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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 27: देवपूजा विषयक श्रीकृष्ण के आदेश  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में भगवान् ने क्रिया-योग अर्थात् देवपूजा की विधि के विषय में व्याख्या दी है। भगवान् के अर्चाविग्रह की पूजा करने से मन में स्वत: शुद्धता तथा संतोष आता...
 
श्लोक 1:  श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, हे भक्तों के स्वामी, आप कृपा करके मुझे अपने अर्चाविग्रह रूप में अपनी पूजा की नियत विधि बतलायें। अर्चाविग्रह की पूजा करने वाले भक्तों की क्या क्षमताएँ होती हैं? ऐसी पूजा किस आधार पर स्थापित है? तथा पूजा की विशिष्ट विधि क्या है?
 
श्लोक 2:  सारे मुनि बारम्बार घोषित करते हैं कि ऐसी पूजा से मनुष्य जीवन में बड़े-से-बड़ा सम्भव लाभ मिलता है। नारद मुनि, महान् व्यासदेव तथा मेरे अपने गुरु बृहस्पति का यही मत है।
 
श्लोक 3-4:  हे वदान्य प्रभु, अर्चाविग्रह की इस पूजा-विधि के आदेश सर्वप्रथम आपने अपने कमलमुख से दिये। तब ब्रह्माजी ने इन्हें भृगु इत्यादि अपने पुत्रों को दिया और शिवजी ने अपनी पत्नी पार्वती को दिया। यह विधि सभी वर्णों तथा आश्रमों द्वारा स्वीकार की जाती है और उनके उपयुक्त है। इसलिए मैं अर्चाविग्रह के रूप में आपकी पूजा को, स्त्रियों तथा शूद्रों तक के लिए समस्त आध्यात्मिक अभ्यासों में अत्यन्त लाभप्रद मानता हूँ।
 
श्लोक 5:  हे कमलनयन, हे ब्रह्माण्ड के सारे ईश्वरों के ईश्वर, कृपया अपने इस भक्त-दास को कर्म बन्धन से मोक्ष का साधन बतलायें।
 
श्लोक 6:  भगवान् ने कहा : हे उद्धव, अर्चाविग्रह पूजा करने के लिए इतने वैदिक उपाय हैं कि उनका कोई अन्त नहीं है; इसलिए मैं यह विषय तुम्हें संक्षेप में एक-एक करके बतलाऊँगा।
 
श्लोक 7:  मनुष्य को चाहिए कि वैदिक, तांत्रिक अथवा मिश्रित, इन तीन विधियों में से, जिनसे मैं यज्ञ प्राप्त करता हूँ, किसी एक को चुन कर सावधानीपूर्वक मेरी पूजा करे।
 
श्लोक 8:  अब तुम श्रद्धापूर्वक सुनो क्योंकि मैं बतला रहा हूँ कि किस तरह द्विज पद को प्राप्त व्यक्ति संबद्ध वैदिक संस्तुतियों द्वारा भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करे।
 
श्लोक 9:  द्विज को चाहिए कि वह अपने आराध्य देव मुझको बिना द्वैत के मेरे अर्चाविग्रह पर प्रेममयी भक्ति के साथ उपयुक्त साज-सामग्री प्रदान करके पूजे अथवा पृथ्वी पर, अग्नि में, सूर्य में, जल में या पूजक के ही हृदय में प्रकट होने वाले मेरे रूप को पूजे।
 
श्लोक 10:  मनुष्य को चाहिए कि पहले वह अपने दाँत साफ करके तथा स्नान करके अपना शरीर शुद्ध बनाये। तत्पश्चात् वह शरीर को मिट्टी से मल कर तथा वैदिक एवं तांत्रिक मंत्रों के उच्चारण द्वारा दुबारा शुद्ध करे।
 
श्लोक 11:  मनुष्य को चाहिए कि वह मन को मुझ पर स्थिर करके, अपने विविध नियत कार्यों द्वारा, यथा दिन में तीन संधियों पर गायत्री मंत्र का उच्चारण करके, मेरी पूजा करे। वेदों द्वारा ऐसे कार्यों का आदेश है और इनसे पूजा करने वाला अपने कर्मफलों से शुद्ध हो जाता है।
 
श्लोक 12:  भगवान् के अर्चाविग्रह रूप का आठ प्रकारों में—पत्थर, काष्ठ, धातु, मिट्टी, चित्र, बालू, मन या रत्न में—प्रकट होना बतलाया जाता है।
 
