श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 23: अवन्ती ब्राह्मण का गीत  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में अवन्ती देश के एक साधु संन्यासी की कथा ऐसे उदाहरण के रूप में दी गई है कि दुष्टों द्वारा उत्पन्न उत्पातों तथा अपराधों को कैसे सहन किया जाना चाहिये।...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भक्तों में श्रेष्ठ श्री उद्धव ने दाशार्ह प्रमुख भगवान् मुकुन्द से इस तरह सादर अनुरोध किया, तो पहले उन्होंने अपने सेवक के कथन की उपयुक्तता स्वीकार की। फिर वे भगवान्, जिनके यशस्वी कार्य सुनने के सर्वाधिक योग्य हैं, उन्हें बतलाने लगे।
 
श्लोक 2:  श्रीकृष्ण ने कहा : हे बृहस्पति-शिष्य, इस जगत में कोई भी ऐसा साधु पुरुष नहीं है, जो असभ्य व्यक्तियों के अपमानजनक शब्दों से विचलित हुए अपने मन को फिर से स्थिर कर सके।
 
श्लोक 3:  छाती को बेध कर हृदय तक पहुँचने वाले पैने बाण उतना कष्ट नहीं देते जितने कि असभ्य पुरुषों द्वारा बोले जाने वाले कटु, अपमानजनक शब्दरूपी तीर जो हृदय के भीतर धँस जाते हैं।
 
श्लोक 4:  हे उद्धव, इस सम्बन्ध में एक अत्यन्त पवित्र कथा कही जाती है, जिसे अब मैं तुमसे कहूँगा। तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
 
श्लोक 5:  एक बार किसी संन्यासी को दुर्जनों द्वारा नाना प्रकार से अपमानित किया गया। किन्तु उसने धैर्यपूर्वक स्मरण किया कि वह अपने ही विगत कर्मों का फल भोग रहा है। मैं तुमसे यह इतिहास तथा उसने जो कुछ कहा था उसे सुनाऊँगा।
 
श्लोक 6:  अवन्ती देश में किसी समय कोई ब्राह्मण रहता था, जो अत्यन्त धनी था और समस्त ऐश्वर्यों से युक्त था तथा व्यापार-कार्य में लगा रहता था। किन्तु वह अत्यन्त कंजूस, कामी, लालची तथा क्रोधी था।
 
श्लोक 7:  उसका घर धर्म तथा वैध इन्द्रियतृप्ति से विहीन था, उसमें पारिवारिक जनों तथा अतिथियों का ठीक से, यहाँ तक कि शब्दों से भी, आदर नहीं होता था। वह उपयुक्त अवसरों पर अपने शरीर की भी इन्द्रियतृप्ति नहीं होने देता था।
 
श्लोक 8:  चूँकि वह कठोर हृदय तथा कंजूस था, इसलिए उसके पुत्र, उसके ससुराल वाले, उसकी पत्नी, उसकी पुत्रियाँ तथा नौकर उसके प्रति वैर-भाव रखने लगे। ऊब जाने के कारण वे उससे कभी भी स्नेहपूर्ण व्यवहार नहीं करते थे।
 
श्लोक 9:  इस तरह पाँच पारिवारिक यज्ञों के अधिष्ठाता देव उस ब्राह्मण से क्रुद्ध हो उठे जो कंजूस होने के कारण अपनी सम्पत्ति की रखवाली यक्ष की तरह करता था और जिसका न इस जगत में, न ही उस लोक में कोई अच्छा गन्तव्य था और जो धर्म तथा विषय-भोग से पूरी तरह विहीन हो गया था।
 
श्लोक 10:  हे वदान्य उद्धव, इन देवताओं की उपेक्षा करने से उसके पुण्य तथा उसकी सारी सम्पत्ति का भंडार खाली हो गया। उसके बारम्बार निश्शेष प्रयास द्वारा संचित भंडार पूरी तरह समाप्त हो गया।
 
श्लोक 11:  हे उद्धव, इस तथाकथित ब्राह्मण का कुछ धन उसके समबन्धियों ने, कुछ चोरों ने, कुछ भाग्य ने, कुछ काल के फेर ने, कुछ सामान्य जनों ने तथा कुछ सरकारी अधिकारियों ने ले लिया।
 
