श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 29: भक्ति-योग  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  यह सोच कर कि इसके पूर्व वर्णित की गई वैराग्य पर आधारित आध्यात्मिक विधि अत्यन्त कठिन है, उद्धव ने कुछ सरल विधि के विषय में जिज्ञासा की। उत्तर में, भगवान् श्रीकृष्ण...
 
श्लोक 1:  श्री उद्धव ने कहा : हे भगवान् अच्युत, मुझे भय है कि आपके द्वारा वर्णित योग-विधि उस व्यक्ति के लिए अत्यन्त कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं रख सकता। इसलिए आप सरल शब्दों में यह बतलायें कि कोई व्यक्ति किस तरह इसे अधिक आसानी से सम्पन्न कर सकता है।
 
श्लोक 2:  हे कमलनयन भगवान्, सामान्यतया जो योगीजन मन को स्थिर करने का प्रयास करते हैं, उन्हें समाधि की दशा पूर्ण कर पाने की अपनी अक्षमता के कारण, निराशा का अनुभव करना पड़ता है। इस तरह वे मन को अपने वश में लाने के प्रयास में उकता जाते हैं।
 
श्लोक 3:  इसलिए हे कमलनयन ब्रह्माण्ड के स्वामी, हंस सदृश व्यक्ति खुशी-खुशी आपके उन चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो समस्त दिव्य आनन्द के स्रोत हैं। किन्तु जिन्हें अपने योग तथा कर्म की उपलब्धियों पर गर्व है, वे आपकी शरण में नहीं आ पाते और आपकी मायाशक्ति द्वारा परास्त होते हैं।
 
श्लोक 4:  हे अच्युत प्रभु, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आप अपने उन सेवकों के पास घनिष्ठतापूर्वक जाते हैं जिन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी है। जब आप भगवान् रामचन्द्र के रूप में प्रकट हुए थे, उस अवधि में ब्रह्मा जैसे महान् देवता आपके पादपीठ पर अपने मुकुट के ऐश्वर्यशाली सिरे रखने के लिए लालायित रहते थे; तब आपने हनुमान जैसे बन्दरों पर विशेष स्नेह प्रदर्शित किया क्योंकि उन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी थी।
 
श्लोक 5:  तो भला किसमें साहस है, जो आत्मारूप, पूजा के सर्वप्रिय लक्ष्य तथा सबों के परम ईश्वर आपका—जो अपनी शरण लेने वाले भक्तों को सभी सम्भव सिद्धियाँ प्रदान करने वाले हैं, तिरस्कार कर सके? आपके द्वारा प्रदत्त लाभों को जानते हुए भला इतना कृतघ्न कौन हो सकता है? ऐसा कौन है, जो आपका तिरस्कार करके ऐसी वस्तु को भौतिक सुख के लिए स्वीकार करेगा जिससे आपकी विस्मृति हो? और आपके चरणकमलों की धूलि की सेवा में निरत हम लोगों को किस चीज का अभाव है?
 
श्लोक 6:  हे प्रभु, योगी कवि तथा आध्यात्मिक विज्ञान में पटु लोग आपके प्रति अपनी कृतज्ञता पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर सके यद्यपि उन्हें ब्रह्माजी जितनी दीर्घायु प्राप्त थी क्योंकि आप दो रूपों में—बाह्यत: आचार्य रूप में और आन्तरिक रूप में परमात्मा की तरह देहधारी जीव को अपने पास आने का निर्देश करते हुए उद्धार करने के लिए प्रकट होते हैं।
 
श्लोक 7:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह अत्यन्त स्नेहिल उद्धव द्वारा पूछे जाने पर समस्त ईश्वरों के परम नियन्ता भगवान् कृष्ण जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने खिलौने के रूप में मानते हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के तीन रूप ग्रहण करते हैं, प्रेमपूर्वक अपनी सर्व-आकर्षक मुसकान दिखलाते हुए उत्तर देने लगे।
 
श्लोक 8:  भगवान् ने कहा : हाँ, मैं तुमसे अपनी भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा जिनको सम्पन्न करने से मर्त्य प्राणी दुर्जय मृत्यु पर विजय पा लेगा।
 
श्लोक 9:  मनुष्य को चाहिए कि सैदव मेरा स्मरण करते हुए बिना जल्दबाजी के मेरे प्रति अपने सारे कर्तव्य पूरा करे। उसे चाहिए कि वह मुझे मन तथा बुद्धि अर्पित करके मेरी भक्ति के आकर्षण में अपना मन स्थिर करे।
 
श्लोक 10:  मनुष्य को उन पवित्र स्थानों में जाकर शरण लेनी चाहिए जहाँ मेरे सन्त स्वभाव वाले भक्तगण निवास करते हैं। उसे मेरे भक्तों के आदर्श कार्यकलापों से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। ये भक्त देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों के बीच प्रकट होते हैं।
 
