श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 26: ऐल-गीत  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में यह बतलाया गया है कि अनुपयुक्त संगति भक्ति-पद के लिए कितनी घातक है और सन्त पुरुषों की संगति किस तरह भक्ति के उच्च पद तक ले जाने वाली है। जीव को मानव...
 
श्लोक 1:  भगवान् ने कहा : इस मनुष्य जीवन को, जो मनुष्य को मेरा साक्षात्कार करने का अवसर प्रदान करता है, पाकर और मेरी भक्ति में स्थित होकर, मनुष्य मुझे प्राप्त कर सकता है, जो कि समस्त आनन्द का आगार तथा हर जीव के हृदय में वास करने वाला परमात्मा स्वरूप है।
 
श्लोक 2:  दिव्य ज्ञान में स्थिर व्यक्ति प्रकृति के गुणों के फलों से अपनी झूठी पहचान त्याग कर, बद्ध जीवन से मुक्त हो जाता है। इन फलों को मात्र मोह समझ कर उन्हीं के बीच निरन्तर रहते हुए वह प्रकृति के गुणों में फँसने से अपने को बचाता है। चूँकि गुण तथा उनके फल सत्य नहीं होते, अतएव वह उन्हें स्वीकार नहीं करता।
 
श्लोक 3:  मनुष्य को कभी ऐसे भौतिकतावादियों की संगति नहीं करनी चाहिए जो अपने जननांग तथा उदर की तृप्ति में लगे रहते हों। उनका अनुसरण करने पर मनुष्य अंधकार के गहरे गड्ढे में गिर जाता है, जिस तरह एक अंधे व्यक्ति द्वारा दूसरे अंधे व्यक्ति का अनुगमन करने पर होता है।
 
श्लोक 4:  निम्नलिखित गीत सुप्रसिद्ध सम्राट पुरूरवा द्वारा गाया गया था। अपनी पत्नी उर्वशी से विलग होने पर सर्वप्रथम वह संभ्रमित हुआ किन्तु अपने शोक को वश में करने से वह विरक्ति का अनुभव करने लगा।
 
श्लोक 5:  जब वह उसको छोड़ रही थी, तो वह नंगा होते हुए भी, उसके पीछे पागल की तरह दौडऩे लगा और अत्यन्त दुख से चिल्लाने लगा, “मेरी पत्नी, अरे निष्ठुर नारी! जरा ठहर।”
 
श्लोक 6:  यद्यपि पुरूरवा ने वर्षों तक सायंकाल की घडिय़ों में यौन आनन्द भोगा था, फिर भी ऐसे तुच्छ भोग से वह तृप्त नहीं हुआ था। उसका मन उर्वशी के प्रति इतना आकृष्ट था कि वह यह भी देख नहीं पाया कि रातें किस तरह आती और चली जाती है।
 
श्लोक 7:  राजा ऐल ने कहा : हाय! मेरे मोह के विस्तार को तो देखो! यह देवी मेरा आलिंगन करती थी और मेरी गर्दन अपनी मुट्ठी में किये रहती थी। मेरा हृदय काम-वासना से इतना दूषित था कि मुझे इसका ध्यान ही न रहा कि मेरा जीवन किस तरह बीत रहा है।
 
श्लोक 8:  इस स्त्री ने मुझे इतना ठगा कि मै उदय होते अथवा अस्त होते सूर्य को भी देख नहीं सका। हाय! मै इतने वर्षों से व्यर्थ ही अपने दिन गँवाता रहा।
 
श्लोक 9:  हाय! यद्यपि मै शक्तिशाली सम्राट तथा इस पृथ्वी पर समस्त राजाओं का मुकुटमणि माना जाता हूँ, किन्तु देखो न! मोह ने मुझे स्त्रियों के हाथों का खिलौने जैसा पशु बना दिया है।
 
श्लोक 10:  यद्यपि मै प्रचुर ऐश्वर्य से युक्त शक्तिशाली राजा था, किन्तु उस स्त्री ने मुझे त्याग दिया मानो मै कोई घास की तुच्छ पत्ती होऊँ। फिर भी मै, नग्न तथा लज्जारहित पागल व्यक्ति की तरह चिल्लाते हुए, उसका पीछा करता रहा।
 
श्लोक 11:  कहाँ है मेरा तथाकथित अत्यधिक प्रभाव, बल तथा स्वामित्व? जिस स्त्री ने मुझे पहले ही छोड़ दिया था उसके पीछे मै उसी तरह भागा जा रहा हूँ जैसे कि कोई गधा जिसके मुँह पर उसकी गधी दुलत्ती झाड़ती है।
 
श्लोक 12:  ऊँची शिक्षा या तपस्या तथा त्याग से क्या लाभ? इसी तरह धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन करने, एकान्त तथा मौन होकर रहने और फिर स्त्री द्वारा किसी का मन चुराये जाने से क्या लाभ?
 