श्लोक 12:  अन्त में जब उसकी सम्पत्ति पूरी तरह नष्ट हो गई, तो वह ब्राह्मण जिसने कभी भी धर्म या इन्द्रिय-भोग नहीं किया था, अपने पारिवारिक जनों से उपेक्षित रहने लगा। इस प्रकार वह असह्य चिन्ता का अनुभव करने लगा।
 
श्लोक 13:  अपनी सारी सम्पत्ति खो जाने से उसे महान् पीड़ा तथा शोक हुआ। उसका गला आँसुओं से रुँध गया और वह दीर्घकाल तक अपनी सम्पत्ति के बारे में सोचता रहा। तब उसके मन में वैराग्य की प्रबल अनुभूति जाग्रत हुई।
 
श्लोक 14:  ब्राह्मण इस प्रकार बोला : हाय! क्या दुर्भाग्य है मेरा! मैंने उस धन के लिए इतना कठिन परिश्रम करते हुए व्यर्थ ही अपने को कष्ट पहुँचाया जो न तो धर्म के लिए था, न ही भौतिक भोग के लिए था।
 
श्लोक 15:  सामान्यतया कंजूसों की सम्पत्ति उन्हें कभी कोई सुख नहीं दे पाती। इस जीवन में उनका आत्म-पीडऩ करती है और उनके मरने पर उन्हें नरक भेजती है।
 
श्लोक 16:  प्रसिद्ध व्यक्ति की जो भी शुद्ध प्रसिद्धि होती है और गुणवान् में जो भी प्रशंसनीय गुण रहते हैं, वे किञ्चित् मात्र लालच से उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह आकर्षक शारीरिक सौन्दर्य रंचमात्र श्वेत कुष्ठ से नष्ट हो जाता है।
 
श्लोक 17:  सभी मनुष्यों को सम्पत्ति की कमाई, प्राप्ति, वृद्धि, रक्षा, व्यय, हानि तथा उपभोग में महान् श्रम, भय, चिन्ता तथा भ्रम का अनुभव होता है।
 
श्लोक 18-19:  चोरी, हिंसा, असत्य भाषण, दुहरा बर्ताव, काम, क्रोध, चिन्ता, गर्व, झगड़ा-लड़ाई, शत्रुता, अविश्वास, ईर्ष्या, स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न संकट, जुआ खेलना तथा नशा करना—ये पंद्रह दुर्गुण सम्पत्ति-लोभ के कारण मनुष्यों को दूषित बनाने वाले हैं। यद्यपि ये दुर्गुण हैं किन्तु लोग भ्रमवश इनको महत्त्व देते हैं। इसलिए जिस व्यक्ति को जीवन का असली लाभ उठाना हो, वह अवांछित भौतिक सम्पत्ति से अपने को अलग रखे।
 
श्लोक 20:  यहाँ तक कि मनुष्य के सगे भाई, पत्नी, माता-पिता तथा मित्र जो उससे प्रेम से बद्ध थे, तुरन्त ही अपना स्नेह-सम्बन्ध तोड़ लेते हैं और एक कौड़ी के कारण शत्रु बन जाते हैं।
 
श्लोक 21:  ये सम्बन्धी तथा मित्रगण थोड़े-से भी धन के लिए अत्यन्त क्षुब्ध हो उठते हैं और क्रोध से आग-बबूला बन जाते हैं। प्रतिद्वन्द्वी बन कर वे तुरन्त सारी शुभकामनाएँ छोड़ देते हैं और क्षण भर में ही उसका त्याग करके उसकी हत्या तक कर देते हैं।
 
श्लोक 22:  जो लोग देवताओं द्वारा भी प्रार्थित मनुष्य जीवन प्राप्त करते हैं और उस मनुष्य जन्म में सर्वोत्तम ब्राह्मण पद को प्राप्त होते हैं, वे परम भाग्यशाली हैं। यदि वे इस महत्त्वपूर्ण अवसर का अनादर करते हैं, तो वे निश्चय ही अपने निजी हित का हनन करते हैं और परम दुखद अन्त को प्राप्त होते हैं।
 
श्लोक 23:  ऐसा मर्त्य व्यक्ति कौन होगा जो इस मनुष्य जीवन को जो कि स्वर्ग तथा मोक्ष का द्वार है, प्राप्त करके भौतिक सम्पत्ति रूपी व्यर्थ के धाम के प्रति अनुरक्त होगा?
 
