श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 7: भगवान् कृष्ण द्वारा उद्धव को उपदेश  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में यह वर्णन हुआ है कि जब उद्धव ने भगवान् कृष्ण से यह याचना की कि उन्हें भी वे अपने धाम लेते चलें, तो कृष्ण ने उद्धव को सलाह दी कि वे संन्यास ग्रहण कर लें।...
 
श्लोक 1:  भगवान् ने कहा : हे महाभाग्यशाली उद्धव, तुमने इस पृथ्वी पर से यदुवंश को समेटने की तथा वैकुण्ठ में अपने धाम लौटने की मेरी इच्छा को सही सही जान लिया है। इस तरह ब्रह्मा, शिव तथा अन्य सारे लोक-नायक, अब मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं अपने वैकुण्ठ-धाम वापस चला जाऊँ।
 
श्लोक 2:  ब्रह्माजी द्वारा प्रार्थना करने पर मैंने इस संसार में अपने स्वांश बलदेव सहित अवतार लिया था और देवताओं की ओर से अनेक कार्य सम्पन्न किये। अब यहाँ पर मैं अपना मिशन पूरा कर चुका हूँ।
 
श्लोक 3:  अब ब्राह्मणों के शाप से यह यदुवंश निश्चित रूप से परस्पर झगड़ कर समाप्त हो जायेगा और आज से सातवें दिन यह समुद्र उफन कर इस द्वारका नगरी को आप्लावित कर देगा।
 
श्लोक 4:  हे साधु उद्धव, मैं निकट भविष्य में इस पृथ्वी को छोड़ दूँगा। तब कलियुग से अभिभूत होकर यह पृथ्वी समस्त पवित्रता से विहीन हो जायेगी।
 
श्लोक 5:  हे उद्धव, जब मैं इस जगत को छोड़ चुकूँ, तो तुम्हें इस पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिए। हे प्रिय भक्त, तुम निष्पाप हो, किन्तु कलियुग में लोग सभी प्रकार के पापपूर्ण कार्यों में लिप्त रहेंगे, अतएव तुम्हें यहाँ नहीं रुकना चाहिए।
 
श्लोक 6:  अब तुम्हें चाहिए कि अपने निजी मित्रों तथा सम्बन्धियों से अपने सारे नाते त्याग कर, अपने मन को मुझ पर एकाग्र करो। इस तरह सदैव मेरी भावना से भावित होकर, तुम्हें सारी वस्तुओं को समान दृष्टि से देखना चाहिए और पृथ्वी-भर में विचरण करना चाहिए।
 
श्लोक 7:  हे उद्धव, तुम जिस ब्रह्माण्ड को अपने मन, वाणी, नेत्रों, कानों तथा अन्य इन्द्रियों से देखते हो वह भ्रामक सृष्टि है, जिसे माया के प्रभाव से मनुष्य वास्तविक मान लेता है। वास्तव में, तुम्हें यह जानना चाहिए कि भौतिक इन्द्रियों के सारे विषय क्षणिक हैं।
 
श्लोक 8:  जिसकी चेतना माया से मोहित होती है, वह भौतिक वस्तुओं के मूल्य तथा अर्थ में अनेक अन्तर देखता है। इस प्रकार वह भौतिक अच्छाई तथा बुराई के स्तर पर निरन्तर लगा रहता है और ऐसी धारणाओं से बँधा रहता है। भौतिक द्वैत में लीन रहते हुए, ऐसा व्यक्ति अनिवार्य कर्तव्यों की सम्पन्नता, ऐसे कर्तव्यों की असम्पन्नता तथा निषिद्ध कार्यों की सम्पन्नता के विषय में कल्पना करता रहता है।
 
श्लोक 9:  इसलिए अपनी सारी इन्द्रियों को वश में करते हुए तथा मन को दमन करके, तुम सारे जगत को आत्मा के भीतर स्थित देखो, जो सर्वत्र प्रसारित है। यही नहीं, तुम इस आत्मा को मुझ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के भीतर भी देखो।
 
श्लोक 10:  वेदों के निर्णायक ज्ञान से समन्वित होकर तथा व्यवहार में ऐसे ज्ञान के चरम उद्देश्य की अनुभूति करके, तुम शुद्ध आत्मा का अनुभव कर सकोगे और इस तरह तुम्हारा मन तुष्ट हो जायेगा। उस समय तुम देवतादि से लेकर सारे जीवों के प्रिय बन जाओगे और तब तुम जीवन के किसी भी उत्पात से रोके नहीं जाओगे।
 
