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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 11: महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  12.11.23 
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम् ।
बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान् हरिरीश्वर: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
अङ्ग—अपने प्रमुख अंगों; उपाङ्ग—गौण अंगों; आयुध—हथियारों; आकल्पै:—तथा आभूषणों से; भगवान्—भगवान्; तत् चतुष्टयम्—ये चार स्वरूप (विश्व, तैजस, प्राज्ञ तथा तुरीय); बिभर्ति—धारण करता है; स्म—निस्सन्देह; चतु:- मूर्ति:—अपने चार साकार रूपों (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध); भगवान्—भगवान्; हरि:—हरि; ईश्वर:— परम नियन्ता ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार भगवान् हरि चार साकार अंशों (मूर्तियों) के रूप में प्रकट होते हैं जिनमें से हर अंश प्रमुख अंग, गौण अंग, आयुध तथा आभूषण से युक्त होता है। इन स्पष्ट स्वरूपों से भगवान् चार अवस्थाओं को बनाये रखते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् का आध्यात्मिक शरीर, आयुध, आभूषण तथा संगी—ये सभी शुद्ध और दिव्य हैं और उनसे अभिन्न हैं।
 
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