श्लोक 13:  समस्त जीवों के शरण रूप भगवान् का अर्चाविग्रह दो प्रकारों से स्थापित किया जा सकता है—अस्थायी रूप से अथवा स्थायी रूप से। किन्तु हे उद्धव, स्थायी अर्चाविग्रह का आवाहन हो चुकने पर उसका विसर्जन नहीं किया जा सकता।
 
श्लोक 14:  जो अर्चाविग्रह अस्थायी रूप से स्थापित किया जाता है उसका आवाहन और विसर्जन विकल्प रूप में किया जा सकता है किन्तु ये दोनों अनुष्ठान तब अवश्य करने चाहिए जब अर्चाविग्रह को भूमि पर अंकित किया गया हो। अर्चाविग्रह को जल से स्नान कराना चाहिए यदि वह मिट्टी, रंजक या काष्ठ से न बनाया गया हो। ऐसा होने पर जल के बिना ही ठीक से सफाई करनी चाहिए।
 
श्लोक 15:  मनुष्य को चाहिए कि उत्तम से उत्तम साज-सामग्री भेंट करके मेरे अर्चाविग्रह रूप में मेरी पूजा करे। किन्तु भौतिक इच्छा से पूर्णतया मुक्त भक्त मेरी पूजा, जो भी वस्तु मिल सके उसी से करे, यहाँ तक कि वह अपने हृदय के भीतर मानसिक साज-सामग्री से भी मेरी पूजा कर सकता है।
 
श्लोक 16-17:  हे उद्धव, मन्दिर के अर्चाविग्रह की पूजा में स्नान कराना तथा सजाना सर्वाधिक मनोहारी भेटें हैं। पवित्र भूमि पर अंकित अर्चाविग्रह के लिए तत्त्वविन्यास ही सर्वाधिक रुचिकर विधि है। तिल तथा जौ को घी में सिक्त करके जो आहुतियाँ दी जाती हैं, उन्हें यज्ञ की अग्नि भेंट से अधिक अच्छा माना जाता है, जबकि उपस्थान तथा अर्घ्य से युक्त पूजा सूर्य के लिए अच्छी मानी जाती है। मनुष्य को चाहिए कि जल को ही अर्पित करके जल के रूप में मेरी पूजा करे। वस्तुत: मेरे भक्त द्वारा श्रद्धापूर्वक मुझे जो कुछ अर्पित किया जाता है—भले ही वह थोड़ा-सा जल ही क्यों न हो—मुझे अत्यन्त प्रिय है।
 
श्लोक 18:  बड़ी से बड़ी ऐश्वर्यपूर्ण भेंट भी मुझे तुष्ट नहीं कर पाती यदि वे अभक्तों द्वारा प्रदान की जायँ। किन्तु मैं अपने प्रेमी भक्तों द्वारा प्रदत्त तुच्छ से तुच्छ भेंट से भी प्रसन्न हो जाता हूँ और जब सुगंधित तेल, अगुरु, फूल तथा स्वादिष्ट भोजन की उत्तम भेंट प्रेमपूर्वक चढ़ाई जाती हैं, तो मैं निश्चय ही सर्वाधिक प्रसन्न होता हूँ।
 
श्लोक 19:  अपने को स्वच्छ करके तथा सारी सामग्री एकत्र करके पूजक को चाहिए कि अपना आसन पूर्वाभिमुख कुश से बनाये। तब वह पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठे अन्यथा यदि अर्चाविग्रह किसी स्थान पर स्थिर है, तो अर्चाविग्रह के समक्ष बैठे।
 
श्लोक 20:  भक्त को चाहिए कि अपने शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा मंत्रोच्चारण करते हुए उन्हें पवित्र बनाये। उसे मेरे अर्चाविग्रह रूप के साथ भी ऐसा ही करना चाहिए और तब उसे अपने हाथों से अर्चाविग्रह पर चढ़े पुराने फूलों तथा अन्य भेटों को हटाना चाहिए। उसे पवित्र कलश (पात्र) तथा छिडक़ने के लिए जल से भरा पात्र भी उचित ढंग से तैयार करना चाहिए।
 
श्लोक 21:  तब उस प्रोक्षणीय पात्र से वह उस स्थान पर पानी छिडक़े जहाँ अर्चाविग्रह की पूजा की जा रही हो, जहाँ भेंटे चढ़ाई जानी हों तथा साथ ही अपने शरीर पर भी पानी छिडक़े। तत्पश्चात् वह जल से भरे तीन पात्रों को विविध शुभ वस्तुओं से सजाये।
 