श्लोक 11:  जो भौतिक अच्छाई तथा बुराई को लाँघ चुका होता है, वह स्वत: धार्मिक आदेशों के अनुसार कार्य करता है और वर्जित कार्यों से बचता है। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति यह सब अबोध बालक की तरह अपने आप करता है वरन् इसलिए नहीं कि वह भौतिक अच्छाई तथा बुराई के रूप में सोचता रहता है।
 
श्लोक 12:  जो व्यक्ति सारे जीवों का शुभैषी है, जो शान्त है और ज्ञान तथा विज्ञान में दृढ़ता से स्थिर है, वह सारी वस्तुओं को मेरे भीतर देखता है। ऐसा व्यक्ति फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में कभी नहीं पड़ता।
 
श्लोक 13:  श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, इस तरह भगवान् कृष्ण ने अपने शुद्ध भक्त उद्धव को उपदेश दिया, जो उनसे ज्ञान पाने के लिए उत्सुक थे। तत्पश्चात्, उद्धव ने भगवान् को नमस्कार किया और उनसे इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 14:  श्री उद्धव ने कहा : हे स्वामी, आप ही योगाभ्यास के फलों को देने वाले हैं और आप इतने कृपालु हैं कि अपने प्रभाव से आप अपने भक्त को योगसिद्धि वितरित करते हैं। इस तरह आप परमात्मा हैं, जिसकी अनुभूति योग द्वारा होती है और आप ही समस्त योगशक्ति के उद्गम हैं। आपने मेरे उच्चतम लाभ के लिए संन्यास या वैराग्य द्वारा भौतिक जगत त्यागने की विधि बतलाई है।
 
श्लोक 15:  हे प्रभु, हे परमात्मा, ऐसे लोगों के लिए, जिनके मन इन्द्रियतृप्ति में लिप्त रहते हैं और विशेषतया उनके लिए, जो आपकी भक्ति से वंचित हैं, भौतिक भोग को त्याग पाना अतीव कठिन है। ऐसा मेरा मत है।
 
श्लोक 16:  हे प्रभु, मैं स्वयं सबसे बड़ा मूर्ख हूँ, क्योंकि मेरी चेतना आपकी माया द्वारा निर्मित भौतिक देह तथा शारीरिक सम्बन्धों में लीन है। इस तरह मैं सोच रहा हूँ, “मैं यह शरीर हूँ और ये सारे सम्बन्धी मेरे हैं।” अतएव हे स्वामी, अपने इस दीन सेवक को उपदेश दें। कृपया मुझे बतायें कि मैं आपके आदेशों का किस तरह सरलता से पालन करूँ?
 
श्लोक 17:  हे प्रभु, आप परम सत्य भगवान् हैं और आप अपने भक्तों को अपना रूप दिखलाते हैं। मुझे आपके अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखता जो वास्तव में मुझे पूर्ण ज्ञान बतला सके। ऐसा पूर्ण शिक्षक स्वर्ग में देवताओं के बीच भी ढूँढ़े नहीं मिलता। निस्सन्देह ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त हैं। वे बद्धजीव हैं, जो अपने भौतिक शरीरों तथा शारीरिक अंशों को सर्वोच्च सत्य मान लेते हैं।
 
श्लोक 18:  अतएव हे स्वामी, भौतिक जीवन से ऊब कर तथा इसके दुखों से सताया हुआ मैं आपकी शरण में आया हूँ, क्योंकि आप पूर्ण स्वामी हैं। आप अनन्त, सर्वज्ञ भगवान् हैं, जिनका आध्यात्मिक निवास वैकुण्ठ में होने से समस्त उपद्रवों से मुक्त है। वस्तुत: आप समस्त जीवों के मित्र नारायण नाम से जाने जाते हैं।
 
श्लोक 19:  भगवान् ने उत्तर दिया : सामान्यतया वे मनुष्य, जो भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति का दक्षतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं, अपने आपको स्थूल भौतिक तृप्ति के अशुभ जीवन से ऊपर उठाने में समर्थ होते हैं।
 
