवकूप में गिर गया है जहाँ कालरूपी सर्प ने उसे डस लिया है, ऊपर उठाइये। ऐसी गर्हित अवस्था होते हुए भी यह बेचारा जीव अत्यन्त क्षुद्र भौतिक सुख भोगने की उत्कट इच्छा से युक्त है। हे प्रभु, आप अपने उस उपदेशामृत को छिडक़ कर मेरी रक्षा कीजिये, जो आध्यात्मिक मुक्ति के लिए जागृत करने वाला है।
 
श्लोक 11:  भगवान् ने कहा : हे उद्धव, जिस तरह तुम मुझसे पूछ रहे हो, उसी तरह भूतकाल में राजा युधिष्ठिर ने जिन्हें अजातशत्रु कहा जाता है, धर्म के महानतम धारणकर्ता भीष्मदेव से पूछा था और हम सभी ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।
 
श्लोक 12:  जब कुरुक्षेत्र का महान् युद्ध समाप्त हो गया, तो राजा युधिष्ठिर अपने प्रिय हितैषियों की मृत्यु से विह्वल थे। इस तरह अनेक धार्मिक सिद्धान्तों के विषय में उपदेश सुन कर, अन्त में उन्होंने मोक्ष-मार्ग के विषय में जिज्ञासा की थी।
 
श्लोक 13:  अब मैं तुमसे भीष्मदेव के मुख से सुने वैदिक ज्ञान, विरक्ति, आत्म-अनुभूति, श्रद्धा तथा भक्ति के उन धार्मिक सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा।
 
श्लोक 14:  मैं स्वयं उस ज्ञान को निश्चित करता हूँ जिससे मनुष्य सारे जीवों में नौ, ग्यारह, पाँच तथा तीन तत्त्वों का संमेल देखता है और अन्त में इन अठ्ठाईस तत्त्वों के भीतर केवल एक तत्त्व देखता है।
 
श्लोक 15:  जब कोई व्यक्ति एक ही कारण से उत्पन्न २८ पृथक् पृथक् भौतिक तत्त्वों को न देख कर, एक कारण रूप भगवान् को देखता है, उस समय मनुष्य का प्रत्यक्ष अनुभव विज्ञान कहलाता है।
 
श्लोक 16:  आदि, अन्त तथा मध्य—ये तीन अवस्थाएँ हैं भौतिक सृष्टि की। जो इन सारी भौतिक अवस्थाओं में एक सृजन (आदि) से दूसरे सृजन (अन्त) तक साथ साथ लगा रहता है और जब सारी अवस्थाओं का प्रलय हो जाता है, तो भी जो अकेला बचता है, वही एक शाश्वत है।
 
श्लोक 17:  वैदिक ज्ञान, प्रत्यक्ष अनुभव, परम्परागत विद्या (ऐतिह्य) तथा तार्किक अनुमान—इन चार प्रकार के प्रमाणों से मनुष्य भौतिक जगत की अस्थिर दशा को समझ कर, इस जगत के द्वैत से विरक्त हो जाता है।
 
श्लोक 18:  बुद्धिमान पुरुष यह समझे कि कोई भी भौतिक कर्म निरन्तर परिवर्तित होता रहता है, यहाँ तक कि ब्रह्मलोक में भी केवल दुख ही दुख है। निस्सन्देह, बुद्धिमान व्यक्ति यह समझ सकता है कि जिस तरह सारी दृश्य वस्तुएँ क्षणिक हैं, उसी तरह ब्रह्माण्ड के भीतर सारी वस्तुओं का आदि और अन्त है।
 
श्लोक 19:  हे निष्पाप उद्धव, चूँकि तुम मुझे चाहते हो इसलिए मैं पहले ही तुम्हें भक्ति की विधि बतला चुका हूँ। अब मैं तुमसे पुन: अपनी प्रेमाभक्ति पाने की श्रेष्ठ विधि बतलाऊँगा।
 
