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अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में उन व्यक्तियों के गति की विवेचना की गई है, जो भगवान् हरि की पूजा से शत्रुता रखते हैं, जो अपनी इन्द्रियों को वश में रखने में असमर्थ हैं और जो शान्त नहीं... |
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श्लोक 1: राजा निमि ने आगे पूछा : हे योगेन्द्रो, आप सभी लोग आत्म-विज्ञान में परम दक्ष हैं, अतएव मुझे उन लोगों का गन्तव्य बतलाइये, जो प्राय: भगवान् हरि की पूजा नहीं करते, जो अपनी भौतिक इच्छाओं की प्यास नहीं बुझा पाते तथा जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाते। |
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श्लोक 2: श्री चमस ने कहा : ब्राह्मण से शुरु होने वाले चारों वर्ण प्रकृति के गुणों के विभिन्न संयोगों से भगवान् के विराट रूप के मुख, बाहु, जाँघ तथा पाँव से उत्पन्न हुए। इसी तरह चार आध्यात्मिक आश्रम भी उत्पन्न हुए। |
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श्लोक 3: यदि चारों वर्णों तथा चारों आश्रमों का कोई भी सदस्य उनकी अपनी उत्पत्ति के स्रोत भगवान् की पूजा नहीं करता या जान-बूझकर भगवान् का अनादर करता है, तो वे सभी अपने पद से गिर कर नारकीय दशा को प्राप्त होंगे। |
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श्लोक 4: ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें भगवान् हरि विषयक वार्ताओं में भाग लेने का बहुत ही कम अवसर मिल पाता है, जिसके कारण भगवान् की अच्युत कीर्ति का कीर्तन कर पाना उनके लिए कठिन होता है। स्त्रियाँ, शूद्र तथा अन्य पतित जाति के व्यक्ति, सदा ही आप जैसे महापुरुषों की कृपा के पात्र हैं। |
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श्लोक 5: दूसरी ओर ब्राह्मण, राजसी वर्ग के लोग तथा वैश्यजन वैदिक दीक्षा द्वारा द्वितीय जन्म प्राप्त करके (द्विज) भगवान् हरि के चरणकमलों के निकट जाने की अनुमति दिये जाने पर भी मोहित हो सकते हैं और विविध भौतिकतावादी दर्शन ग्रहण कर सकते हैं। |
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श्लोक 6: कर्मकला से अनजान, वेदों के मधुर शब्दों से मोहित तथा जागृत ऐसे उद्धत गर्वित मूर्खजन अपने को विद्वान होने का ढोंग रचते हैं और देवताओं की चाटुकारिता करते हैं। |
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श्लोक 7: रजोगुण के प्रभाव के कारण वेदों के भौतिकतावादी अनुयायी उग्र इच्छाओं के वशीभूत होकर अत्यधिक कामुक बन जाते हैं। उनका क्रोध सर्प जैसा होता है। वे चालबाज, अत्यधिक गर्वीले तथा आचरण में पापपूर्ण होने से भगवान् अच्युत के भक्तों की हँसी उड़ाते हैं। |
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श्लोक 8: वैदिक विधानों के भौतिकतावादी अनुयायी भगवान् की पूजा का परित्याग करके अपनी पत्नियों की पूजा करते हैं और इस तरह उनके घर यौन-जीवन के लिए समर्पित हो जाते हैं। ऐसे भौतिकतावादी गृहस्थ इस प्रकार के मनमाने आचरण के लिए एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं। वे अनुष्ठानिक यज्ञ को शारीरिक निर्वाह के लिए आवश्यक साधन मान कर अवैध उत्सव मनाते हैं, जिनमें न तो भोजन बाँटा जाता है, न ही ब्राह्मणों तथा अन्य सम्मान्य व्यक्तियों को दक्षिणा दी जाती है। विपरित इसके वे अपने कर्मों के कुपरिणामों को समझे बिना, क्रूरतापूर्वक बकरों जैसे पशुओं का वध करते हैं। |