श्लोक 20:  बुद्धिमान व्यक्ति, जो अपने चारों ओर के जगत का अनुभव करने तथा ठोस तर्क का प्रयोग करने में निपुण होता है, अपनी ही बुद्धि के द्वारा असली लाभ प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार कभी कभी मनुष्य अपना ही उपदेशक गुरु बन जाता है।
 
श्लोक 21:  मनुष्य-जीवन में जो लोग आत्मसंयमी हैं और सांख्य योग में दक्ष हैं, वे मुझे मेरी सारी शक्तियों समेत प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
 
श्लोक 22:  इस जगत में अनेक प्रकार के सृजित शरीर हैं—कुछ एक पाँव वाले, कुछ दो, तीन, चार या अधिक पाँवों वाले तथा अन्य बिना पाँव के हैं, किन्तु इन सबों में मनुष्य-रूप मुझे वास्तविक प्रिय है।
 
श्लोक 23:  यद्यपि मुझ भगवान् को सामान्य इन्द्रिय अनुभूति से कभी पकड़ा नहीं जा सकता, किन्तु मनुष्य-जीवन को प्राप्त लोग प्रत्यक्ष रूप से मेरी खोज करने के लिए प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष निश्चित लक्षणों द्वारा अपनी बुद्धि तथा अन्य अनुभूति-इन्द्रियों का उपयोग कर सकते हैं।
 
श्लोक 24:  इस सम्बन्ध में साधु-पुरुष अत्यन्त शक्तिशाली राजा यदु तथा एक अवधूत से सम्बद्ध एक ऐतिहासिक वार्ता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
 
श्लोक 25:  महाराज यदु ने एक बार किसी ब्राह्मण अवधूत को देखा, जो तरूण तथा विद्वान प्रतीत होता था और निर्भय होकर विचरण कर रहा था। आध्यात्मिक विज्ञान में अत्यन्त पारंगत होने के कारण राजा ने इस अवसर का लाभ उठाया और उसने इस प्रकार उससे पूछा।
 
श्लोक 26:  श्री यदु ने कहा : हे ब्राह्मण, मैं देख रहा हूँ कि आप किसी व्यावहारिक धार्मिक कृत्य में नहीं लगे हुए हैं, तो भी आपने इस जगत में सारी वस्तुओं तथा सारे लोगों की सही-सही जानकारी प्राप्त कर रखी है। हे महानुभाव, मुझे बतायें कि आपने यह असाधारण बुद्धि कैसे प्राप्त की है और आप सारे जगत में बच्चे की तरह मुक्त रूप से विचरण क्यों कर रहे हैं?
 
श्लोक 27:  सामान्यतया मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा आत्मा विषयक ज्ञान का अनुशीलन करने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। उनका सामान्य मन्तव्य अपनी आयु को बढ़ाना, यश अर्जित करना तथा भौतिक ऐश्वर्य का भोग करना रहता है।
 
श्लोक 28:  तथापि समर्थ, विद्वान, दक्ष, सुन्दर तथा सुस्पष्ट वक्ता होते हुए भी आप न तो कोई काम करने में लगे हैं, न ही आप किसी वस्तु की इच्छा करते हैं, प्रत्युत जड़वत तथा उन्मत्त प्रतीत होते हैं, मानो कोई पिशाच हो।
 
श्लोक 29:  यद्यपि भौतिक जगत में सारे लोग काम तथा लोभ की दावाग्नि में जल रहे हैं, किन्तु आप स्वतंत्र रह रहें हैं और उस अग्नि से जलते नहीं। आप उस हाथी के समान हैं, जो दावाग्नि से बचने के लिए गंगा नदी के जल के भीतर खड़े होकर आश्रय लिये हुये हो।
 
श्लोक 30:  हे ब्राह्मण, हम देखते हैं कि आप भौतिक भोग से किसी प्रकार के स्पर्श से रहित हैं और बिना किसी संगी या पारिवारिक सदस्य के अकेले ही भ्रमण कर रहे हैं। चुँकि हम निष्ठापूर्वक आपसे पूछ रहे है, इसलिए कृपा करके हमें अपने भीतर अनुभव किये जा रहे महान् आनन्द का कारण बतलायें।
 
श्लोक 31:  भगवान् कृष्ण ने कहा : ब्राह्मणों का सदैव आदर करने वाला बुद्धिमान राजा यदु अपना सिर झुकाये हुए प्रतीक्षा करता रहा और वह ब्राह्मण राजा की मनोवृत्ति से प्रसन्न होकर उत्तर देने लगा।
 