श्लोक 20-24:  मेरी लीलाओं की आनन्दमयी कथाओं में दृढ़ विश्वास, मेरी महिमा का निरन्तर कीर्तन, मेरी नियमित पूजा में गहन आसक्ति, सुन्दर स्तुतियों से मेरी प्रशंसा करना, मेरी भक्ति का समादर, साष्टांग नमस्कार, मेरे भक्तों की उत्तम पूजा, सारे जीवों में मेरी चेतना का ज्ञान, सामान्य शारीरिक कार्यों को मेरी भक्ति में अर्पण, मेरे गुणों का वर्णन करने के लिए वाणी का प्रयोग, मुझे अपना मन अर्पित करना, समस्त भौतिक इच्छाओं का बहिष्कार, मेरी भक्ति के लिए सम्पत्ति का परित्याग, भौतिक इन्द्रियतृप्ति तथा सुख का परित्याग तथा मुझे पाने के उद्देश्य से दान, यज्ञ, कीर्तन, व्रत, तपस्या इत्यादि वांछित कार्यों को सम्पन्न करना—ये वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त हैं, जिनसे मेरे शरणागत हुए लोग स्वत: मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न कर लेते हैं। तो फिर मेरे भक्त के लिए कौन-सा अन्य उद्देश्य या लक्ष्य शेष रह जाता है?
 
श्लोक 25:  जब सतोगुण से संतुष्ट शान्त चेतना भगवान् पर स्थिर कर दी जाती है, तो मनुष्य को धार्मिकता, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
 
श्लोक 26:  जब मनुष्य की चेतना भौतिक देह, घर तथा इन्द्रियतृप्ति की ऐसी ही अन्य वस्तुओं पर टिक जाती है, तो वह इन्द्रियों की सहायता से भौतिक वस्तुओं के पीछे दौ लगाते-लगाते अपना जीवन व्यतीत करता है। इस तरह रजोगुण से बलपूर्वक प्रभावित चेतना नश्वर वस्तुओं के प्रति समर्पित हो जाती है, जिससे अधर्म, अज्ञान, आसक्ति तथा नीचता (कृपणता) उत्पन्न होते हैं।
 
श्लोक 27:  वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त वे हैं, जो मनुष्य को मेरी भक्ति तक ले जाते हैं। असली ज्ञान वह जानकारी है, जो मेरी सर्वव्यापकता को प्रकट करती है। इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में पूर्ण अरुचि ही वैराग्य है और अणिमा सिद्धि जैसी आठ सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं।
 
श्लोक 28-32:  श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले, कृपा करके मुझसे यह बतायें कि कितने प्रकार के अनुशासनात्मक नियम (यम) तथा नियमित दैनिक कार्य (नियम) हैं। यही नहीं, हे प्रभु, मुझे यह भी बतायें कि मानसिक संतुलन क्या है, आत्मसंयम क्या है और सहिष्णुता तथा दृढ़ता का असली अर्थ क्या है? दान, तपस्या तथा शौर्य क्या हैं और वास्तविकता तथा सच्चाई का किस तरह वर्णन किया जाता है? त्याग क्या है और सम्पत्ति क्या है? इच्छित क्या है, यज्ञ क्या है और दक्षिणा क्या है? हे केशव, हे भाग्यवान्, मैं किस तरह किसी व्यक्ति के बल, ऐश्वर्य तथा लाभ को समझूँ? सर्वोत्तम शिक्षा क्या है? वास्तविक नम्रता क्या है और असली सौन्दर्य क्या है? सुख और दुख क्या हैं? कौन विद्वान है और कौन मूर्ख है? जीवन के असली तथा मिथ्या मार्ग क्या हैं और स्वर्ग तथा नरक क्या हैं? असली मित्र कौन है और असली घर क्या है? कौन धनी है और कौन निर्धन है? कौन कंजूस है और कौन वास्तविक नियन्ता है? हे भक्तों के स्वामी, कृपा करके मुझे इन बातों के साथ साथ इनकी विपरीत बातें भी बतलायें।
 