श्लोक 22:  तब पूजा करने वाला इन तीनों पात्रों को शुद्ध करे। उसे चाहिए कि भगवान् के चरण पखारने के लिए जल वाले पात्र को हृदयाय नम: मंत्र से पवित्र करे; अर्घ्य के लिए जल-पात्र को शिरसे स्वाहा मंत्र से तथा भगवान् का मुख धोने वाले जल के पात्र को शिखायै वषट् मंत्र का उच्चारण करके पवित्र बनाये। साथ ही, इन तीनों पात्रों के लिए गायत्री मंत्र का भी उच्चारण करे।
 
श्लोक 23:  पूजा करने वाले को चाहिए कि वह मेरे सूक्ष्म रूप को, जो अब वायु तथा अग्नि से पवित्र हुए पूजा करने वाले के शरीर के भीतर स्थित होता है, समस्त जीवों के स्रोत रूप में ध्यान करे। भगवान् का यह रूप पवित्र अक्षर ॐ की ध्वनि के अन्त में स्वरूपसिद्ध मुनियों द्वारा अनुभव किया जाता है।
 
श्लोक 24:  भक्त परमात्मा का ध्यान करता है, जिसकी उपस्थिति भक्त के शरीर को उसकी अनुभूति के अनुसार अधिक भर देती है। इस तरह भक्त अपनी सामर्थ्य-भर भगवान् की पूजा करता है और उन्हीं में लीन हो जाता है। अर्चाविग्रह के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा उपयुक्त मंत्रोच्चार करके भक्त को चाहिए कि वह परमात्मा को अर्चाविग्रह रूप में आने के लिए आमंत्रित करे और तब वह मेरी पूजा करे।
 
श्लोक 25-26:  पूजा करने वाले को चाहिए कि सर्वप्रथम मेरे आसन को धर्म, ज्ञान, त्याग तथा ऐश्वर्य के साक्षात् देवों से तथा मेरी नौ आध्यात्मिक शक्तियों से अलंकृत होने की कल्पना करे। वह भगवान् के आसन को आठ पंखडिय़ों वाले कमल के रूप में मान ले जो अपने कोश के भीतर केसर तन्तुओं से तेजवान है। तब वेदों तथा तंत्रों के नियमानुसार वह पाँव धोने का जल, मुख साफ करने का जल, अर्घ्य तथा पूजा की अन्य वस्तुएँ मुझे अर्पित करे। इस विधि से उसे भौतिक भोग तथा मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
 
श्लोक 27:  मनुष्य को चाहिए कि भगवान् के सुदर्शन चक्र, उनके पाञ्चजन्य शंख, उनकी गदा, तलवार, धनुष, बाण तथा हल, उनके मूसल, उनकी कौस्तुभ मणि, उनकी फूलमाला तथा उनके वक्षस्थल के केश-गुच्छ श्रीवत्स की पूजा इसी क्रम से करे।
 
श्लोक 28:  मनुष्य को चाहिए कि नन्द, सुनन्द, गरुड़, प्रचण्ड तथा चण्ड, महाबल तथा बल एवं कुमुद तथा कुमुदेक्षण नामक भगवान् के संगियों की पूजा करे।
 
श्लोक 29:  मनुष्य को चाहिए कि वह प्रोक्षण इत्यादि भेंटों से दुर्गा, विनायक, व्यास, विष्वक्सेन, गुरुओं तथा विविध देवताओं की पूजा करे। इन सारे व्यक्तियों को भगवान् के अर्चाविग्रह की ओर मुख किए हुए अपने अपने स्थानों में होना चाहिए।
 
श्लोक 30-31:  पूजा करने वाले को चाहिए कि अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार प्रतिदिन अर्चाविग्रह को स्नान कराने के लिए चन्दन-लेप, उशीर, कपूर, कुंकुम तथा अगुरु से सुगंधित किए गए जल का प्रयोग करे। उसे विविध वैदिक स्तुतियों का भी, यथा अनुवाक जो कि स्वर्ण-घर्म कहलाती है, महापुरुष विद्या, पुरुष सूक्त तथा सामवेद के विविध गीतों यथा राजन तथा रोहिण्य का भी उच्चारण करना चाहिए।
 
श्लोक 32:  तब मेरे भक्त को चाहिए कि वह मुझे वस्त्रों, जनेऊ, विविध आभूषनों, तिलक के चिन्ह तथा मालाओं से अच्छी तरह अलंकृत करे और मेरे शरीर पर सुगन्धित तेल का नियत विधि से लेप करे।
 
श्लोक 33:  पूजक को चाहिए कि वह मेरे पाँव तथा मुँह धोने के लिए जल, सुगन्धित तेल, फूल, अक्षत तथा इसी के साथ अगुरु, दीपक तथा अन्य भेंटें भी दे।
 
