|
|
|
अध्याय 25: प्रकृति के तीन गुण तथा उनसे परे |
|
|
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में मन में उठने वाले तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के विविध कार्यात्मक स्वरूपों का वर्णन हुआ है जिनसे भगवान् के दिव्य स्वभाव की स्थापना होती है।
मन का... |
|
श्लोक 1: भगवान् ने कहा : हे पुरुष-श्रेष्ठ, मैं तुमसे वर्णन करूँगा कि जीव किस तरह किसी भौतिक गुण की संगति से विशेष स्वभाव प्राप्त करता है। तुम उसे सुनो। |
|
श्लोक 2-5: मन तथा इन्द्रिय संयम, सहिष्णुता, विवेक, नियत कर्म का पालन, सत्य, दया, भूत तथा भविष्य का सतर्क अध्ययन, किसी भी स्थिति में सन्तोष, उदारता, इन्द्रियतृप्ति का परित्याग, गुरु में श्रद्धा, अनुचित कर्म करने पर व्यग्रता, दान, सरलता, दीनता तथा अपने में संतोष—ये सतोगुण के लक्षण हैं। भौतिक इच्छा, महान् उद्योग, मद, लाभ में भी असन्तोष, मिथ्या अभिमान, भौतिक उन्नति के लिए प्रार्थना, अन्यों से अपने को विलग तथा अच्छा मानना, इन्द्रियतृप्ति, लडऩे की छटपटाहट, अपनी प्रशंसा सुनने की चाह, अन्यों का मजाक उड़ाने की प्रवृत्ति, अपने बल का विज्ञापन तथा अपने बल के द्वारा अपने कर्मों को सही बताना—ये रजोगुण के लक्षण हैं। असह्य क्रोध, कंजूसी, शास्त्रीय आधार के बिना बोलना, उग्र घृणा, परोपजीवन, दिखावा, अति थकान, कलह, शोक, मोह, दुख, उदासी, अत्यधिक निद्रा, झूठी आशा, भय तथा आलस्य—ये तमोगुणी लक्षण हैं। अब इन तीनों के मिश्रण के बारे में सुनो। |
|
श्लोक 6: हे उद्धव, “मैं” तथा “मेरा” मनोवृत्ति में तीनों गुणों का संमिश्रण रहता है। इस जगत के सामान्य व्यवहार, जो मन, अनुभूति के विषयों (तन्मात्राओं), इन्द्रियों तथा शरीर की प्राण-वायु द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, भी गुणों के सम्मिश्रण पर आधारित होते हैं। |
|
श्लोक 7: जब मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम में अपने आप को लगाता है, तो उसके उद्योग से प्राप्त श्रद्धा, सम्पत्ति तथा यौन-सुख प्रकृति के तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया को प्रदर्शित करते हैं। |
|
श्लोक 8: जब मनुष्य पारिवारिक जीवन में अनुरक्त होने से इन्द्रियतृप्ति चाहता है और इसके फलस्वरूप जब वह धार्मिक तथा वृत्तिपरक कार्यों में स्थित हो जाता है, तो प्रकृति के गुणों का मिश्रण प्रकट होता है। |
|
श्लोक 9: आत्मसंयम जैसे गुणों को प्रदर्शित करने वाला व्यक्ति मुख्यतया सतोगुणी माना जाता है। इसी तरह रजोगुणी व्यक्ति अपनी विषय-वासना से पहचाना जाता है तथा तमोगुणी व्यक्ति क्रोध जैसे गुण से पहचाना जाता है। |
|
श्लोक 10: कोई व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, यदि अपने नियत कार्यों को बिना किसी आसक्ति के मुझे अर्पित करते हुए मेरी पूजा करता है, तो वह सतोगुणी समझा जाता है। |
|
श्लोक 11: जब कोई व्यक्ति भौतिक लाभ पाने की आशा से अपने नियत कर्मों द्वारा मेरी पूजा करता है, उसका स्वभाव रजोगुणी समझना चाहिए और जब कोई व्यक्ति अन्यों के साथ हिंसा करने की इच्छा से मेरी पूजा करता है, वह तमोगुण में स्थित होता है। |
|
श्लोक 12: प्रकृति के तीनों गुण—सतो, रजो तथा तमोगुण—जीव को तो प्रभावित करते हैं, मुझे नहीं। उसके मन में प्रकट होकर ये जीव को भौतिक शरीरों तथा अन्य उत्पन्न वस्तुओं से अनुरक्त होने के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह जीव बँध जाता है। |