श्लोक 13:  धिक्कार है मुझे! मै इतना बड़ा मूर्ख हूँ कि मैने यह भी नहीं जाना कि मेरे लिए क्या अच्छा है। मैने तो उद्धत भाव से यह सोचा था कि मै अत्यधिक बुद्धिमान हूँ। यद्यपि मुझे स्वामी का उच्च पद प्राप्त हो गया, किन्तु मै स्त्रियों से अपने को परास्त करवाता रहा मानो मै कोई बैल या गधा होऊँ।
 
श्लोक 14:  यद्यपि मै उर्वशी के होठों के तथाकथित अमृत का सेवन वर्षों तक कर चुका था किन्तु मेरी काम-वासनाएँ मेरे हृदय में बारम्बार उठती रहीं और कभी तुष्ट नहीं हुईं जिस तरह घी की आहुति डालने पर, अग्नि कभी भी बुझाई नहीं जा सकती।
 
श्लोक 15:  जो भौतिक अनुभूति के परे है और आत्माराम मुनियों के स्वामी है, उन भगवान् के अतिरिक्त मेरी इस चेतना को जो वेश्या के द्वारा चुराई जा चुकी है, भला और कौन बचा सकता है?
 
श्लोक 16:  चूँकि मैने अपनी बुद्धि को मन्द बनने दिया और चूँकि मै अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर सका, इसलिए मेरे मन का महान् मोह मिटा नहीं यद्यपि उर्वशी ने सुन्दर वचनों द्वारा मुझे अच्छी सलाह दी थी।
 
श्लोक 17:  भला मै अपने कष्ट के लिए उसे कैसे दोष दे सकता हूँ जबकि मै स्वयं अपने असली आध्यात्मिक स्वभाव से अपरिचित हूँ? मै अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाया, इसीलिए मै उस व्यक्ति की तरह हूँ जो निर्दोष रस्सी को भ्रमवश सर्प समझ बैठता है।
 
श्लोक 18:  आखिर यह दूषित शरीर है क्या—इतना गन्दा तथा दुर्गन्ध से भरा हुआ? मै एक स्त्री के शरीर की सुगन्धि तथा सुन्दरता से आकृष्ट हुआ था किन्तु आखिर वे आकर्षक स्वरूप है क्या? वे माया (मोह) द्वारा उत्पन्न छद्म आवरण ही तो है!
 
श्लोक 19-20:  कोई यह निश्चित नहीं कर सकता है कि शरीर वास्तव में किसकी सम्पत्ति है। क्या यह उस माता-पिता की है, जिसने उसे जन्म दिया है, अथवा इसे सुख देने वाली पत्नी की है या इसके मालिक की है, जो शरीर को हुक्म देता रहता है? अथवा यह चिता की अग्नि की अथवा उन कुत्ते तथा सियारों की है, जो अन्ततोगत्वा इसका भक्षण करेंगे? क्या यह उस अन्तस्थ आत्मा की सम्पत्ति है, जो इसके सुख-दुख में साथ देता है अथवा यह शरीर उन घनिष्ठ मित्रों का है, जो इसको प्रोत्साहित करते तथा इसकी सहायता करते है? यद्यपि मनुष्य कभी भी शरीर के स्वामी को निश्चित नहीं कर पाता, किन्तु वह इससे अनुरक्त रहता है। यह भौतिक शरीर उस दूषित पदार्थ के समान है, जो निम्न स्थान की ओर बढ़ रहा है; फिर भी जब मनुष्य किसी स्त्री के मुख की ओर टकटकी लगाता है, तो सोचता है, “कितनी सुन्दर है यह स्त्री? कैसी सुघड़ नाक है इसकी और जरा इसकी सुन्दर हँसी को तो देखो।”
 
श्लोक 21:  सामान्य कीड़ों-मकोड़ों तथा उन व्यक्तियों में अन्तर ही क्या है, जो चमड़ी, मांस, रक्त, पेशी, चर्बी, मज्जा, हड्डी, मल, मूत्र तथा पीब से बने इस भौतिक शरीर का भोग करना चाहते है?
 