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श्लोक 9: दुर्मति व्यक्तियों की बुद्धि उस मिथ्या अहंकार से अन्धी हो जाती है, जो धन-सम्पदा, ऐश्वर्य, उच्च-कुलीनता, शिक्षा, त्याग, शारीरिक सौन्दर्य, शारीरिक शक्ति तथा वैदिक अनुष्ठानों की सफल सम्पन्नता पर आधारित होता है। इस मिथ्या अहंकार से मदान्ध होकर ऐसे दुष्ट व्यक्ति भगवान् तथा उनके भक्तों की निन्दा करते हैं। |
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श्लोक 10: प्रत्येक देहधारी जीव के हृदय के भीतर शाश्वत स्थित रहते हुए भी भगवान् उनसे पृथक् रहते हैं, जिस तरह कि सर्वव्यापक आकाश किसी भौतिक वस्तु में घुल-मिल नहीं जाता। इस प्रकार भगवान् परम पूज्य हैं तथा हर वस्तु के परम नियन्ता हैं। वेदों में उनकी विस्तार से महिमा गाई जाती है, किन्तु जो लोग बुद्धिविहीन हैं, वे उनके विषय में सुनना नहीं चाहते। वे अपना समय अपने उन मनोरथों की चर्चा करने में बिताते हैं, जो यौन-जीवन तथा मांसाहार जैसी स्थूल इन्द्रिय-तृप्ति से सम्बन्धित होते हैं। |
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श्लोक 11: इस भौतिक जगत में बद्धजीव यौन, मांसाहार तथा नशे के प्रति सदैव उन्मुख रहता है। इसीलिए शास्त्र कभी भी ऐसे कार्यों को बढ़ावा नहीं देते। यद्यपि पवित्र विवाह के द्वारा यौन, यज्ञों द्वारा मांसाहार तथा उत्सवों में सुरा के प्याले ग्रहण करके नशे के लिए शास्त्रों का आदेश है, किन्तु ऐसे उत्सवों मन्तव्य उनकी ओर से विरक्ति उत्पन्न करना है। |
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श्लोक 12: सञ्चित धन का एकमात्र उचित फल धार्मिकता है, जिसके आधार पर मनुष्य जीवन की दार्शनिक जानकारी प्राप्त कर सकता है, जो अन्तत: परब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति में और इस तरह समस्त कष्ट से मोक्ष में परिणत हो जाता है। किन्तु भौतिकतावादी व्यक्ति अपने धन का सदुपयोग अपनी पारिवारिक स्थिति की उन्नति में ही करते हैं। वे यह देख नहीं पाते कि दुर्लंघ्य मृत्यु शीघ्र ही उनके दुर्बल भौतिक शरीर को विनष्ट कर देगी। |
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श्लोक 13: वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसका पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं। किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए। |
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श्लोक 14: वे पापी व्यक्ति, जो असली धर्म से अनजान होते हुए भी अपने को पूर्णरूपेण पवित्र समझते हैं, उन निरीह पशुओं के प्रति बिना पश्चाताप किये हिंसा करते हैं, जो उनके प्रति पूर्णतया आश्वस्त होते हैं। ऐसे पापी व्यक्ति अगले जन्मों में उन्हीं पशुओं द्वारा भक्षण किये जाएँगे, जिनका वे इस जगत में वध किये रहते हैं। |
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श्लोक 15: बद्धजीव अपने शवतुल्य भौतिक शरीरों तथा अपने सम्बन्धियों एवं साज-सामान के प्रति स्नेह से पूरी तरह बँध जाते हैं। ऐसी गर्वित एवं मूर्खतापूर्ण स्थिति में बद्धजीव अन्य जीवों के साथ साथ समस्त जीवों के हृदय में वास करने वाले भगवान् हरि से भी द्वेष करने लगते हैं। इस प्रकार ईर्ष्यावश अन्यों का अपमान करने से बद्धजीव क्रमश: नरक में जा गिरते हैं। |
