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अध्याय 10: शिव तथा उमा द्वारा मार्कण्डेय ऋषि का गुणगान
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में श्री सूत गोस्वामी ने वर्णन किया है कि किस तरह मार्कण्डेय ऋषि को शिव से वर मिले।
एक बार जब शिवजी अपनी पत्नी पार्वती समेत आकाश से होकर यात्रा कर रहे... |
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श्लोक 1: सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् नारायण ने अपनी मोहमयी शक्ति का यह ऐश्वर्यशाली प्रदर्शन नियोजित किया था। इसका अनुभव करके मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान् की शरण ग्रहण की। |
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श्लोक 2: श्री मार्कण्डेय ने कहा : हे भगवान् हरि, मैं आपके उन चरणकमलों के तलवों की शरण ग्रहण करता हूँ जो उनकी शरण ग्रहण करने वालों को अभय दान देते हैं। बड़े-बड़े देवता भी आपकी माया से जो ज्ञान के वेश में उनके समक्ष प्रकट होती है, मोहित रहते हैं। |
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श्लोक 3: सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् रुद्र ने अपने बैल पर सवार अपनी प्रिया रुद्राणी तथा अपने निजी संगियों के साथ, मार्कण्डेय को समाधि में देखा। |
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श्लोक 4: ऋषि को देख कर देवी उमा ने भगवान् गिरिश से कहा, “हे प्रभु, जरा इस विद्वान ब्राह्मण को, उसके शरीर, मन तथा इन्द्रियों को समाधि में अचल हुए, देखो।” |
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श्लोक 5: वह उस समुद्र के जल की तरह शान्त है जब वायु बन्द हो जाती है और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं। इसलिए हे प्रभु, चूँकि आप तपस्या करने वाले को सिद्धि प्रदान करते हैं, इसलिए इस ऋषि को सिद्धि प्रदान करें जोकि उसे मिलनी चाहिए। |
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श्लोक 6: शिवजी ने उत्तर दिया : निश्चय ही, यह सन्त ब्राह्मण किसी वर की यहाँ तक कि मोक्ष तक की भी कामना नहीं करता क्योंकि इसने भगवान् अव्यय की शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है। |
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श्लोक 7: तो भी हे भवानी, चलो हम इस सन्त पुरुष से बातें करें। आखिर सन्त भक्तों की संगति मनुष्य की सर्वोच्च उपलब्धि है। |
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श्लोक 8: सूत गोस्वामी ने कहा : इस तरह कहने के बाद, शुद्धात्माओं के आश्रय, समस्त आध्यात्मिक विद्याओं के स्वामी तथा समस्त देहधारी जीवों के नियन्ता भगवान् शंकर उस ऋषि के पास गये। |
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श्लोक 9: चूँकि मार्कण्डेय का भौतिक मन कार्य करना बन्द कर चुका था अतएव वे ब्रह्माण्ड के नियन्ता शिव तथा उनकी पत्नी का आना देख नहीं पाये, जो स्वयं उन्हें देखने आये थे। मार्कण्डेय ध्यान में इतने लीन थे कि उन्हें अपनी या बाह्य जगत की कोई सुधि-बुधि नहीं थी। |
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श्लोक 10: स्थिति से भलीभाँति परिचित होने पर, शक्तिमान भगवान् शिव ने मार्कण्डेय के हृदय- आकाश के भीतर प्रविष्ट होने के लिए अपनी योगशक्ति का प्रयोग किया जिस तरह वायु छेद में से प्रवेश कर जाती है। |
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श्लोक 11-13: श्री मार्कण्डेय ने सहसा भगवान् शिव को अपने हृदय के भीतर प्रकट हुए देखा। शिवजी के सुनहरे केश बिजली के समान थे। उनके तीन नेत्र, दस भुजाएँ तथा ऊँचा शरीर था, जो उदय हो रहे सूर्य की तरह चमक रहा था। वे व्याघ्र चर्म पहने थे और त्रिशूल, धनुष, बाण, तलवार तथा ढाल लिये थे। वे जपमाला, डमरू, कपाल तथा परशु भी लिए थे। मुनि ने चकित होकर अपनी समाधि तोड़ दी और सोचा, “यह कौन है और कहाँ से आया है?” |
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श्लोक 14: अपनी आँखें खोल कर मुनि ने तीनों जगत के गुरु भगवान् रुद्र को उमा तथा उनके गणों समेत देखा। तब मार्कण्डेय ने सिर के बल झुक कर उन्हें सादर नमस्कार किया। |
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श्लोक 15: मार्कण्डेय ने उमा तथा शिव के गणों समेत भगवान् शिव की पूजा स्वागत के शब्दों, आसन, उनके पाँव धोने के लिए जल, सुगंधित पीने के पानी, सुगन्धित तेल, फूल-मालाओं तथा आरती के दीपक द्वारा की। |