श्लोक 11:  मेरी पूजा के लिए विशेष रूप से नियत पर्वों, त्यौहारों तथा उत्सवों को मनाने के लिए या तो अकेले या सामूहिक जलसों में गायन, नृत्य तथा अन्य ठाट-बाट के साथ मनाने की व्यवस्था करे।
 
श्लोक 12:  मनुष्य को चाहिए कि शुद्ध हृदय से सारे जीवों के भीतर और अपने भी भीतर मुझको परमात्मा रूप में देखे कि मैं किसी भौतिक वस्तु द्वारा अकलंकित हूँ तथा सर्वत्र भीतर तथा बाहर उपस्थित भी हूँ जिस तरह सर्वव्यापी आकाश होता है।
 
श्लोक 13-14:  हे तेजस्वी उद्धव, जो व्यक्ति सारे जीवों को इस भाव से देखता है कि मैं उनमें से हर एक में उपस्थित हूँ और जो इस दैवी ज्ञान की शरण लेकर हर एक का सम्मान करता है, वह वास्तव में बुद्धिमान माना जाता है। ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण तथा नीच, चोर तथा ब्राह्मण संस्कृति के दानी संवर्धक, सूर्य तथा अग्नि की क्षुद्र चिनगारी, सदय तथा क्रूर को समान रूप से देखता है।
 
श्लोक 15:  जो व्यक्ति सारे पुरुषों में मेरी उपस्थिति का निरन्तर ध्यान करता है उसके लिए स्पर्धा की कुप्रवृत्तियाँ, ईर्ष्या तथा तिरस्कार एवं उसी के साथ मिथ्या अहंकार तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।
 
श्लोक 16:  मनुष्य को चाहिए कि वह अपने संगियों के उपहास की परवाह न करते हुए, देहात्म बुद्धि एवं उसके साथ लगी चिन्ता को त्याग दे। उसे कुत्तों, चाण्डालों, गौवों तथा गधों तक के समक्ष भूमि पर दंड के समान गिर कर नमस्कार करना चाहिए।
 
श्लोक 17:  जब तक मनुष्य सारे जीवों के भीतर मुझे देख पाने की क्षमता उत्पन्न नहीं कर लेता, तब तक उसे चाहिए कि वह अपनी वाणी, मन तथा शरीर के कार्यों द्वारा इस विधि से मेरी पूजा करता रहे।
 
श्लोक 18:  सर्वव्यापक भगवान् के ऐसे दिव्य ज्ञान से मनुष्य परब्रह्म को सर्वत्र देख सकता है। सारे संशयों से मुक्त होकर वह सकाम कर्मों का परित्याग कर देता है।
 
श्लोक 19:  निस्सन्देह मैं मन, वाणी तथा शरीर के कार्यों को प्रयोग करके सारे जीवों के भीतर मेरी अनुभूति करने की विधि को आध्यात्मिक प्रकाश की सर्वश्रेष्ठ सम्भव विधि मानता हूँ।
 
श्लोक 20:  हे उद्धव, चूँकि मैंने स्वयं इसकी स्थापना की है, इसलिए मेरी भक्ति की यह विधि दिव्य है और किसी भौतिक प्रेरणा से मुक्त है। निश्चय ही भक्त इस विधि को ग्रहण करने से रंचमात्र भी हानि नहीं उठाता।
 
श्लोक 21:  हे सन्त शिरोमणि उद्धव, भयावह स्थिति में सामान्य व्यक्ति रोता है, डर जाता है और शोक करता है यद्यपि ऐसी व्यर्थ की भावनाओं से स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आता किन्तु निजी प्रेरणा के बिना जो कार्य मुझे अर्पित किये जाते हैं, वे, बाहर से व्यर्थ होते हुए भी, वास्तविक धर्म-विधि के तुल्य हैं।
 
श्लोक 22:  यह विधि बुद्धिमान की परम बुद्धि और परम चतुर की चतुराई है क्योंकि इसका पालन करने से मनुष्य इसी जीवन में मुझ नित्य सत्य को पाने में नश्वर तथा असत्य का उपयोग कर सकता है।
 
श्लोक 23:  इस तरह मैंने तुम्हें, संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपों में, परब्रह्म विषयक विज्ञान का पूर्ण व्यौरा बतला दिया। यह विज्ञान देवताओं के लिए भी समझ पाना अत्यन्त कठिन है।
 