श्लोक 32:  ब्राह्मण ने कहा : हे राजन्, मैंने अपनी बुद्धि से अनेक गुरुओं की शरण ली है। उनसे दिव्य ज्ञान प्राप्त करने के बाद अब मैं मुक्त अवस्था में पृथ्वी पर विचरण करता हूँ। जिस रूप में मैं आपसे वर्णन करूँ, कृपा करके सुनें।
 
श्लोक 33-35:  हे राजन्, मैंने चौबीस गुरुओं की शरण ली है। ये हैं—पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतिंगा, मधुमक्खी, हाथी, मधु-चोर, हिरण, मछली, पिंगला वेश्या, कुररी पक्षी, बालक, तरुणी, बाण बनाने वाला, साँप, मकड़ी तथा बर्र। हे राजन्, इनके कार्यों का अध्ययन करके ही मैंने आत्म-ज्ञान सीखा है।
 
श्लोक 36:  हे महाराज ययाति के पुत्र, हे पुरुषों में व्याघ्र, सुनो, क्योंकि मैंने इन गुरुओं से, जो सीखा है, उसे तुम्हें बतला रहा हूँ।
 
श्लोक 37:  अन्य जीवों द्वारा सताये जाने पर भी धीर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि उसके उत्पीडक़ ईश्वर के अधीन होकर असहाय रूप से कर्म कर रहे हैं। इस तरह उसे कभी अपने पथ की प्रगति से विपथ नहीं होना चाहिए। मैंने पृथ्वी से यह नियम सीखा है।
 
श्लोक 38:  सन्त-पुरुष को पर्वत से सीखना चाहिए कि वह अपने सारे प्रयास अन्यों की सेवा में लगाये और अन्यों के कल्याण को अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बनाये। इसी तरह वृक्ष का शिष्य बनकर उसे स्वयं को अन्यों को समर्पित करना सीखना चाहिए।
 
श्लोक 39:  विद्वान मुनि को चाहिए कि वह अपने सादे जीवन-यापन में ही तुष्टि माने। वह भौतिक इन्द्रियों की तृप्ति के द्वारा तुष्टि की खोज न करे। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को अपने शरीर की परवाह इस तरह करनी चाहिए कि उसका उच्चतर ज्ञान विनष्ट न हो और उसकी वाणी तथा मन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलित न हों।
 
श्लोक 40:  यहाँ तक कि योगी भी ऐसी असंख्य भौतिक वस्तुओं से घिरा रहता है, जिनमें अच्छे तथा बुरे गुण पाये जाते हैं। किन्तु जिसने भौतिक अच्छाई तथा बुराई लाँघ ली है, उसे भौतिक वस्तुओं के सम्पर्क में रहते हुए भी, उनमें फँसना नहीं चाहिए, प्रत्युत उसे वायु की तरह कार्य करना चाहिए।
 
श्लोक 41:  इस जगत में स्वरूपसिद्ध आत्मा विविध भौतिक शरीरों में उनके विविध गुणों तथा कार्यों का अनुभव करते हुए रह सकता है, किन्तु वह उनमें कभी उलझता नहीं, जिस तरह कि वायु विविध सुगंधों को वहन करती है, किन्तु वह उनमें घुल-मिल नहीं जाती।
 
श्लोक 42:  भौतिक शरीर के भीतर रहते हुए भी विचारवान साधु को चाहिए कि वह अपने आपको शुद्ध आत्मा समझे। इसी तरह मनुष्य को देखना चाहिए कि आत्मा सभी प्रकार के सजीवों— चरों तथा अचरों के भीतर प्रवेश करता है और इस तरह व्यष्टि आत्मा सर्वव्यापी है। साधु को यह भी देखना चाहिए कि परमात्मा रूप में भगवान् एक ही समय सारी वस्तुओं के भीतर उपस्थित रहते हैं। आत्मा तथा परमात्मा को आकाश के स्वभाव से तुलना करके समझा जा सकता है। यद्यपि आकाश सर्वत्र फैला हुआ है और सारी वस्तुएँ आकाश के भीतर टिकी हैं किन्तु आकाश किसी भी वस्तु से न तो घुलता-मिलता है, न ही किसी वस्तु के द्वारा विभाजित किया जा सकता है।
 
