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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 11: महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  12.11.22 
स विश्वस्तैजस: प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभि: ।
अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान् परिभाव्यते ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; विश्व: तैजस: प्राज्ञ:—जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त रूप; तुरीय:—चौथी, दिव्य अवस्था; इति—इस तरह कहे गये; वृत्तिभि:—कार्यों द्वारा; अर्थ—इन्द्रिय-विषय; इन्द्रिय—मन; आशय—आवृत चेतना; ज्ञानै:—तथा आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा; भगवान्—भगवान्; परिभाव्यते—कल्पित किये जाते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य भगवान् की कल्पना जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त अवस्थाओं में कर सकता है, जो क्रमश: बाह्य वस्तुओं, मन तथा भौतिक बुद्धि के माध्यम से कार्य करती हैं। एक चौथी अवस्था भी है, जो चेतना का दिव्य स्तर है और शुद्ध ज्ञान के लक्षण वाली है।
 
 
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