श्लोक 24:  जो व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को उचित भागीदारों—देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा सामान्य जीवों में तथा अपने निकट सम्बन्धियों, ससुराल वालों और स्वयं में वितरित नहीं कर देता, वह मात्र यक्ष की तरह अपनी सम्पत्ति को बनाये रखता है और अधोगति को प्राप्त होगा।
 
श्लोक 25:  विवेकशील व्यक्ति अपने धन, यौवन तथा बल को सिद्धि प्राप्त करने में लगाने में सक्षम होते हैं। किन्तु मैंने उत्तेजित होकर अपनी सम्पत्ति के संवर्धन के व्यर्थ के प्रयास में ही इनको लुटा दिया है। अब वृद्ध हो चुकने पर मैं क्या प्राप्त कर सकता हूँ?
 
श्लोक 26:  बुद्धिमान मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए व्यर्थ के सतत् प्रयासों से कष्ट क्यों भोगे? निस्सन्देह, यह सारा संसार किसी की मायाशक्ति से अत्यधिक मोहग्रस्त है।
 
श्लोक 27:  जो व्यक्ति मृत्यु के चंगुल में जकड़ा हो, उसके लिए धन या उस धन को देने वाले, इन्द्रियतृप्ति अथवा इन्द्रियतृप्ति प्रदान करने वाले या किसी प्रकार का सकाम कर्म जो उसे इस भौतिक जगत में फिर से जन्म दिलाये, इन सबसे क्या लाभ है?
 
श्लोक 28:  समस्त देवों से युक्त भगवान् हरि अवश्य ही मुझ पर प्रसन्न हैं। उन्होंने ही मुझे इस कष्टमय स्थिति तक पहुँचाया है और वैराग्य का अनुभव करने के लिए बाध्य कर दिया है, जो इस भवसागर को पार कराने की नाव है।
 
श्लोक 29:  यदि मेरे जीवन का कोई समय शेष है, तो मैं तपस्या करूँगा और अपने शरीर की आवश्यकताओं को कम से कम कर दूँगा। अब मैं और अधिक भ्रम में न पड़ कर जीवन के समग्र आत्म-हित में लग कर अपने आप में तुष्ट रहूँगा।
 
श्लोक 30:  इस तरह इन तीनों लोकों के अधिनायक देवता मुझ पर कृपा करें। निस्सन्देह, महाराज खट्वांग को क्षण-भर में वैकुण्ठ-लोक प्राप्त हो गया था।
 
श्लोक 31:  भगवान् कृष्ण ने कहा : वह दृढ़ संकल्प वाला सर्वोत्तम अवन्ती ब्राह्मण अपने हृदय की इच्छारूपी ग्रंथियों को खोलने में समर्थ हो गया। तब उसने शान्त तथा मौन संन्यासी साधु की भूमिका ग्रहण कर ली।
 
श्लोक 32:  वह अपनी बुद्धि, इन्द्रियों तथा प्राण-वायु को अपने वश में रखते हुए पृथ्वी पर विचरण करने लगा। भिक्षा माँगने के लिए वह विविध नगरों तथा ग्रामों में अकेले ही यात्रा करता। उसने अपने उच्च आध्यात्मिक पद का प्रचार नहीं किया, इसलिए अन्य लोग उसे पहचान नहीं पाते थे।
 
श्लोक 33:  हे दयालु उद्धव, उसे वृद्ध, मलिन भिखारी के रूप में देख कर ऊधमी व्यक्ति अनेक प्रकार से उसे अपमानित करने लगे।
 
श्लोक 34:  इनमें से कुछ लोग तो उसका संन्यासी दण्ड छीन लेते और कुछ उस जलपात्र को, जिसे वह भिक्षापात्र के रूप में काम में ला रहा था। कोई उसका मृगचर्म आसन, तो कोई उसकी जपमाला ले लेता और कोई उसकी फटी-पुरानी गुदड़ी चुरा लेता; वे इन वस्तुओं को उसे दिखा-दिखाकर वापस करने का बहाना करते किन्तु उन्हें पुन: छिपा देते।
 