श्लोक 43:  यद्यपि प्रबल वायु आकाश से होकर बादलों तथा झंझावातों को उड़ाती है, किन्तु आकाश इन कार्यों से कभी प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा भौतिक प्रकृति के स्पर्श से परिवर्तित या प्रभावित नहीं होती। यद्यपि जीव पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर में प्रवेश करता है और यद्यपि वह शाश्वत काल द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के द्वारा बाध्य किया जाता है, किन्तु उसका शाश्वत आध्यात्मिक स्वभाव कभी भी प्रभावित नहीं होता।
 
श्लोक 44:  हे राजन्, सन्त-पुरुष जल के सदृश होता है, क्योंकि वह कल्मषरहित, स्वभाव से मृदुल तथा बोलने में बहते जल की कलकल ध्वनि सदृश होता है। ऐसे सन्त-पुरुष के दर्शन, स्पर्श या श्रवण मात्र से ही जीव उसी तरह पवित्र हो जाता है, जिस तरह शुद्ध जल का स्पर्श करने से मनुष्य स्वच्छ हो जाता है। इस तरह सन्त-पुरुष तीर्थस्थान की तरह उन सबों को शुद्ध बनाता है, जो उसके सम्पर्क में आते हैं, क्योंकि वह सदैव भगवान् की महिमा का कीर्तन करता है।
 
श्लोक 45:  सन्त-पुरुष तपस्या करके शक्तिमान बनते हैं। उनकी चेतना अविचल रहती है क्योंकि वे भौतिक जगत की किसी भी वस्तु का भोग नहीं करना चाहते। ऐसे सहज मुक्त सन्त-पुरुष भाग्य द्वारा प्रदत्त भोजन को स्वीकार करते हैं और यदि कदाचित् दूषित भोजन कर भी लें तो उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता जिस तरह अग्नि उन दूषित वस्तुओं को जला देती है, जो उसमें डाली जाती हैं।
 
श्लोक 46:  सन्त-पुरुष अग्नि के ही समान, कभी प्रच्छन्न रूप में, तो कभी प्रकट रूप में दिखता है। असली सुख चाहने वाले बद्धजीवों के कल्याण हेतु सन्त-पुरुष गुरु का पूजनीय पद स्वीकार कर सकता है और इस तरह वह अग्नि के सदृश अपने पूजकों की बलियों को दयापूर्वक स्वीकार करके विगत तथा भावी पापों को भस्म कर देता है।
 
श्लोक 47:  जिस तरह अग्नि विभिन्न आकारों तथा गुणों वाले काष्ठ-खण्डों में भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती है, उसी तरह सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी शक्ति से उत्पन्न किये गये उच्च तथा निम्न योनियों के शरीरों में प्रवेश करके प्रत्येक के स्वरूप को ग्रहण करता प्रतीत होता है।
 
श्लोक 48:  जन्म से लेकर मृत्यु तक भौतिक जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ शरीर के गुणधर्म हैं और ये आत्मा को उसी तरह प्रभावित नहीं करतीं, जिस तरह चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाएँ चन्द्रमा को प्रभावित नहीं करतीं। ऐसे परिवर्तन काल की अव्यक्त गति द्वारा लागू किये जाते हैं।
 
श्लोक 49:  अग्नि की लपटें प्रतिक्षण प्रकट तथा लुप्त होती रहती हैं, और यह सृजन तथा विनाश सामान्य प्रेक्षकों द्वारा देखा नहीं जाता। इसी तरह काल की बलशाली लहरें नदी की प्रबल धाराओं की तरह निरन्तर बहती रहती हैं और अव्यक्त रूप से असंख्य भौतिक शरीरों को जन्म, वृद्धि तथा मृत्यु प्रदान करती रहती हैं। फिर भी आत्मा, जिसे निरन्तर अपनी स्थिति बदलनी पड़ती है, काल की करतूतों को देख नहीं पाता।
 
श्लोक 50:  जिस तरह सूर्य अपनी प्रखर किरणों से पर्याप्त मात्रा में जल को भाप बना कर उड़ा देता है और बाद में उस जल को वर्षा के रूप में पृथ्वी पर लौटा देता है, उसी तरह सन्त-पुरुष अपनी भौतिक इन्द्रियों से सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं को स्वीकार करता है और जब सही व्यक्ति उन्हें लौटवाने के लिए उसके पास जाता है, तो उन भौतिक वस्तुओं को वह लौटा देता है। इस तरह वह इन्द्रिय-विषयों को स्वीकारने तथा त्यागने दोनों में ही फँसता नहीं।
 