|
श्लोक 13: जब प्रदीप्त शुद्ध तथा शुभ सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण पर हावी होता है, तो मनुष्य सुख, प्रतिभा, ज्ञान तथा अन्य गुणों से युक्त हो जाता है। |
|
श्लोक 14: जब अनुरक्ति, विलगाव तथा कर्मठता का कारणरूप रजोगुण, तमोगुण तथा सतोगुण को जीत लेता है, तो मनुष्य प्रतिष्ठा तथा सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए कठिन श्रम करने लगता है। इस तरह रजोगुण में मनुष्य चिन्ता तथा संघर्ष का अनुभव करता है। |
|
श्लोक 15: जब तमोगुण रजोगुण तथा सतोगुणों को जीत लेता है, तो वह मनुष्य की चेतना को ढक लेता है और उसे मूर्ख तथा जड़ बना देता है। तमोगुणी मनुष्य शोक तथा मोह में पड़ कर अत्यधिक सोता है, झूठी आशा करने लगता है और अन्यों के प्रति हिंसा प्रदर्शित करता है। |
|
श्लोक 16: जब चेतना स्वच्छ हो जाती हैं और इन्द्रियाँ पदार्थ से विरक्त हो जाती हैं, तो मनुष्य भौतिक शरीर के भीतर निर्भीकता तथा भौतिक मन से विरक्ति का अनुभव करता है। इस स्थिति को सतोगुण की प्रधानता समझना चाहिए क्योंकि इसमें मनुष्य को मेरा साक्षात्कार करने का अवसर मलिता है। |
|
श्लोक 17: तुम्हें रजोगुण का पता उसके लक्षणों से—अत्यधिक कर्म के कारण बुद्धि की विकृति, अनुभव करने वाली इन्द्रियों की संसारी वस्तुओं से अपने को छुड़ाने की असमर्थता, कर्मेन्द्रियों की अस्वस्थ दशा तथा मन की अस्थिरता से—लगा लेना चाहिये। |
|
श्लोक 18: जब मनुष्य की उच्चतर जागरूकता काम न दे और अन्त में लुप्त हो जाय तथा इस तरह मनुष्य अपना ध्यान एकाग्र न कर सके, तो उसका मन नष्ट हो जाता है और अज्ञान तथा विषाद प्रकट करता है। तुम इस स्थिति को तमोगुण की प्रधानता समझो। |
|
श्लोक 19: सतोगुण की वृद्धि होने के साथ साथ, देवताओं की शक्ति भी बढ़ती जाती है। जब रजोगुण बढ़ता है, तो असुरगण प्रबल हो उठते हैं और तमोगुण की वृद्धि से हे उद्धव! अत्यन्त दुष्ट लोगों की शक्ति बढ़ जाती है। |
|
श्लोक 20: यह जान लेना चाहिए कि जागरूक चैतन्यता सतोगुण से आती है, नींद रजोगुणी स्वप्न देखने से तथा गहरी स्वप्नरहित नींद तमोगुण से आती है। चेतना की चतुर्थ अवस्था इन तीनों में व्याप्त रहती है और दिव्य होती है। |
|
श्लोक 21: वैदिक संस्कृति के प्रति समर्पित विद्वान पुरुष सतोगुण से उत्तरोत्तर उच्च पदों को प्राप्त होते हैं। किन्तु तमोगुण मनुष्य को सिर के बल निम्न से निम्नतर जन्मों में गिरने के लिए बाध्य करता है। रजोगुण से मनुष्य मानव शरीरों में से होकर निरन्तर देहान्तरण करता रहता है। |
|
श्लोक 22: जो लोग सतोगुण में रहते हुए इस जगत को छोड़ते हैं, वे स्वर्गलोक जाते हैं; जो रजोगुण में रहते हुए छोड़ते हैं, वे मनुष्य-लोक में रह जाते हैं और तमोगुण में मरने वाले नरक-लोक में जाते हैं। किन्तु जो प्रकृति के सारे गुणों से मुक्त हैं, वे मेरे पास आते हैं। |
|
श्लोक 23: फल का विचार किये बिना जो कर्म मुझे अपिर्त किया जाता है, वह सतोगुणी माना जाता है। फल की भोगेच्छा से सम्पन्न कर्म रजोगुणी है और हिंसा तथा ईर्ष्या से प्रेरित कर्म तमोगुणी होता है। |
|