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श्लोक 16: जिन्होंने परम सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, फिर भी, जो निपट अज्ञानता के अंधकार से परे हैं, वे सामान्यतया धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन पवित्र पुरुषार्थों का अनुसरण करते हैं। अन्य किसी उच्च उद्देश्य के बारे में विचार करने के लिए समय न होने से वे अपनी ही आत्मा के हत्यारे (आत्मघाती) बन जाते हैं। |
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श्लोक 17: इन आत्महन्ताओं को कभी भी शान्ति नहीं मिल पाती, क्योंकि वे यह मानते हैं कि मानवी बुद्धि अन्तत: भौतिक जीवन का विस्तार करने के लिए है। इस तरह अपने असली आध्यात्मिक कर्तव्य की उपेक्षा करते हुए, वे सदैव कष्ट पाते हैं। वे उच्च आशाओं एवं स्वप्नों से पूरित रहते हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश काल के अपरिहार्य प्रवाह के कारण ये सब सदैव ध्वस्त हो जाते हैं। |
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श्लोक 18: जिन लोगों ने ईश्वर की माया के जाल में आकर भगवान् वासुदेव से मुख मोड़ लिया है, उन्हें अन्त में बाध्य होकर अपने तथाकथित घर, बच्चे, मित्र, पत्नियाँ तथा प्रेमीजनों को छोडऩा पड़ता है, क्योंकि ये सब भगवान् की माया से उत्पन्न हुए थे और ऐसे लोग अपनी इच्छा के विरुद्ध ब्रह्माण्ड के घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं। |
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श्लोक 19: राजा निमि ने पूछा : भगवान् प्रत्येक युग में किन रंगों तथा रूपों में प्रकट होते हैं और वे किन नामों तथा किन-किन प्रकार के विधानों द्वारा मानव समाज में पूजे जाते हैं? |
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श्लोक 20: श्री करभाजन ने उत्तर दिया—कृत, त्रेता, द्वापर तथा कलि इन चारों युगों में से प्रत्येक में भगवान् केशव विविध वर्णों, नामों तथा रूपों में प्रकट होते हैं और विविध विधियों से पूजे जाते हैं। |
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श्लोक 21: सत्ययुग में भगवान् श्वेत वर्ण और चतुर्भुजी होते हैं, उनके सिर पर जटाएँ रहती है और वे वृक्ष की छाल का वस्त्र पहनते हैं। वे काले हिरन का चर्म, जनेऊ, जप-माला, डण्डा तथा ब्रह्मचारी का कमण्डल धारण किये रहते हैं। |
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श्लोक 22: सत्ययुग में लोग शान्त, ईर्ष्यारहित, प्रत्येक प्राणी के प्रति मैत्री-भाव से युक्त तथा समस्त स्थितियों में स्थिर रहते हैं। वे तपस्या द्वारा तथा आन्तरिक एवं बाह्य इन्द्रिय-संयम द्वारा भगवान् की पूजा करते हैं। |
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श्लोक 23: सत्ययुग में भगवान् की महिमा का गायन हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त तथा परमात्मा-नामों से किया जाता है। |
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श्लोक 24: त्रेतायुग में भगवान् का वर्ण लाल होता है। उनकी चार भुजाएँ होती हैं, बाल सुनहरे होते हैं और वे तिहरी पेटी पहनते हैं, जो तीनों वेदों में दीक्षित होने की सूचक है। ऋक्, साम तथा यजुर्वेदों में निहित यज्ञ द्वारा पूजा के ज्ञान के साक्षात् रूप उन भगवान् के प्रतीक स्रुक्, स्रुवा इत्यादि यज्ञ के पात्र होते हैं। |
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श्लोक 25: त्रेतायुग में मानव समाज के वे लोग, जो धर्मिष्ठ हैं और परम सत्य को प्राप्त करने में सच्ची रुचि रखते हैं, वे समस्त देवताओं से युक्त भगवान् हरि की पूजा करते हैं। इस युग में तीनों वेदों में दिये गये यज्ञ अनुष्ठानों के द्वारा भगवान् की पूजा की जाती है। |