श्लोक 51:  विविध वस्तुओं से परावर्तित होने पर भी सूर्य न तो कभी विभक्त होता है, न अपने प्रतिबिम्ब में लीन होता है। जो मन्द बुद्धि वाले हैं, वे ही सूर्य के विषय में ऐसा सोचते हैं। इसी प्रकार आत्मा विभिन्न भौतिक शरीरों से प्रतिबिम्बित होते हुए भी अविभाजित तथा अभौतिक रहता है।
 
श्लोक 52:  मनुष्य को चाहिए कि किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के लिए अत्यधिक स्नेह या चिन्ता न करे। अन्यथा उसे महान् दुख भोगना पड़ेगा, जिस तरह कि मूर्ख कबूतर भोगता है।
 
श्लोक 53:  एक कबूतर था, जो अपनी पत्नी के साथ जंगल में रहता था। उसने एक वृक्ष के भीतर अपना घोंसला बनाया और कबूतरी के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहता रहा।
 
श्लोक 54:  कबूतर का यह जोड़ा अपने गृहस्थ कार्यों के प्रति अत्यधिक समर्पित था। उनके हृदय भावनात्मक स्नेह से परस्पर बँधे थे, वे एक-दूसरे की चितवनों, शारीरिक गुणों तथा मन की अवस्थाओं से आकृष्ट थे। इस तरह उन्होंने एक-दूसरे को स्नेह से पूरी तरह बाँध रखा था।
 
श्लोक 55:  भविष्य पर निश्छल भाव से विश्वास करते हुए वे प्रेमी युगल की भाँति जंगल के वृक्षों के बीच लेटते, बैठते, चलते-फिरते, खड़े होते, बातें करते, खेलते, खाते-पीते रहे।
 
श्लोक 56:  हे राजन्, जब भी कबूतरी को किसी वस्तु की इच्छा होती, तो वह अपने पति की चाटुकारिता करके उसे बाध्य करती और वह स्वयं भारी मुश्किलें उठाकर भी उसे तृप्त करने के लिए वही करता, जो वह चाहती थी। इस तरह वह उसके संग में अपनी इन्द्रियों पर संयम नहीं रख सका।
 
श्लोक 57:  तत्पश्चात्, कबूतरी को पहले गर्भ का अनुभव हुआ। जब समय आ गया, तो उस साध्वी कबूतरी ने अपने पति की उपस्थिति में घोंसले में कई अंडे दिये।
 
श्लोक 58:  जब समय पूरा हो गया, तो उन अंडों से भगवान् की अचिन्त्य शक्तियों से निर्मित मुलायम अंगो तथा पंखों के साथ बच्चे उत्पन्न हुए।
 
श्लोक 59:  कबूतर का यह जोड़ा अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल बन गया और उनकी अढपटी चहचहाहट को सुनकर अत्यन्त हर्षित होता, क्योंकि उन माता-पिता को यह अतीव मधुर लगती। इस तरह वह जोड़ा उन छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करने लगा।
 
श्लोक 60:  यें माता-पिता अपने पक्षी बच्चों के मुलायम पंखों, उनकी चहचहाहट, घोंसले के आसपास उनकी कूद-फाँद करना, उनका उछलने और उडऩे का प्रयास करना देखकर अत्यन्त हर्षित हुए। अपने बच्चों को सुखी देखकर माता-पिता भी सुखी थे।
 
श्लोक 61:  स्नेह से बँधे हुए हृदयों वाले ये मूर्ख पक्षी भगवान् विष्णु की माया द्वारा पूर्णत: मोहग्रस्त होकर अपने छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन करते रहे।
 
श्लोक 62:  एक दिन परिवार के दोनों मुखिया अपने बच्चों के लिए भोजन तलाश करने बाहर चले गये। अपने बच्चों को ठीक से खिलाने की चिन्ता में वे काफी समय तक पूरे जंगल में विचरते रहे।
 
श्लोक 63:  उस समय संयोगवश जंगल में विचरण करते हुए किसी बहेलिये ने कबूतर के इन बच्चों को उनके घोंसले के निकट विचरते हुए देखा। उसने अपना जाल फैलाकर उन सबों को पकड़ लिया।
 
