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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 11: महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  12.11.16 
इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम् ।
तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम् ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; शरान्—उनके तीर; आहु:—कहते हैं; आकूती:—(मन अपने) सक्रिय कर्म सहित; अस्य—उनका; स्यन्दनम्—रथ; तत्-मात्राणि—अनुभूति की वस्तुएँ; अस्य—उनका; अभिव्यक्तिम्—बाह्य स्वरूप; मुद्रया—हाथ के इशारों द्वारा (वर देने, अभय देने आदि के लिए); अर्थ-क्रिया-आत्मताम्—सार्थक क्रिया का सार ।.
 
अनुवाद
 
 उनके बाण इन्द्रियाँ हैं और उनका रथ चंचल वेगवान मन है। उनका बाह्य स्वरूप तन्मात्राएँ हैं और उनके हाथ के इशारे (मुद्राएँ) सार्थक क्रिया के सार हैं।
 
तात्पर्य
 समस्त क्रिया का लक्ष्य अन्तत: जीवन की परम सिद्धि है और यह सिद्धि भगवान् के कृपालु हाथों द्वारा प्रदान की जाती है। भगवान् की मुद्राएँ भक्त के हृदय से सारा भय दूर करके उसे वैकुण्ठ में भगवान् का सान्निध्य दिलाने वाली होती हैं।
 
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