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श्लोक 26: त्रेतायुग में विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त तथा उरुगाय नामों से भगवान् का गुणगान किया जाता है। |
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श्लोक 27: द्वापर युग में भगवान् श्याम-वर्ण से युक्त और पीताम्बर धारण किये प्रकट होते हैं। इस अवतार में भगवान् के दिव्य शरीर में श्रीवत्स तथा अन्य विशेष आभूषण अंकित रहते हैं और वे अपने निजी आयुध प्रकट करते हैं। |
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श्लोक 28: हे राजन्, द्वापर युग में जो लोग परम भोक्ता भगवान् को जानने के इच्छुक होते हैं, वे वेदों तथा तंत्रों के आदेशानुसार, उन्हें महान् राजा के रूप में आदर देते हुए पूजा करते हैं। |
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श्लोक 29-30: “हे परम स्वामी वासुदेव, आपको तथा आपके संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध-रूपों को नमस्कार है। हे भगवान्, आपको नमस्कार है। हे नारायण ऋषि, हे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, इस जगत के स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के आदि स्वरूप, हे समस्त जीवों के परमात्मा, आपको सादर नमस्कार है।” |
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श्लोक 31: हे राजन्, इस तरह से द्वापर युग में लोग ब्रह्माण्ड के स्वामी का यशोगान करते थे। कलियुग में भी लोग शास्त्रों के विविध नियमों का पालन करते हुए भगवान् की पूजा करते हैं। अब कृपा करके आप मुझसे इसके बारे में सुनें। |
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श्लोक 32: कलियुग में, बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन (संकीर्तन) करते हैं, जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है। यद्यपि उसका वर्ण श्यामल (कृष्ण) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है। वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है। |
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श्लोक 33: हे प्रभु, आप महापुरुष हैं और मैं आपके उन चरणकमलों की पूजा करता हूँ, जो शाश्वत ध्यान के एकमात्र लक्ष्य हैं। वे चरण भौतिक जीवन की चिन्ताओं को नष्ट करते हैं और आत्मा की सर्वोच्च इच्छा—शुद्ध भगवत्प्रेम की प्राप्ति—प्रदान करते हैं। हे प्रभु, आपके चरणकमल समस्त तीर्थस्थानों के तथा भक्ति-परम्परा के समस्त सन्त-महापुरुषों के आश्रय हैं और शिव तथा ब्रह्मा जैसे शक्तिशाली देवताओं द्वारा सम्मानित होते हैं। हे प्रभु, आप इतने दयालु हैं कि आप उन सबों की स्वेच्छा से रक्षा करते हैं, जो आदरपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं। इस तरह आप अपने सेवकों के सारे कष्टों को दयापूर्वक दूर कर देते हैं। निष्कर्ष रूप में, हे प्रभु, आपके चरणकमल वास्तव में जन्म तथा मृत्यु के सागर को पार करने के लिए उपयुक्त नाव हैं, इसीलिए ब्रह्मा तथा शिव भी आपके चरणकमलों में आश्रय की तलाश करते रहते हैं।” |