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श्लोक 16: मार्कण्डेय ने कहा : हे विभु, मैं आपके लिए, जो अपने ही आनन्द में सदैव तुष्ट रहने वाले हैं, क्या कर सकता हूँ? निस्सन्देह, आप अपनी कृपा से इस सारे जगत को तुष्ट करते हैं। |
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श्लोक 17: हे सर्वमंगलकारी दिव्य पुरुष, मैं बारम्बार आपको नमस्कार करता हूँ। सतोगुण के स्वामी के रूप में आप आनन्द के दाता हैं, रजोगुण के सम्पर्क में आप अत्यन्त भयावने लगते हैं और तमोगुण से भी आप सान्निध्य रखते हैं। |
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श्लोक 18: सूत गोस्वामी ने कहा : देवताओं में अग्रणी तथा साधु भक्तों के आश्रय रूप भगवान् शिव, मार्कण्डेय की स्तुति से तुष्ट हो गए। प्रसन्न होने के कारण वे हँसने लगे और मुनि से बोले। |
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श्लोक 19: शिवजी ने कहा : तुम मुझसे कोई वर माँगो क्योंकि वर देने वालों में से हम तीन— ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं—सर्वश्रेष्ठ हैं। हमारा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि हमारे दर्शन मात्र से मर्त्य प्राणी अमरता प्राप्त कर लेता है। |
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श्लोक 20-21: ब्रह्मा, हरि तथा मुझ समेत सारे लोकों के निवासी तथा शासन करने वाले देवता उन ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा तथा सहायता करते हैं, जो सन्त स्वभाव के, सदैव शान्त, भौतिक आसक्ति से रहित, समस्त जीवों पर दयालु, हमारे प्रति शुद्ध भक्ति से युक्त, घृणा से रहित एवं समदृष्टि से युक्त होते हैं। |
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श्लोक 22: ये भक्तगण भगवान् विष्णु, ब्रह्मा तथा मुझमें अन्तर नहीं करते, न ही वे अपने तथा अन्य जीवों के बीच अन्तर करते हैं। तुम इसी तरह के सन्त भक्त हो, इसलिए हम तुम्हारी पूजा करते हैं। |
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श्लोक 23: मात्र जलाशय तीर्थस्थान नहीं होते, न ही देवताओं की निर्जीव मूर्तियाँ वास्तविक पूज्य अर्चाविग्रह होती हैं। चूँकि बाह्य दृष्टि पवित्र नदियों तथा देवताओं के उच्च आशय को समझ नहीं पाती, इसलिए ये दीर्घकाल बाद ही पवित्र बना पाते हैं। किन्तु तुम जैसे भक्त, दर्शन मात्र से, पवित्र कर देते हो। |
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श्लोक 24: परमात्मा का ध्यान करके, तपस्या करके, वेदाध्ययन करके तथा विधि-विधानों का पालन करके, ब्राह्मणजन अपने भीतर तीनों वेदों को, जोकि विष्णु, ब्रह्मा तथा मुझसे अभिन्न हैं, धारण करते हैं। इसलिए मैं ब्राह्मणों को नमस्कार करता हूँ। |
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श्लोक 25: अधम से अधम पापी तथा अछूत भी तुम जैसे पुरुषों का श्रवण करने या दर्शन करने से शुद्ध बन जाते हैं। तब जरा कल्पना करो कि सीधे तुमसे बात करने से वे कितने शुद्ध बन जाते हैं? |
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श्लोक 26: सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् शिव के अमृत तुल्य शब्दों को, जोकि धर्म के गुह्य सार से पूरित थे, अपने कानों से पीते हुए मार्कण्डेय ऋषि तुष्ट नहीं हुए। |
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श्लोक 27: भगवान् विष्णु की माया द्वारा प्रलय के जल में दीर्घकाल तक भटकाये गये होने के कारण मार्कण्डेय अत्यधिक थक चुके थे। किन्तु शिवजी के अमृत तुल्य शब्दों से उनका संचित क्लेश नष्ट हो गया। अत: वे शिवजी से बोले। |
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श्लोक 28: श्री मार्कण्डेय ने कहा : देहधारी जीवों के लिए ब्रह्माण्ड के नियन्ताओं की लीलाओं को समझ पाना सबसे कठिन है क्योंकि ऐसे प्रभु अपने ही द्वारा शासित जीवों को सिर झुकाते तथा उनकी स्तुति करते हैं। |
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श्लोक 29: सामान्यतया देहधारी जीवों को धार्मिक सिद्धान्त स्वीकार करने के लिए प्रेरित करने के लिए ही प्रामाणिक धर्माचार्य, अन्यों को प्रोत्साहित करके तथा उनके आचरण की प्रशंसा करके, आदर्श आचरण प्रदर्शित करते हैं। |
