सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम् ।
न तृप्यत्यात्मभू: कामो वह्निराहुतिभिर्यथा ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
सेवत:—सेवा करता हुआ; वर्ष-पूगान्—अनेक वर्षों तक; मे—मेरा; उर्वश्या:—उर्वशी का; अधर—होठों का; आसवम्— अमृत; न तृप्यति—तृप्त नहीं होता; आत्म-भू:—मन से उत्पन्न; काम:—काम-वासना; वह्नि:—आग; आहुतिभि:—आहुतियों से; यथा—तिस तरह ।.
अनुवाद
यद्यपि मै उर्वशी के होठों के तथाकथित अमृत का सेवन वर्षों तक कर चुका था किन्तु मेरी काम-वासनाएँ मेरे हृदय में बारम्बार उठती रहीं और कभी तुष्ट नहीं हुईं जिस तरह घी की आहुति डालने पर, अग्नि कभी भी बुझाई नहीं जा सकती।
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