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श्लोक 34: हे महापुरुष, मैं आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ। आपने लक्ष्मी देवी तथा उनके सारे ऐश्वर्य का परित्याग कर दिया, जिसे त्याग पाना अतीव कठिन है और जिसकी कामना बड़े बड़े देवता तक करते हैं। इस तरह धर्मपथ के अत्यन्त श्रद्धालु अनुयायी होकर आप ब्राह्मण के शाप को मान कर जंगल के लिए चल पड़े। आपने मात्र अपनी दयालुतावश पतित बद्धजीवों का पीछा किया, जो सदैव माया के मिथ्या भोग के पीछे दौड़ते हैं और उसी के साथ अपनी वांछित वस्तु भगवान् श्यामसुन्दर की खोज में लगे भी रहते हैं। |
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श्लोक 35: इस प्रकार हे राजन्, भगवान् हरि जीवन के समस्त वांछित फलों को देने वाले हैं। बुद्धिमान मनुष्य भगवान् के उन विशेष रूपों तथा नामों की पूजा करते हैं, जिन्हें भगवान् विभिन्न युगों में प्रकट करते हैं। |
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श्लोक 36: जो लोग सचमुच ज्ञानी हैं, वे इस कलियुग के असली महत्व को समझ सकते हैं। ऐसे प्रबुद्ध लोग कलियुग की पूजा करते हैं, क्योंकि इस पतित युग में जीवन की सम्पूर्ण सिद्धि संकीर्तन सम्पन्न करके आसानी से प्राप्त की जा सकती है। |
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श्लोक 37: निस्सन्देह, भौतिक जगत में विचरण करने के लिए बाध्य किये गये देहधारी जीवों के लिए भगवान् के संकीर्तन आन्दोलन से बढक़र और कोई सम्भावित लाभ नहीं है, जिसके द्वारा वह परम शान्ति पा सके और अपने को बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ा सके। |
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श्लोक 38-40: हे राजन्, सत्ययुग तथा उसके पूर्व के अन्य युगों के निवासी इस कलियुग में जन्म लेने की तीव्र कामना करते हैं, क्योंकि इस युग में भगवान् नारायण के अनेक भक्त होंगे। ये भक्तगण विविध लोकों में प्रकट होंगे, किन्तु दक्षिण भारत में विशेष रूप से जन्म लेंगे। हे मनुष्यों के स्वामी, कलियुग में जो व्यक्ति द्रविड़ देश की पवित्र नदियों, यथा ताम्रपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, अतीव पवित्र कावेरी तथा प्रतीची महानदी का जलपान करेंगे, वे सारे के सारे भगवान् वासुदेव के शुद्ध हृदय वाले भक्त होंगे। |
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श्लोक 41: हे राजन्, जिस व्यक्ति ने सारे भौतिक कार्यों को त्याग कर उन मुकुन्द के चरणकमलों में पूरी तरह शरण ले रखी है, जो सबों को आश्रय देते हंै, ऐसा व्यक्ति देवताओं, ऋषियों, सामान्य जीवों, सम्बन्धियों, मित्रों, मनुष्यों या दिवंगत हो चुके पितरों का ऋणी नहीं रहता। चूँकि इन सभी श्रेणियों के जीव भगवान् के ही भिन्नांश हैं, अत: जिसने भगवान् की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया है, उसे ऐसे व्यक्तियों की अलग से सेवा करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। |
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श्लोक 42: जिस मनुष्य ने अन्य सारे कार्यकलापों को त्याग कर भगवान् हरि के चरणकमलों की पूर्ण शरण ग्रहण कर ली है, वह भगवान् को अत्यन्त प्रिय है। निस्संदेह यदि ऐसा शरणागत जीव संयोगवश कोई पापकर्म कर भी बैठे है, तो प्रत्येक हृदय के भीतर स्थित भगवान्, तुरन्त ही ऐसे पाप के फल को समाप्त कर देते हैं। |
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श्लोक 43: नारद मुनि ने कहा : इस तरह भक्तियोग की बातें सुनकर मिथिला के राजा निमि अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और अपने यज्ञ-पुरोहितों सहित जयन्ती के मेधावी पुत्रों का सत्कार किया। |
