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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 11: महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  12.11.24 
द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनि: स्वयंद‍ृक्
स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत् ।
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो
विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्य: ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
द्विज-ऋषभ—हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ; स: एष:—एकमात्र वही; ब्रह्म-योनि:—वेदों के स्रोत; स्वयम्-दृक्—आत्म-प्रकाशित; स्व-महिम—अपनी महिमा में; परिपूर्ण:—अच्छी तरह से पूर्ण; मायया—माया द्वारा; —तथा; स्वया—अपनी; एतत्— यह ब्रह्माण्ड; सृजति—रचता है; हरति—हर लेता है; पाति—पालन करता है; इति आख्यया—इस तरह से कल्पित; अनावृत—खुला; अक्ष:—उसकी दिव्य चेतना; विवृत:—विभक्त; इव—मानो; निरुक्त:—वर्णित; तत्-परै:—उनके द्वारा जो उनके भक्त हैं; आत्म—उनके आत्मा रूप; लभ्य:—प्राप्त होने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ, एकमात्र वे ही आत्म-प्रकाशित, वेदों के आदि स्रोत, पूर्ण तथा अपनी महिमा में पूर्ण हैं। वे अपनी मायाशक्ति से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। चूँकि वे विविध भौतिक कार्यों के कर्ता हैं अतएव कभी कभी उन्हें विभक्त कहा जाता है फिर भी वे शुद्ध ज्ञान में स्थित बने रहते हैं। जो लोग उनकी भक्ति में लगे हुए हैं, वे उन्हें अपनी असली आत्मा के रूप में अनुभव कर सकते हैं।
 
तात्पर्य
 श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की संस्तुति है कि हम निम्नलिखित ध्यान द्वारा विनीत बनें—“मुझे सदैव दिखने वाली पृथ्वी मेरे भगवान् के चरणकमलों का अंश है, जो सदैव ध्यातव्य हैं। समस्त चर तथा अचर प्राणियों ने पृथ्वी की शरण ले रखी है, अत: वे मेरे भगवान् के चरणकमलों में ही शरण पाते हैं। इस कारण मुझे हर जीव का आदर करना चाहिए, किसी से द्वेष नहीं रखना चाहिए। वस्तुत: सारे जीव मेरे प्रभु के वक्षस्थल के कौस्तुभ मणि हैं। इसलिए मैं किसी जीव से न तो ईर्ष्या करूँगा न उसका मजाक उड़ाऊँगा।” इस ध्यान का अभ्यास करके मनुष्य जीवन में सफल बन सकता है।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