यहाँ पर छलछद्म से युक्त राजनीतिक दावपेंच का जो वर्णन है, वह कलियुग का लक्षण है। इस ग्रंथ के नवें स्कन्ध में शुकदेव गोस्वामी ने वर्णन किया है कि सूर्य तथा चन्द्र—इन दो राजवंशों में किस तरह महान् शासक अवतरित हुए। नवें स्कन्ध में ईश्वर के प्रसिद्ध अवतार भगवान् रामचन्द्र का वर्णन इसी वंशावली में आता है और नवें स्कन्ध के अन्त में शुकदेवजी भगवान् कृष्ण तथा बलराम के पूर्वजों का वर्णन करते हैं। अन्त में चन्द्रवंश के प्रसंग में कृष्ण तथा बलराम के आविर्भाव का उल्लेख हुआ है। दशम स्कन्ध में भगवान् कृष्ण की बाल लीलाओं का वृन्दावन में, कौमार लीलाओं का मथुरा में और कैशोर लीलाओं का द्वारका में वर्णन हुआ है। सुप्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में भी इसी काल की घटनाओं का वर्णन हुआ है, जिसमें पाँचों पाण्डवों तथा कृष्ण एवं भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य एवं विदुर जैसे ऐतिहासिक महापुरुषों के कार्यकलापों पर ध्यान एकाग्र किया गया है। महाभारत में ही भगवद्गीता सन्निहित है, जिसमें भगवान् कृष्ण को परब्रह्म घोषित किया गया है। श्रीमद्भागवत को जिसके बारहवें तथा अन्तिम स्कन्ध का हम अब प्रस्तुत कर रहे हैं, महाभारत से उच्चतर ग्रंथ माना जाता है क्योंकि पूरे ग्रंथ में परम ब्रह्म, भगवान् श्रीकृष्ण, का मुख्य रूप से तथा निर्विवाद रूप से उद्धाटन हुआ है। वस्तुत: भागवत के प्रथम स्कन्ध में इसका वर्णन हुआ है कि श्री व्यासदेव ने इस महान् ग्रंथ की कैसे रचना की क्योंकि वे महाभारत में भगवान् श्रीकृष्ण के छुटपुट महिमा-गायन से असन्तुष्ट थे।
यद्यपि श्रीमद्भागवत में अनेक राजवंशों के इतिहासों तथा असंख्य राजाओं की जीवनीयों का वर्णन मिलता है, किन्तु कलियुग का वर्णन आने तक हमें कोई ऐसा मंत्री नहीं मिलता जो अपने ही राजा की हत्या करके अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ कर दे। यह घटना धृतराष्ट्र द्वारा पाण्डवों की हत्या के प्रयास और अपने पुत्र दुर्योधन को राज-मुकुट देने के ही समान है। जैसाकि महाभारत में बतलाया गया है, भगवान् कृष्ण ने इस प्रयास को विफल कर दिया किन्तु भगवान् के वैकुण्ठ प्रयाण के साथ ही कलियुग पूरी तरह से प्रकट हुआ और अपने ही घर में उसने राजनीतिक हत्या को आदर्श विधि के रूप में मान्यता दे डाली।