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श्लोक 44: तब वे सिद्ध मुनिगण वहाँ पर उपस्थित सबों की आँखों के सामने से अदृश्य हो गये। राजा निमि ने उनसे सीखे गये आध्यात्मिक जीवन के नियमों का श्रद्धापूर्वक अभ्यास किया और इस तरह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त किया। |
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श्लोक 45: हे परम भाग्यशाली वसुदेव, आपने भक्ति के जिन नियमों को सुना है, उनका श्रद्धापूर्वक व्यवहार करें और इस तरह भौतिक संगति से छूट कर, आप परम पुरुष को प्राप्त होंगे। |
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श्लोक 46: निस्सन्देह, सारा संसार आप तथा आपकी पत्नी के यश से भरा-पुरा हो चुका है, क्योंकि भगवान् हरि ने आपके पुत्र का स्थान अपनाया है। |
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श्लोक 47: हे वसुदेव, आप तथा आपकी उत्तम पत्नी देवकी ने कृष्ण को अपने पुत्र रूप में स्वीकार करके उनके प्रति महान् दिव्य प्रेम दर्शाया है। निस्सन्देह आप दोनों भगवान् का सदैव दर्शन तथा आलिंगन करते रहे हैं, उनसे बातें करते रहे हैं, उनके साथ विश्राम करते तथा उठते-बैठते तथा उनके साथ अपना भोजन करते रहे हैं। भगवान् के साथ ऐसे स्नेहपूर्ण तथा घनिष्ठ संग से आप दोनों ने अपने हृदयों को पूरी तरह शुद्ध बना लिया है। दूसरे शब्दों में, आप दोनों पहले से पूर्ण हो। |
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श्लोक 48: शिशुपाल, पौण्ड्रक तथा शाल्व जैसे विरोधी राजा, भगवान् कृष्ण के विषय में निरन्तर सोचते रहते थे। सोते, बैठते या अन्य कार्य करते हुए भी वे भगवान् के चलने-फिरने, उनकी क्रीड़ाओं, भक्तों पर उनकी प्रेमपूर्ण चितवन तथा उनके द्वारा प्रदर्शित अन्य आकर्षक स्वरूपों के विषय में ईर्ष्याभाव से ध्यान करते रहते थे। इस तरह कृष्ण में सदैव लीन रह कर, उन्होंने भगवान् के धाम में मुक्ति प्राप्त की। तो फिर उन लोगों को दिये जाने वाले वरों के विषय में क्या कहा जाय, जो अनुकूल प्रेमभाव से निरन्तर भगवान् कृष्ण पर ही अपने मन को एकाग्र रखते हैं? |
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श्लोक 49: कृष्ण को सामान्य बालक मत समझिये, क्योंकि वे भगवान्, अव्यय तथा सबों के आत्मा हैं। भगवान् ने अपने अचिन्त्य ऐश्वर्य को छिपा रखा है, इसीलिए वे बाहर से सामान्य मनुष्य जैसे प्रतीत होते हैं। |
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श्लोक 50: भगवान् पृथ्वी के भारस्वरूप आसुरी राजाओं का वध करने तथा सन्त-भक्तों की रक्षा करने के लिए अवतरित हुए हैं। किन्तु असुर तथा भक्त दोनों ही को भगवत्कृपा से मुक्ति प्रदान की जाती है। इस तरह उनका दिव्य यश ब्रह्माण्ड-भर में फैल गया है। |
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श्लोक 51: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह कथा सुनकर परम भाग्यशाली वसुदेव पूर्णतया आश्चर्यचकित हो गए। इस प्रकार उन्होंने तथा उनकी परम भाग्यशालिनी पत्नी देवकी ने उस भ्रम तथा चिन्ता को त्याग दिया, जो उनके हृदयों में घर कर चुके थे। |
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श्लोक 52: जो स्थिर चित्त होकर इस पवित्र ऐतिहासिक कथा का ध्यान करता है, वह इसी जीवन में अपने सारे कल्मष धोकर सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करेगा। |
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