श्लोक 34:  अपने साधनों के ही अन्तर्गत भक्त को चाहिए कि मुझे भेंट करने के लिए गुड़, खीर, घी, शष्कुली (पूड़ी), आपूप, मोदक, संयाव—दही, शोरबा तथा अन्य स्वादिष्ट भोजन भेंट करने के लिए व्यवस्था करे।
 
श्लोक 35:  विशेष अवसरों पर और यदि सम्भव हो तो नित्यप्रति अर्चाविग्रह को उबटन लगाया जाय, दर्पण दिखाया जाय, दाँत साफ करने के लिए नीम की दातून दी जाय, पाँच प्रकार के अमृत (पंचामृत) से नहलाया जाय, विविध उच्च कोटि के व्यंजन भेंट किये जायँ तथा उनका गायन और नृत्य से मनोरंजन किया जाय।
 
श्लोक 36:  भक्त को चाहिए कि शास्त्रोक्ति विधि से तैयार की गई यज्ञशाला में अग्नि-यज्ञ करे जिसमें वह पवित्र पेटी (मेखला), यज्ञ-कुण्ड तथा वेदी का प्रयोग करे। यज्ञ-अग्नि जलाते समय भक्त को चाहिए कि अपने हाथों से चिनी गई लकडिय़ों को प्रज्ज्वलित करे।
 
श्लोक 37:  जमीन पर कुश फैलाकर तथा उस पर जल छिडक़ने के बाद, नियत विधियों के अनुसार अन्वाधान किया जाय। तत्पश्चात् आहुति में डाले जाने वाली वस्तुओं को व्यवस्थित करे और उन्हें पात्र में से जल छिडक़ कर पवित्र बनाये। इसके बाद पूजा करने वाला अग्नि के भीतर मेरा ध्यान करे।
 
श्लोक 38-41:  बुद्धिमान भक्त को चाहिए कि वह भगवान् के उस रूप का ध्यान करे जिसका रंग पिघले सोने जैसा, जिसकी चारों भुजाएँ शंख-चक्र-गदा तथा कमल-फूल से शोभायमान हैं तथा जो सदैव शान्त रहता है और कमल के फूल के भीतर के तन्तुओं जैसा रंगीन वस्त्र पहने रहता है। उनका मुकुट, कंगन, करधनी तथा बाजूबन्द खूब चमकते रहते हैं। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, चमकीली कौस्तुभ मणि तथा जंगली फूलों की माला रहती है। तत्पश्चात् भक्त को घी में डूबी लकडिय़ों को लेकर उन्हें अग्नि में डालते हुए भगवान् की पूजा करनी चाहिए। उसे आघार अनुष्ठान करना चाहिए जिसमें घी में सिक्त सारी आहुति-सामग्री अग्नि को अर्पित की जाती है। तत्पश्चात् उसे यमराज इत्यादि सोलह देवताओं को स्विष्टि कृत नामक आहुति देनी चाहिए जिसमें प्रत्येक देवता के मूल मंत्रों का तथा पुरुष सूक्त की सोलह पंक्तियों का उच्चारण किया जाता है। पुरुष सूक्त की प्रत्येक पंक्ति के बाद एक आहुति डाल कर, उसे प्रत्येक देवता का नाम लेकर विशेष मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
 
श्लोक 42:  इस तरह यज्ञ-अग्नि में भगवान् की पूजा करके भक्त को चाहिए कि भगवान् के निजी संगियों को झुक कर नमस्कार करे और तब उन्हें उपहार भेंट करे। तब वह भगवान् के अर्चाविग्रह का मूल मंत्र मन ही मन जपे और भगवान् नारायण के रूप में परब्रह्म का स्मरण करे।
 
श्लोक 43:  वह एक बार फिर अर्चाविग्रह को मुख धोने के लिए जल दे और जो भोजन बचा हो उसे विष्वक्सेन को दे दे। तत्पश्चात् वह अर्चाविग्रह को सुगंधित मुख शुद्धि एवं लगा हुआ पान का बीड़ा दे।
 
श्लोक 44:  अन्यों के साथ गाते, जोर से कीर्तन करते तथा नाचते, मेरी दिव्य लीलाओं का अभिनय करते तथा मेरे विषय में कथाएँ सुनते तथा सुनाते हुए भक्त को चाहिए कि कुछ समय के लिए ऐसे उत्सव में लीन हो जाय।
 