श्लोक 33-35:  भगवान् ने कहा : अहिंसा, सत्य, दूसरों की सम्पत्ति से लालायित न होना या चोरी न करना, वैराग्य, दीनता, अपरिग्रह, धर्म में विश्वास, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा तथा अभय—ये बारह मूल अनुशासनात्मक यम (नियम) हैं। आन्तरिक तथा बाह्य स्वच्छता, भगवन्नाम कीर्तन, यज्ञ, श्रद्धा, आतिथ्य, मेरी पूजा, तीर्थाटन, केवल परम लक्ष्य के लिए कार्य करना तथा इच्छा करना, सन्तोष तथा गुरु-सेवा—ये बारह नियमित कार्य (नियम) हैं। ये चौबीसों कार्य उन लोगों को इच्छित वर देने वाले हैं, जो उनका भक्तिपूर्वक अनुशीलन करते हैं।
 
श्लोक 36-39:  मुझमें बुद्धि लगाना मानसिक सन्तुलन (शम) है और इन्द्रियों का पूर्ण संयम आत्मसंयम (दम) है। सहिष्णुता का अर्थ है धैर्यपूर्वक दुख सहना। स्थिरता तब आती है जब मनुष्य जीभ तथा जननेन्द्रियों पर विजय पा लेता है। सबसे बड़ा दान है अन्यों के प्रति सभी प्रकार की छेड़छाड़ त्यागना। काम (विषय-वासना) का परित्याग ही असली तपस्या है। असली शौर्य भौतिक जीवन का भोग करने की सहज प्रवृत्ति को जीतना है तथा भगवान् का सर्वत्र दर्शन करना ही सच्चाई (सत्य) है। सत्यता का अर्थ है मधुर ढंग से सत्य बोलना जैसा कि महर्षियों ने घोषित किया है। स्वच्छता का अर्थ है सकाम कर्मों से विरक्ति जबकि त्याग ही संन्यास है। मनुष्यों की असली इष्ट सम्पत्ति धार्मिकता है और मैं, भगवान् ही यज्ञ हूँ। आध्यात्मिक उपदेश प्राप्त करने के उद्देश्य से गुरु-भक्ति ही दक्षिणा है और सबसे बड़ी शक्ति है श्वास रोकने की प्राणायाम विधि।
 
श्लोक 40-45:  वास्तविक ऐश्वर्य भगवान् के रूप में मेरा निजी स्वभाव है, जिसके माध्यम से मैं छ: असीम ऐश्वर्यों को प्रकट करता हूँ। जीवन का सबसे बड़ा लाभ मेरी भक्ति है और असली शिक्षा (विद्या) आत्मा के भीतर के झूठे द्वैतभाव को समाप्त करना है। असली उदारता अनुचित कार्यों से घृणा करना है। विरक्ति जैसे सद्गुण का होना सौन्दर्य है। भौतिक सुख तथा दुख को लाँघना असली सुख है और असली दुख तो यौन-सुख की खोज में अपने को फँसाना है। बुद्धिमान वही है, जो बन्धन से छूटने की विधि जानता है और मूर्ख वह है, जो अपनी पहचान अपने शरीर तथा मन से करता है। जीवन में असली मार्ग वह है, जो मुझ तक ले जाने वाला है और कुमार्ग इन्द्रियतृप्ति है, जिससे चेतना मोहग्रस्त हो जाती है। वास्तविक स्वर्ग सतोगुण की प्रधानता है और अज्ञान की प्रधानता ही नरक है। मैं समस्त ब्रह्माण्ड के गुरु रूप में हर एक का असली मित्र हूँ। मनुष्य का घर उसका शरीर है। हे प्रिय मित्र उद्धव, जो सद्गुणों से युक्त है, वही धनी कहा जाता है और जो जीवन से असंतुष्ट रहता है, वही निर्धन है। कृपण वह है, जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकता और असली नियंत्रक वह है, जो इन्द्रियतृप्ति में आसक्त नहीं होता। इसके विपरीत जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति में आसक्त रहता है, वह दास होता है। इस प्रकार हे उद्धव, मैंने तुम्हारे द्वारा पूछे गये सारे विषयों की व्याख्या कर दी है। इन सद्गुणों तथा दुर्गुणों की अधिक विशद व्याख्या की आवश्यकता नहीं है क्योंकि निरन्तर गुण तथा दोषों को देखना स्वयं में एक दुर्गुण है। सर्वोत्कृष्ट गुण तो भौतिक गुण और दोष को लाँघ जाना है।
 
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