ता ये शृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृता: ।
मत्परा: श्रद्दधानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
ता:—वे कथाएँ; ये—जो व्यक्ति; शृण्वन्ति—सुनते हैं; गायन्ति—कीर्तन करते हैं; हि—निस्सन्देह; अनुमोदन्ति—आत्मसात करते हैं; च—तथा; आदृता:—आदरपूर्वक; मत्-परा:—मेरे परायण; श्रद्दधाना:—श्रद्धालु; च—तथा; भक्तिम्—भक्ति; विन्दन्ति—प्राप्त करते हैं; ते—वे; मयि—मेरे लिए ।.
अनुवाद
जो कोई मेरी इन कथाओं को सुनता है, कीर्तन करता है और आदरपूर्वक आत्मसात् करता है, वह श्रद्धापूर्वक मेरे परायण हो जाता है और इस तरह मेरी भक्ति प्राप्त करता है।
तात्पर्य
जो व्यक्ति भगवान् कृष्ण के बढ़े-चढ़े भक्तों से श्रवण करता है, वह भवसागर से अपने को बचा सकता है। जब वह प्रामाणिक गुरु के आदेशों का पालन करता है, तो इससे मन की दूषित क्रियाओं पर रोक लगती है और वह वस्तुओं को नवीन आध्यात्मिक प्रकाश में देखता है। तब भगवान् की निस्वार्थ प्रेमाभक्ति की लालसा जगती है, जिससे भगवद्प्रेम का फल प्राप्त होता है।
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