श्लोक 45:  भक्त को चाहिए कि पुराणों तथा अन्य प्राचीन शास्त्रों तथा सामान्य परम्परा के अनुसार सभी प्रकार की स्तुतियों तथा प्रार्थनाओं से भगवान् का सत्कार करे। उसे चाहिए कि, “हे प्रभु, मुझ पर दयालु हों” ऐसी प्रार्थना करते हुए पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर कर नमस्कार करे।
 
श्लोक 46:  अर्चाविग्रह के चरणों पर अपना सिर रख कर और तब भगवान् के समक्ष हाथ जोड़े खड़े होकर, उसे प्रार्थना करनी चाहिए “हे प्रभु, मैं आपकी शरण में हूँ। कृपा करके मेरी रक्षा करें। मैं इस भवसागर से अत्यन्त भयभीत हूँ क्योंकि मैं मृत्यु के मुख पर खड़ा हूँ।”
 
श्लोक 47:  इस प्रकार प्रार्थना करता हुआ भक्त अपने सिर पर मेरे द्वारा प्रदत्त उच्छिष्ठ को आदर-सहित रखे। और यदि उस अर्चाविग्रह का पूजा के अन्त में विसर्जन करना हो, तो भक्त को अपने हृदय के भीतर के कमल के प्रकाश के अन्दर अर्चाविग्रह की उपस्थिति के प्रकाश को एक बार पुन: धारण करना चाहिए।
 
श्लोक 48:  जब भी कोई व्यक्ति मुझमें, चाहे मेरे अर्चाविग्रह रूप में या अन्य प्रामाणिक अभिव्यक्तियों के रूप में, श्रद्धा उत्पन्न कर लेता है, तो उसे उसी रूप में मेरी पूजा करनी चाहिए। मैं निश्चय ही, समस्त उत्पन्न जीवों के भीतर तथा पृथक् रूप से अपने आदि रूप में भी विद्यमान रहता हूँ, क्योंकि मैं सबों का परमात्मा हूँ।
 
श्लोक 49:  वेदों तथा तंत्रों में संस्तुत विविध विधियों से मेरी पूजा करते हुए मनुष्य इस जीवन में तथा अगले जीवन में मुझसे इच्छित सिद्धि प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 50:  भक्त को चाहिए कि मजबूत मन्दिर बनवाकर उसी के साथ सुन्दर बगीचों से मेरे अर्चाविग्रह को अधिक पुष्टता से स्थापित करे। इन बगीचों को नित्यप्रति पूजा के लिए फूल प्रदान करने, विशेष अर्चाविग्रह जुलूसों और शुभ पर्वों के मनाने के लिए सुरक्षित रखना चाहिए।
 
श्लोक 51:  जो व्यक्ति अर्चाविग्रह पर भूमि, बाजार, शहर तथा गाँव की भेंट चढ़ाता है, जिससे कि अर्चाविग्रह की दैनिक पूजा तथा विशिष्ट उत्सव निरंतर चलते रहें, वह मेरे ही तुल्य ऐश्वर्य प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 52:  भगवान् के अर्चाविग्रह की स्थापना करने से मनुष्य सारी पृथ्वी का राजा बन जाता है; भगवान् के लिए मन्दिर बनवाने से तीनों जगतों का शासक बन जाता है; अर्चाविग्रह की पूजा तथा सेवा करने से वह ब्रह्मलोक को जाता है और इन तीनों कार्यों को करने से वह मुझ जैसा ही दिव्य स्वरूप प्राप्त करता है।
 
श्लोक 53:  किन्तु जो व्यक्ति कर्मफल पर विचार किये बिना, भक्ति में लगा रहता है, वह मुझे प्राप्त करता है। इस तरह जो कोई भी मेरे द्वारा वर्णित विधि के अनुसार मेरी पूजा करता है, वह अन्तत: मेरी शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 54:  जो व्यक्ति देवताओं या ब्राह्मणों की सम्पत्ति चुराता है, चाहे वह उन्हें पहले उस व्यक्ति द्वारा दी गई हो या अन्य किसी के द्वारा, उसे एक करोड़ वर्षों तक मल के कीट के रूप में रहना पड़ता है।
 
श्लोक 55:  न केवल चोरी करने वाला व्यक्ति अपितु उसकी सहायता करने वाला या जो अपराध के लिए प्रेरित करता है या मात्र अनुमोदन करता है, वह भी अगले जीवन में पापफल में भागी बनेगा। भागीदारी की कोटि के अनुसार ही, उन्हें उसी अनुपात में फल भोगना होगा। भगवान् के या उनके अधिकारी प्रतिनिधियों की पूजा की वस्तु को किसी भी दशा में नहीं चुराना चाहिए।
 
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