श्लोक 24:  मैं बारम्बार तुमसे स्पष्ट तर्क सहित यह ज्ञान बता चुका हूँ। जो कोई इसे ठीक से समझ लेता है, वह सारे संशयों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 25:  जो कोई तुम्हारे प्रश्नों के इन स्पष्ट उत्तरों पर अपना ध्यान एकाग्र करता है, वह वेदों के शाश्वत गुह्य लक्ष्य—परब्रह्म—को प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 26:  जो व्यक्ति उदारतापूर्वक इस ज्ञान को मेरे भक्तों के बीच फैलाता है, वह परब्रह्म का देने वाला है और मैं उसे अपने आपको दे देता हूँ।
 
श्लोक 27:  जो व्यक्ति इस स्पष्ट तथा शुद्ध बनाने वाले परम ज्ञान को जोर-जोर से बाँचता है, वह दिन प्रतिदिन शुद्ध बनता जाता है क्योंकि वह दिव्य ज्ञानरूपी दीपक से अन्यों को मुझे उद्धाटित करता है।
 
श्लोक 28:  जो कोई इस ज्ञान को श्रद्धा तथा ध्यान के साथ नियमित रूप से सुनता है और साथ ही मेरी शुद्ध भक्ति में लगा रहता है, वह भौतिक कर्म के फलों के बन्धन से कभी नहीं बँधता।
 
श्लोक 29:  हे मित्र उद्धव, क्या अब तुम इस दिव्य ज्ञान को भलीभाँति समझ गये? क्या तुम्हारे मन में उठने वाले मोह तथा शोक दूर हो गये?
 
श्लोक 30:  तुम इस उपदेश को ऐसे व्यक्ति को मत देना जो पाखण्डी, नास्तिक या बेईमान हो या जो श्रद्धापूर्वक न सुनता हो, जो भक्त न हो या जो विनीत न हो।
 
श्लोक 31:  यह ज्ञान उसे दिया जाय जो इन दुर्गुणों से मुक्त हो, जो ब्राह्मणों के कल्याण-कार्य के प्रति समर्पित हो तथा जो प्रेमी हो, सन्त स्वभाव का हो और शुद्ध हो। और यदि सामान्य श्रमिकों तथा स्त्रियों में भगवान् के प्रति भक्ति पाई जाय, तो उन्हें भी योग्य श्रोताओं के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
 
श्लोक 32:  जब जिज्ञासु व्यक्ति इस ज्ञान को समझ लेता है, तो उसे और जानने के लिए कुछ भी नहीं रहता। आखिर, जो सर्वाधिक स्वादिष्ट अमृत का पान कर चुकता है, वह कहीं प्यासा रह सकता है?
 
श्लोक 33:  वैश्लेषिक ज्ञान, कर्मकाण्ड, योग, सांसारिक वाणिज्य तथा राजनैतिक प्रशासन द्वारा लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में प्रगति करना चाहते हैं। किन्तु क्योंकि तुम मेरे भक्त हो इसलिए जो कुछ इन नाना विधियों से प्राप्त किया जा सकता है, उसे तुम आसानी से मेरे भीतर पा सकोगे।
 
श्लोक 34:  जो व्यक्ति सारे सकाम कर्म त्याग देता है और मेरी सेवा करने की तीव्र उत्कंठा से पूरी तरह मुझमें समर्पित हो जाता है, वह जन्म-मृत्यु से मोक्ष पा लेता है और मेरे ऐश्वर्य के भागी के पद पर उन्नत हो जाता है।
 
श्लोक 35:  श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् कृष्ण द्वारा कहे गये इन शब्दों को सुन कर तथा इस प्रकार सम्पूर्ण योग-मार्ग दिखलाये जा चुकने पर, उद्धव ने नमस्कार करने के लिए अपने हाथ जोड़ लिये। किन्तु उनका गला प्रेम से रुँध गया और आँखें अश्रुओं से पूरित हो गईं जिससे वे कुछ भी नहीं कह पाये।
 
श्लोक 36:  प्रेम से अभिभूत हुए अपने मन को स्थिर करते हुए उद्धव ने यदुवंश के महानतम वीर भगवान् कृष्ण के प्रति अतीव कृतज्ञता का अनुभव किया। हे राजा परीक्षित, वे अपने सिर से भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए झुके और तब हाथ जोड़ कर बोले।
 
श्लोक 37:  श्री उद्धव ने कहा : हे अजन्मा आदि भगवान्, यद्यपि मैं मोह के गहन अंधकार में गिर चुका था, किन्तु आपकी दयामयी संगति से अब मेरा अज्ञान दूर हो चुका है। निस्सन्देह, शीत, अंधकार तथा भय उस पर किस तरह अपनी शक्ति दिखा सकते हैं, जो तेजवान् सूर्य के निकट पहुँच गया हो?
 
श्लोक 38:  मेरे तुच्छ आत्म-निवेदन के बदले, आपने मुझ अपने सेवक पर दयापूर्वक दिव्य ज्ञान के प्रदीप का दान दिया है। इसलिए आपका कौन भक्त जिसमें तनिक भी कृतज्ञता होगी, आपके चरणकमलों को त्याग कर अन्य स्वामी की शरण ग्रहण करेगा?
 