श्लोक 24: परम ज्ञान सात्त्विक होता है; द्वैत पर आधारित ज्ञान राजसी होता है और मूर्खतापूर्ण भौतिकतावादी ज्ञान तामसिक है। किन्तु जो ज्ञान मुझ पर आधारित होता है, वह दिव्य माना जाता है। |
|
श्लोक 25: जंगल का वास सतोगुणी, कस्बे का वास रजोगुणी, जुआ घर का वास तमोगुणी तथा मेरे धाम का वास दिव्य होता है। |
|
श्लोक 26: आसक्तिरहित कर्ता सात्विक होता है; निजी इच्छा से अंधा हुआ कर्ता राजसी तथा अच्छे-बुरे भेद को पूरी तरह भुला देने वाला कर्ता तामसिक है। किन्तु जिस कर्ता ने मेरी शरण ले रखी है, वह प्रकृति के गुणों से परे माना जाता है। |
|
श्लोक 27: आध्यात्मिक जीवन की दिशा में लक्षित श्रद्धा सात्विक होती है; सकाम कर्म पर आधारित श्रद्धा राजसी होती है और अधार्मिक कृत्यों में वास करने वाली श्रद्धा तामसी होती है किन्तु मेरी भक्ति में जो श्रद्धा की जाती है, वह शुद्ध रूप से दिव्य होती है। |
|
श्लोक 28: जो भोजन लाभप्रद, शुद्ध तथा बिना कठिनाई के उपलब्ध हो सके, वह सात्विक होता है; जो भोजन इन्द्रियों को तुरन्त आनन्द प्रदान करता हो, वह राजसी है और जो भोजन गन्दा हो तथा कष्ट उत्पन्न करने वाला हो, वह तामसी है। |
|
श्लोक 29: आत्मा से प्राप्त सुख सात्विक है; इन्द्रियतृप्ति पर आधारित सुख राजसी है और मोह तथा दीनता पर आधारित सुख तामसी है। किन्तु मेरे भीतर पाया जाने वाला सुख दिव्य है। |
|
श्लोक 30: इसलिए भौतिक वस्तु, स्थान, कर्मफल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, चेतना की दशा, जीव योनि तथा मृत्यु के बाद गन्तव्य—ये सभी प्रकृति के तीन गुणों पर आश्रित हैं। |
|
श्लोक 31: हे पुरुष-श्रेष्ठ, भौतिकवादिता की सारी दशाएँ भोक्ता आत्मा तथा भौतिक प्रकृति की अन्योन्य क्रिया से सम्बन्धित हैं। चाहे वे देखी हुई हों, सुनी हुई हों या मन के भीतर सोची विचारी गई हों, वे किसी अपवाद के बिना प्रकृति के गुणों से बनी हुई होती हैं। |
|
श्लोक 32: हे सौम्य उद्धव, बद्ध जीवन की ये विभिन्न अवस्थाएँ प्रकृति के गुणों से पैदा हुए कर्म से उत्पन्न होती हैं। जो जीव इन गुणों को, जो मन से प्रकट होते हैं, जीत लेता है, वह भक्तियोग द्वारा अपने आपको मुझे अर्पित कर देता है और इस तरह मेरे प्रति शुद्ध प्रेम प्राप्त करता है। |
|
श्लोक 33: इसलिए इस मनुष्य जीवन को, जो पूर्ण ज्ञान विकसित करने की छूट देता है, प्राप्त करके बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे अपने को प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त कर लें और एकमात्र मेरी भक्ति में लग जायें। |
|
श्लोक 34: समस्त भौतिक संगति से मुक्त तथा मोह से मुक्त बुद्धिमान साधु को चाहिए कि अपनी इन्द्रियों का दमन करे और मेरी पूजा करे। उसे चाहिए कि सतोगुणी वस्तुओं में ही अपने को लगाकर रजो तथा तमोगुणों को जीत ले। |
|
श्लोक 35: तब भक्ति में स्थिर होकर साधु को चाहिए कि गुणों के प्रति अन्यमनस्क रह कर सतोगुण को जीत ले। इस तरह अपने मन में शान्त एवं प्रकृति के गुणों से मुक्त आत्मा, अपने बद्ध जीवन के कारण का ही परित्याग कर देता है और मुझे पा लेता है। |
|
श्लोक 36: मन की सूक्ष्म बद्धता तथा भौतिक चेतना से उत्पन्न गुणों से मुक्त हुआ जीव मेरे दिव्य स्वरूप का अनुभव करने से पूर्णतया तुष्ट हो जाता है। वह न तो बहिरंगा शक्ति में भोग को ढूँढता है, न ही अपने मन में ऐसे भोग का चिन्तन या स्मरण करता है। |
|
|
शेयर करें
 |