श्लोक 35:  जब वह भिक्षा द्वारा एकत्र किये गये भोजन को खाने के लिए नदी के तट पर बैठता, तो ऐसे पापी धूर्त आकर उस पर पेशाब कर देते और उसके सिर पर थूकने का दुस्साहस करते।
 
श्लोक 36:  यद्यपि उसने मौनव्रत धारण कर रखा था, किन्तु वे उससे बोलवाने का प्रयास करते और यदि वह न बोलता तो उसे लाठियों से पीटते थे। अन्य लोग उसे यह कह कर प्रताडि़त करते कि यह आदमी चोर है। अन्य लोग उसे रस्सी से बाँध देते और चिल्लाते, “उसे बाँध दो! उसे बाँध दो!”
 
श्लोक 37:  वे यह कह कर उसकी आलोचना और अपमान करते “यह व्यक्ति तो ढोंगी और ठग है। यह व्यक्ति धर्म को इसलिए पेशा बनाये हुए है क्योंकि इसने अपनी सारी सम्पत्ति गँवा दी है और इसके परिवार वालों ने इसे बाहर निकाल दिया है।
 
श्लोक 38-39:  कुछ लोग यह कह कर उसका मजाक उड़ाते, “जरा देखो न इस अत्यन्त शक्तिशाली ऋषि को! यह हिमालय पर्वत की तरह धैर्यवान है। यह अपने मौनव्रत से महान् संकल्प करके अपना लक्ष्य पाने के लिए एक बगुले की भाँति प्रयत्नशील है।” अन्य लोग उसके ऊपर अपानवायु छोड़ते और कुछ लोग इस द्विज ब्राह्मण को जंजीरों में बाँध कर पालतू पशु की तरह बन्दी बनाकर रखते।
 
श्लोक 40:  वह ब्राह्मण समझ गया कि उसका सारा कष्ट—अन्य जीवों से, प्रकृति की उच्च शक्तियों से तथा अपने ही शरीर से जन्य—दुर्निवार है क्योंकि यह विधाता द्वारा निश्चित हुआ है।
 
श्लोक 41:  इन निम्न कोटि के पुरुषों द्वारा, जो उसे पतित करने का प्रयास कर रहे थे, अपमानित होने पर भी, वह अपने आध्यात्मिक कर्म में अडिग बना रहा। सतोगुण में अपना संकल्प स्थिर करके, वह निम्नलिखित गीत गाने लगा।
 
श्लोक 42:  ब्राह्मण ने कहा : न तो ये लोग मेरे सुख तथा दुख के कारण हैं, न ही देवता, मेरा शरीर, ग्रह, मेरे विगत कर्म या काल ही। प्रत्युत यह तो एकमात्र मन है, जो सुख तथा दुख का कारण है जो भौतिक जीवन को निरन्तर घुमाता रहता है।
 
श्लोक 43:  शक्तिशाली मन भौतिक गुणों को कार्यशील बनाता है, जिससे सतो, तमो तथा रजोगुण से सम्बद्ध विभिन्न प्रकार के भौतिक कार्यकलाप विकसित होते हैं। इनमें से प्रत्येक गुण वाले कार्यों से संगत जीवन दशाएँ (गतियाँ) उत्पन्न होती हैं।
 
श्लोक 44:  परमात्मा यद्यपि भौतिक शरीर के भीतर संघर्षशील मन के साथ उपस्थित रहता है, किन्तु वह प्रयास नहीं करता (निष्क्रिय रहता है) क्योंकि वह पहले से दिव्य प्रकाश से समन्वित होता है। वह मेरे मित्र की भाँति कार्य करते हुए अपने दिव्य पद से केवल साक्षी बनता है। दूसरी ओर अत्यन्त सूक्ष्म आत्मा रूप में इस मन को अपना चुका हूँ जो भौतिक जगत के प्रतिबिम्ब को परावर्तित करने वाला दर्पण है। इस तरह मैं इन्द्रिय-विषयों का भोग करने में लगा हूँ और प्रकृति के गुणों के सम्पर्क के कारण बँधा हुआ हूँ।
 