श्लोक 64:  कबूतर तथा उसकी पत्नी अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए सदैव चिन्तित रहते थे और इसी उद्देश्य से वे जंगल में भटकते रहे थे। समुचित अन्न पाकर अब वे अपने घोंसले पर लौट आये।
 
श्लोक 65:  जब कबूतरी ने अपने बच्चों को बहेलिये के जाल में फँसे देखा, तो वह व्यथा से अभिभूत हो गई और चिल्लाती हुई उनकी ओर दौड़ी। वे बच्चे भी उसके लिए चिल्लाने लगे।
 
श्लोक 66:  चूँकि कबूतरी ने अपने को गहन स्नेह के बन्धन से सदा बाँध रखा था, इसलिए उसका मन व्यथा से विहल था। भगवान् की माया के चंगुल में होने से, वह अपने को पूरी तरह भूल गई और अपने असहाय बच्चों की ओर दौड़ती हुई, वह भी तुरन्त बहेलिये के जाल में बँध गई।
 
श्लोक 67:  अपने प्राणों से भी प्यारे अपने बच्चों को तथा साथ में अपने ही समान अपनी पत्नी को बहेलिये के जाल में बुरी तरह बँधा देखकर बेचारा कबूतर दुखी होकर विलाप करने लगा।
 
श्लोक 68:  कबूतर ने कहा : हाय! देखो न, मैं किस तरह बरबाद हो गया हूँ। स्पष्ट है कि मैं महामूर्ख हूँ, क्योंकि मैंने समुचित पुण्यकर्म नहीं किये। न तो मैं अपने को संतुष्ट कर सका, न ही मैं जीवन के लक्ष्य को पूरा कर सका। मेरा प्रिय परिवार, जो मेरे धर्म, अर्थ तथा काम का आधार था, अब बुरी तरह नष्ट हो गया।
 
श्लोक 69:  “मैं तथा मेरी पत्नी आदर्श जोड़ा थे। वह सदैव मेरी आज्ञा का पालन करती थी और मुझे अपने पूज्य देवता की तरह मानती थी, किन्तु अब वह अपने बच्चों को नष्ट हुआ और अपने घर को रिक्त देखकर मुझे छोड़ गई और हमारे सन्त स्वभाव वाले बच्चों के साथ स्वर्ग चली गई।”
 
श्लोक 70:  अब मैं विरान घर में रहने वाला दुखी व्यक्ति हूँ। मेरी पत्नी मर चुकी है, मेरे बच्चे मर चुके हैं। मैं भला क्यों जीवित रहना चाहूँ? मेरा हृदय अपने परिवार के विछोह से इतना पीडि़त है कि मेरा जीवन मात्र कष्ट बनकर रह गया है।
 
श्लोक 71:  जब पिता कबूतर अपने बेचारे बच्चों को जाल में बँधा और मृत्यु के कगार पर दीन भाव से उन्हें अपने को छुड़ाने के लिए करुणावस्था में संघर्ष करते देख रहा था, तो उसका मस्तिष्क शून्य हो गया और वह स्वयं भी बहेलिए के जाल में गिर पड़ा।
 
श्लोक 72:  वह निष्ठुर बहेलिया उस कबूतर को, उसकी पत्नी को तथा उनके सारे बच्चों को पकड़ कर अपनी इच्छा पूरी करके अपने घर के लिए चल पड़ा।
 
श्लोक 73:  इस तरह जो व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में अत्यधिक अनुरक्त रहता है, वह हृदय में क्षुब्ध रहता है। कबूतर की ही तरह वह संसारी यौन-आकर्षण में आनन्द ढूँढता रहता है। अपने परिवार का पालन-पोषण करने में बुरी तरह व्यस्त रहकर कंजूस व्यक्ति अपने परिवार वालों के साथ अत्यधिक कष्ट भोगता है।
 
श्लोक 74:  जिसने मनुष्य-जीवन पाया है, उसके लिए मुक्ति के द्वार पूरी तरह से खुले हुए हैं। किन्तु यदि मनुष्य इस कथा के मूर्ख पक्षी की तरह अपने परिवार में ही लिप्त रहता है, तो वह ऐसे व्यक्ति के समान है, जो ऊँचे स्थान पर केवल नीचे गिरने के लिए ही चढ़ा हो।
 
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