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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 11: महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  12.11.20 
अनपायिनी भगवती श्री: साक्षादात्मनो हरे: ।
विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदित: पार्षदाधिप: ।
नन्दादयोऽष्टौ द्वा:स्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणा: ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
अनपायिनी—पृथक् न की जा सकने वाली; भगवती—लक्ष्मी; श्री:—श्री; साक्षात्—प्रत्यक्ष; आत्मन:—अन्तरंगा प्रकृति का; हरे:—हरि का; विष्वक्सेन:—विष्वक्सेन; तन्त्र-मूर्ति:—तंत्र शास्त्रों के रूप में; विदित:—ज्ञात है; पार्षद-अधिप:— उनके निजी संगियों का प्रधान; नन्द-आदय:—नन्द इत्यादि; अष्टौ—आठ; द्वा:-स्था:—द्वारपाल; —तथा; ते—वे; अणिमा-आद्या:—अणिमा तथा अन्य सिद्धियाँ; हरे:—भगवान् के; गुणा:—गुण ।.
 
अनुवाद
 
 भगवती श्री, जो भगवान् का संग कभी नहीं छोड़तीं, उनके साथ उनकी अन्तरंगा शक्ति के रूप में इस जगत में प्रकट होती हैं। विष्वक्सेन जोकि भगवान् के निजी संगियों में प्रमुख हैं, पंचरात्र तथा अन्य तंत्रों के रूप में विख्यात हैं। और नन्द आदि भगवान् के आठ द्वारपाल उनकी अणिमादिक योगसिद्धियाँ हैं।
 
तात्पर्य
 श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार लक्ष्मीजी समस्त ऐश्वर्य की आदि स्रोत हैं। भौतिक प्रकृति का नियंत्रण भगवान् की अपरा शक्ति, महामाया, द्वारा होता है, जबकि लक्ष्मीजी उनकी अन्तरंगा परा शक्ति हैं। फिर भी, भगवान् की अपरा प्रकृति के ऐश्वर्य का स्रोत लक्ष्मी का परम आध्यात्मिक ऐश्वर्य है। श्री हयशीर्ष पञ्चरात्र में कहा गया है—

परमात्मा हरिर्देवस्तच्छक्ति: श्रीरिहोदिता।

श्रीर्देवी प्रकृति: प्रोक्ता केशव: पुरुष: स्मृत:।

न विष्णुना विना देवी न हरि: पद्मजां विना।

“परमात्मा भगवान् हरि हैं और उनकी शक्ति इस जगत में श्री कहलाती है। देवी श्री प्रकृति के नाम से विख्यात हैं और परम भगवान् केशव पुरुष नाम से विख्यात हैं। यह दिव्य देवी न तो उनके बिना कभी रहती हैं न ही वे उनके बिना कभी प्रकट होते हैं।”

श्री विष्णु पुराण में भी (१.८.१५) कहा गया है—

नित्यैव स जगन्माता विष्णो: श्रीरनपायिनी।

यथा सर्वगतो विष्णुस्तथैवेयं द्विजोत्तमा: ॥

“वे ब्रह्माण्ड की शाश्वत माता, भगवान् विष्णु की लक्ष्मी हैं और वे उनसे कभी भी पृथक् नहीं होतीं। हे ब्राह्मण-श्रेष्ठो! भगवान् विष्णु की ही तरह वे भी सर्वत्र उपस्थित हैं।” विष्णु पुराण में ही (१.९.१४०) आया है—

एवं यथा जगत्स्वामी देवदेवो जनार्दन:।

अवतारं करोत्येव तथा श्रीस्तत्सहायिनी ॥

“जिस तरह ईश्वरों के ईश्वर, ब्रह्माण्ड के स्वामी जनार्दन इस जगत में अवतरित होते हैं, उसी तरह उनकी प्रिया लक्ष्मी भी अवतरित होती हैं।”

स्कन्द पुराण में लक्ष्मीजी के शुद्ध आध्यात्मिक पद का वर्णन मिलता है—

अपरं त्वक्षरं या सा प्रकृतिर्जडरूपिका।

श्री: परा प्रकृति: प्रोक्ता चेतना विष्णुसंश्रया ॥

तं अक्षरं परं प्राहु: परत: परम् अक्षरम्।

हरिरेवाखिलगुणोऽपि अक्षरत्रयमीरितम् ॥

“अपर अक्षर वह प्रकृति है, जो भौतिक जगत के रूप में प्रकट होती है। किन्तु लक्ष्मीजी परा प्रकृति कहलाती हैं। वे शुद्ध चेतना हैं और भगवान् विष्णु की प्रत्यक्ष शरण में रहती हैं। यद्यपि वे परा अच्युता कहलाती हैं किन्तु बड़े से बड़े अच्युत स्वयं भगवान् हरि हैं, जो समस्त दिव्य गुणों के आदि स्वामी हैं। इस तरह तीन स्पष्ट अच्युत वर्णित हैं।”

इस तरह यद्यपि भगवान् की अपरा शक्ति अपने कार्य में अच्युत है किन्तु क्षणिक मायामय ऐश्वर्यों को प्रदर्शित करने की उसकी शक्ति परमेश्वर की प्रिया लक्ष्मी, जोकि अन्तरंगा शक्ति हैं, की सौजन्य से विद्यमान है।

पद्म पुराण (२५६.९-२१) में भगवान् के अठारह द्वारपालों की सूची प्राप्त है—नन्द, सुनन्द, जय, विजय, चण्ड, प्रचण्ड, भद्र, सुभद्र, धाता, विधाता, कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक्ष, वामन, शंकुकर्ण, सर्वनेत्र, सुमुख तथा सुप्रतिष्ठित।

 
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