श्लोक 45:  दान, धर्म, यम तथा नियम, शास्त्रों का श्रवण, पुण्यकर्म तथा शुद्ध बनाने वाले व्रत—इन सबका अन्तिम लक्ष्य मन का दमन है। निस्सन्देह, ब्रह्म में मन की एकाग्रता ही सर्वोच्च योग है।
 
श्लोक 46:  यदि किसी का मन पूर्णतया स्थिर तथा शान्त हो, तो आप मुझे यह बतलायें कि मनुष्य को कर्मकांडी दान तथा अन्य पुण्यकर्म करने की क्या आवश्यकता है? और यदि किसी का मन असंयत रहता है, अज्ञान में डूबा रहता है, तो फिर उसके लिए इन कार्यों से क्या लाभ?
 
श्लोक 47:  सारी इन्द्रियाँ अनन्त काल से मन के वश में रही हैं और मन कभी भी किसी अन्य के प्रभाव में नहीं आता। वह बलवानों से भी बलवान है और उसकी देवतुल्य शक्ति भयावह है। इसलिए जो अपने मन को वश में कर सकता है, वह सभी इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।
 
श्लोक 48:  अनेक लोग इस दुर्जय शत्रुरूपी मन को, जिसके वेग असह्य हैं और जो हृदय को सताता है जीत न पाने पर, पूर्णतया विमोहित हो जाते हैं और अन्यों से व्यर्थ ही कलह ठान लेते हैं। इस तरह वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अन्य लोग या तो उनके मित्र हैं अथवा उनके शत्रु हैं या फिर उनसे उदासीन रहने वाले हैं।
 
श्लोक 49:  जो लोग अपनी पहचान इस शरीर से, जो कि भौतिक मन की उपज है, करते हैं उनकी बुद्धि मारी जाती है और वे “मैं” तथा “मेरा” के रूप में सोचते हैं। अपने इस भ्रम के कारण कि, “यह मैं हूँ किन्तु वह अन्य कोई है” वे लोग अनन्त अंधकार में भटकते रहते हैं।
 
श्लोक 50:  यदि आप यह कहते हैं कि ये लोग ही मेरे सुख तथा दुख के कारण हैं, तो फिर ऐसी धारणा होने पर आत्मा के लिए स्थान कहाँ रहता है? यह सुख तथा दुख आत्मा का नहीं होता अपितु भौतिक शरीरों की अन्योन्य क्रियाओं का है। यदि कोई व्यक्ति अपने ही दाँतों से अपनी जीभ काट लेता है, तो अपनी पीड़ा के लिए वह किस पर क्रोध करे?
 
श्लोक 51:  यदि आप यह कहें कि शारीरिक इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता दुख के देने वाले हैं, तो भी ऐसा दुख आत्मा पर कैसे लागू हो सकता है? यह कर्म करना तथा उसके द्वारा प्रभावित होना परिवर्तनशील इन्द्रियों तथा उनके अधिष्ठाता देवों की अन्योन्य क्रिया मात्र है। यदि शरीर का कोई अंग दूसरे अंग पर आक्रमण करे तो उस शरीर का धारक व्यक्ति किस पर क्रोध करे?
 
श्लोक 52:  यदि आत्मा ही सुख तथा दुख का कारण होता, तो हम अन्यों को दोष न दे पाते, क्योंकि तब सुख तथा दुख आत्मा के स्वभाव होते। इस मत के अनुसार आत्मा से भिन्न अन्य कुछ विद्यमान नहीं होता और यदि हमें आत्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अनुभव करना पड़ता तो वह मोह होता। इसलिए कोई अपने ऊपर या अन्यों पर क्रोध क्यों करे क्योंकि इस मत के अनुसार सुख तथा दुख का वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है।
 
श्लोक 53:  और यदि हम इस संकल्पना की परीक्षा करें कि ग्रह ही सुख तथा दुख के तुरन्त कारणरूप हैं, तो भी नित्य आत्मा से उसका सम्बन्ध कहाँ हैं? आखिर, ग्रहों का प्रभाव केवल उन्हीं वस्तुओं पर पड़ता है जिनका जन्म हो चुका है। इसके अतिरिक्त कुशल ज्योतिषियों ने बतलाया है कि किस तरह विभिन्न ग्रह एक-दूसरे को केवल पीड़ा पहुँचाते हैं। इसलिए, जीव जो कि इन ग्रहों तथा शरीर से पृथक् है, वह अपना क्रोध किस पर प्रकट करे?
 