श्लोक 22:  सिद्धान्त रूप में शरीर की वास्तविक प्रकृति को जानने पर भी व्यक्ति को कभी भी स्त्रियों या स्त्रियों में लिप्त रहने वाले पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिए। आखिर, इन्द्रियों का उनके विषयों से सम्पर्क अनिवार्य रूप से मन को विचलित कर देता है।
 
श्लोक 23:  चूँकि मन ऐसी वस्तु से क्षुब्ध नहीं होता जो न तो देखी गई हो, न सुनी गई हो, इसलिए ऐसे व्यक्ति का मन, जो अपनी इन्द्रियों को रोकता है, स्वत: अपने भौतिक कर्मों को करने से रोक दिया जायेगा और शान्त हो जायेगा।
 
श्लोक 24:  इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों को स्त्रियों की या स्त्रियों के प्रति आसक्त पुरुषों की खुल कर संगति न करने दे। यहाँ तक कि जो अत्यधिक विद्वान है वे मन के छह शत्रुओं पर विश्वास नहीं कर सकते, तो फिर मुझ जैसे मूर्ख व्यक्तियों के बारे में क्या कहा जाय?
 
श्लोक 25:  भगवान् ने कहा : इस प्रकार यह गीत गाकर देवताओं तथा मनुष्यों में विख्यात महाराज पुरूरवा ने वह पद त्याग दिया जिसे उसने उर्वशी लोक में प्राप्त कर लिया था। दिव्य ज्ञान से उसका मोह हट गया; उसने अपने हृदय में मुझे परमात्मा रूप में समझ लिया जिससे अन्त में उसे शान्ति मिल गई।
 
श्लोक 26:  इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को सारी कुसंगति त्याग देनी चाहिए और सन्त भक्तों की संगति ग्रहण करनी चाहिए जिनके शब्दों से मन का अति-अनुराग समाप्त हो जाता है।
 
श्लोक 27:  मेरे भक्त अपने मनों को मुझ पर स्थिर करते हैं और किसी भी भौतिक वस्तु पर निर्भर नहीं रहते। वे सदैव शान्त, समदृष्टि से युक्त तथा ममत्व, अहंकार, द्वन्द्व तथा लोभ से रहित होते हैं।
 
श्लोक 28:  हे महाभागा उद्धव, ऐसे सन्त भक्तों की संगति में सदा मेरी चर्चा चलती रहती है और जो लोग मेरी महिमा के इस कीर्तन तथा श्रवण में भाग लेते हैं, वे निश्चित रूप से सारे पापों से शुद्ध हो जाते हैं।
 
श्लोक 29:  जो कोई मेरी इन कथाओं को सुनता है, कीर्तन करता है और आदरपूर्वक आत्मसात् करता है, वह श्रद्धापूर्वक मेरे परायण हो जाता है और इस तरह मेरी भक्ति प्राप्त करता है।
 
श्लोक 30:  पूर्ण भक्त के लिए मुझ परब्रह्म की भक्ति प्राप्त कर लेने के बाद, करने के लिए बचता ही क्या है? परब्रह्म के गुण असंख्य हैं और मैं साक्षात् आनन्दमय अनुभव हूँ।
 
श्लोक 31:  जो व्यक्ति यज्ञ-अग्नि के पास पहुँच चुका हो, उसके लिए जिस तरह शीत, भय तथा अंधकार दूर हो जाते हैं, उसी तरह जो व्यक्ति भगवान् के भक्तों की सेवा में लगा रहता है उसका आलस्य, भय तथा अज्ञान दूर हो जाता है।
 
श्लोक 32:  भगवान् के भक्त, जो कि परम ज्ञान को शान्त भाव से प्राप्त हैं, उन लोगों के लिए चरम शरण हैं, जो भौतिक जीवन के भयावने सागर में बारम्बार डूबते तथा उठते हैं। ऐसे भक्त उस मजबूत नाव के सदृश होते हैं, तो डूब रहे व्यक्तियों की रक्षा करती है।
 
श्लोक 33:  जिस तरह समस्त प्राणियों के लिए भोजन ही जीवन है, जिस तरह मैं दुखियारों का परम आश्रय हूँ तथा जिस तरह इस लोक से मर कर जाने वालों के लिए धर्म ही सम्पत्ति है, उसी तरह मेरे भक्त उन लोगों के एकमात्र आश्रय हैं, जो जीवन की दुखमय अवस्था में पडऩे से डरते रहते हैं।
 
श्लोक 34:  मेरे भक्तगण दैवी आँखें प्रदान करते हैं जबकि सूर्य केवल बाह्य दृष्टि प्रदान करता है और वह भी तब जब वह आकाश में उदय हुआ रहता है। मेरे भक्तगण ही मनुष्य के पूज्य देव तथा असली परिवार हैं; वे स्वयं ही आत्मा हैं और वे मुझसे अभिन्न हैं।
 
श्लोक 35:  इस तरह उर्वशी के लोक में रहने की अपनी इच्छा त्याग कर महाराज पुरूरवा समस्त भौतिक संगति से मुक्त होकर तथा अपने भीतर पूरी तरह तुष्ट होकर पृथ्वी पर विचरण करने लगे।
 
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