श्लोक 39:  दाशार्हों, वृष्णियों, अन्धकों तथा सात्वतों के परिवारों के प्रति मेरे स्नेह की दृढ़ता से बँधी हुई रस्सी—वह रस्सी जिसे आपने अपनी सृष्टि को उत्पन्न करने हेतु अपनी माया से आरम्भ में मेरे ऊपर डाल रखी थी—अब दिव्य आत्म-ज्ञान के हथियार से कट गई है।
 
श्लोक 40:  हे महायोगी, आपको नमस्कार है। मुझ शरणागत को आप उपदेश दें कि मैं किस तरह आपके चरणकमलों के प्रति अनन्य अनुरक्ति पा सकता हूँ।
 
श्लोक 41-44:  भगवान् ने कहा : हे उद्धव, मेरा आदेश लो और बदरिका नामक मेरे आश्रम जाओ। तुम वहाँ के पवित्र जल को, जो मेरे चरणकमलों से निकला है, स्पर्श करना तथा उसमें स्नान करके अपने को शुद्ध करना। तुम पवित्र अलकनन्दा नदी के दर्शन से समस्त पापों से अपने को मुक्त करना। तुम वृक्षों की छाल पहनना और जंगल में जो कुछ मिल सके उसे खाना। इस तरह तुम संतुष्ट और इच्छा से मुक्त, समस्त द्वैतों के प्रति सहिष्णु, अच्छे स्वभाव के, आत्मसंयमी, शान्त तथा आध्यात्मिक ज्ञान एवं विज्ञान से समन्वित हो सकोगे। अपना ध्यान एकाग्र करके मेरे द्वारा दिये गये उपदेशों पर निरन्तर मनन करना और इनके सार को आत्मसात् करना। अपने वचनों तथा विचारों को मुझ पर स्थिर करना और मेरे दिव्य गुणों की अनुभूति को अपने में बढ़ाने के लिए सदैव प्रयास करना। इस तरह तुम प्रकृति के तीन गुणों के गन्तव्य को पार करके अन्त में मेरे पास आ जाओगे।
 
श्लोक 45:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह भौतिक जीवन के समस्त कष्ट को नष्ट करने वाली बुद्धि के स्वामी भगवान् कृष्ण द्वारा सम्बोधित किये जाने पर श्री उद्धव ने भगवान् की परिक्रमा की और तब भगवान् के चरणों पर अपना सिर रख कर भूमि पर लेट गये। यद्यपि उद्धव सारे भौतिक द्वन्द्वों के प्रभाव से मुक्त थे, किन्तु उनका हृदय विदीर्ण हो रहा था और विदा के समय उन्होंने अपने आँसुओं से भगवान् के चरणकमलों को भिगो दिया।
 
श्लोक 46:  जिनसे उद्धव का अटूट स्नेह था उनसे बिछुडऩे से अत्यधिक डरते हुए, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये और वे भगवान् का साथ छोड़ नहीं पाये। अन्त में, अत्यधिक पीड़ा का अनुभव करते हुए, उन्होंने बारम्बार भगवान् को नमस्कार किया और अपने स्वामी के खड़ाऊँ को सिर पर रख कर वहाँ से प्रस्थान किया।
 
श्लोक 47:  तत्पश्चात् भगवान् को, हृदय में रखते हुए महान् भक्त उद्धव बदरिकाश्रम गये। वहाँ पर तपस्या में रत होकर उन्होंने भगवान् के निजी धाम को प्राप्त किया जिसका वर्णन ब्रह्माण्ड के एकमात्र मित्र स्वयं कृष्ण ने उनसे किया था।
 
श्लोक 48:  इस तरह उन भगवान् कृष्ण ने जिनके चरणकमलों की सेवा समस्त बड़े बड़े योगेश्वरों द्वारा की जाती है, अपने भक्त से यह अमृततुल्य ज्ञान कहा जो आध्यात्मिक आनन्द के सम्पूर्ण सागर जैसा है। इस ब्रह्माण्ड में जो कोई भी इस कथा को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ग्रहण करता है, उसकी मुक्ति निश्चित है।
 
श्लोक 49:  मैं उन भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो आदि तथा समस्त जीवों में महानतम हैं। वे वेदों के रचयिता हैं और उन्होंने अपने भक्तों के भौतिक जगत के भय को नष्ट करने के लिए, मधुमक्खी की तरह समस्त ज्ञान तथा विज्ञान के इस अमृतमय सार का संग्रह किया। इस तरह उन्होंने अपने अनेक भक्तों को आनन्दसागर से यह अमृत प्रदान किया है और उनकी कृपा से उन्होंने इसका पान किया है।
 
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