श्लोक 54:  यदि हम यह मान लें कि सकाम कर्म सुख तथा दुख का कारण है, तो भी हम आत्मा की बात नहीं करते। भौतिक कर्म का भाव तब उदय होता है जब कोई चेतनकर्ता और भौतिक शरीर होता है, जो ऐसे कर्म के फल के रूप में सुख तथा दुख के विकारों को प्राप्त होता है। चूँकि शरीर में जीवन नहीं होता, इसलिए यह न तो सुख-दुख का असली प्रापक हो सकता है न ही आत्मा जो अन्तत: पूर्णतया आध्यात्मिक है और शरीर से पृथक् रहता है। चूँकि कर्म का न तो शरीर पर, न ही आत्मा पर कोई परम आधार है, तो फिर कोई किस पर क्रोध करे?
 
श्लोक 55:  यदि हम काल को सुख तथा दुख का कारण मान लें, तो भी यह अनुभव आत्मा पर लागू नहीं हो सकता क्योंकि काल भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति की अभिव्यक्ति है और जीव भी उसी शक्ति के अंश हैं, जो काल के माध्यम से प्रकट होती है। यह निश्चित है कि आग अपनी लौ या चिनगियों को नहीं जलाती, न ही शीत अपने ही रूप ओलों को हानि पहुँचाती है। वस्तुत: आत्मा दिव्य है और भौतिक सुख-दुख के अनुभव से परे है। इसलिए कोई किस पर क्रोध प्रकट करे?
 
श्लोक 56:  मिथ्या अहंकार मायामय जगत को स्वरूप प्रदान करता है और इस तरह वह भौतिक सुख तथा दुख का अनुभव करता है। किन्तु आत्मा भौतिक प्रकृति से परे है। वह किसी भी स्थान, किसी भी दशा में या किसी भी व्यक्ति के माध्यम से भौतिक सुख तथा दुख द्वारा प्रभावित नहीं होता।जो व्यक्ति इसे समझ लेता है उसे भौतिक सृष्टि से डरने की कोई बात नहीं।
 
श्लोक 57:  मैं कृष्ण के चरणकमलों की सेवा में दृढ़ रह कर अविद्या के दुर्लंघ्य सागर को पार कर जाऊँगा। इसकी पुष्टि पिछले आचार्यों द्वारा की गई है, जो परमात्मा की भक्ति में स्थिर थे।
 
श्लोक 58:  भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा : अपनी सम्पत्ति नष्ट होने से इस तरह विरक्त हुए इस साधु ने अपनी खिन्नता त्याग दी। उसने संन्यास ग्रहण करके घर त्याग दिया और पृथ्वी पर विचरण करने लगा। वह मूर्ख धूर्तों द्वारा अपमानित किये जाने पर भी अपने कर्तव्य में अविचल रहा और उसने यह गीत गाया।
 
श्लोक 59:  मनुष्य का अपना ही मानसिक भ्रम आत्मा को सुख तथा दुख का अनुभव कराता है, अन्य कोई नहीं। मित्रों, निरपेक्ष लोगों तथा शत्रुओं के विषय में उसकी धारणा तथा इस धारणा के चारों ओर जिस भौतिक जीवन का वह निर्माण करता है, सभी मात्र अज्ञान के कारण उत्पन्न होते हैं।
 
श्लोक 60:  हे उद्धव, तुम्हें चाहिए कि अपनी बुद्धि मुझ पर स्थिर करके अपने मन को पूरी तरह से वश में लाओ। योग के विज्ञान का सार यही है।
 
श्लोक 61:  जो कोई भी संन्यासी के इस गीत को सुनता या अन्यों को सुनाता है, जिसमें ब्रह्म विषयक वैज्ञानिक ज्ञान प्रस्तुत हुआ है तथा इस तरह जो कोई पूरे मनोयोग से इसका ध्यान करता है, वह फिर कभी भौतिक सुख-दुख के द्वैत से अभिभूत नहीं होगा।
 
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