उनके बाण इन्द्रियाँ हैं और उनका रथ चंचल वेगवान मन है। उनका बाह्य स्वरूप तन्मात्राएँ हैं और उनके हाथ के इशारे (मुद्राएँ) सार्थक क्रिया के सार हैं।
तात्पर्य
समस्त क्रिया का लक्ष्य अन्तत: जीवन की परम सिद्धि है और यह सिद्धि भगवान् के कृपालु हाथों द्वारा प्रदान की जाती है। भगवान् की मुद्राएँ भक्त के हृदय से सारा भय दूर करके उसे वैकुण्ठ में भगवान् का सान्निध्य दिलाने वाली होती हैं।
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