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श्लोक 30: यह ऊपरी विनयशीलता दया का दिखावा मात्र है। भगवान् तथा उनके संगियों का ऐसा आचरण, जिसे भगवान् अपनी मोहिनी शक्ति से दिखलाते हैं, उनकी शक्ति को नहीं बिगाड़ता जिस तरह जादूगर की शक्तियाँ जादूगरी की करामातें दिखाने से घटती नहीं। |
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श्लोक 31-32: मैं उन भगवान् को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपनी इच्छा मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि की और फिर जो उसमें परमात्मा रूप में प्रविष्ट हो गये। वे प्रकृति के गुणों को क्रियमाण बनाकर इस जगत के प्रत्यक्ष स्रष्टा प्रतीत होते हैं जिस तरह स्वप्न देखने वाला अपने स्वप्न के भीतर कर्म करता प्रतीत होता है। वे प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी और परम नियन्ता हैं, फिर भी वे पृथक् रहते हैं और शुद्ध तथा अद्वितीय हैं। वे सबों के परम गुरु तथा परब्रह्म के आदि साकार रूप हैं। |
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श्लोक 33: हे सर्वव्यापक प्रभु, चूँकि मुझे आपका दर्शन करने का वर प्राप्त हो चुका है, इसलिए मैं आपसे अन्य किस वर की याचना करूँ? केवल आपका दर्शन करने से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं और वह कोई भी कल्पित कार्य संपन्न कर सकता है। |
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श्लोक 34: किन्तु मैं आपसे एक वर माँगता हूँ क्योंकि आप समस्त सिद्धि से पूर्ण हैं और समस्त इच्छाओं की पूर्ति की वर्षा करने में समर्थ हैं। मैं आपसे भगवान् की तथा उनके समर्पित भक्तों की, विशेष रूप से आपकी, अच्युत भक्ति के लिए याचना करता हूँ। |
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श्लोक 35: सूत गोस्वामी ने कहा : मुनि मार्कण्डेय के वाक्पटु कथनों द्वारा पूजित तथा प्रशंसित भगवान् शर्व (शिव) ने अपनी प्रिया द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर उनसे इस प्रकार कहा। |
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श्लोक 36: हे महर्षि, तुम भगवान् अधोक्षज के प्रति अनुरक्त हो, इसलिए तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरी होंगी। इस सृष्टि चक्र के अन्त तक तुम पवित्र यश तथा वृद्धावस्था एवं मृत्यु से मुक्ति का भोग करोगे। |
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श्लोक 37: हे ब्राह्मण, तुम्हें भूत, वर्तमान तथा भविष्य का पूर्ण ज्ञान और उसी के साथ वैराग्य से युक्त ब्रह्म की दिव्य अनुभूति प्राप्त हो। तुम्हारे पास आदर्श ब्राह्मण का तेज है, जिससे तुम पुराणों के आचार्य का पद पा सको। |
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श्लोक 38: सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि को वर देकर शिवजी अपने मार्ग में देवी पार्वती से ऋषि की उपलब्धियों का तथा उनके द्वारा अनुभव की गई भगवान् की माया के प्रत्यक्ष प्रदर्शन का वर्णन करते चले गये। |
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श्लोक 39: श्रेष्ठ भृगुवंशी मार्कण्डेय ऋषि अपनी योग-सिद्धि की उपलब्धि के कारण यशस्वी हैं। आज भी वे इस जगत में भगवान् की अनन्य भक्ति में पूरी तरह लीन होकर विचरण करते हैं। |
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श्लोक 40: इस तरह मैंने तुमसे अत्यन्त बुद्धिमान ऋषि मार्कण्डेय के कार्यकलापों का, विशेष रूप से जिस तरह उन्होंने भगवान् की माया की अद्भुत शक्ति का अनुभव किया, वर्णन कर दिया। |
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श्लोक 41: यद्यपि यह घटना अद्वितीय तथा अभूतपूर्व थी, किन्तु कुछ अज्ञानी लोग इसकी तुलना बद्धजीवों के लिए भगवान् द्वारा रचित मायामय जगत के चक्र से करते हैं—ऐसा अन्तहीन चक्र जो अनन्त काल से चल रहा है। |
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श्लोक 42: हे श्रेष्ठ भृगुवंशी, मार्कण्डेय ऋषि से सम्बन्धित यह विवरण भगवान् की दिव्य शक्ति को बताने वाला है। जो कोई इसका ठीक से वर्णन करता है या इसे सुनता है, उसे सकाम कर्म करने की इच्छा पर आधारित भौतिक जगत में फिर से नहीं आना होगा। |
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