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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 11: महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन  »  श्लोक 47-48
 
 
श्लोक  12.11.47-48 
सामर्ग्यजुर्भिस्तल्ल‍िङ्गैऋर्षय: संस्तुवन्त्यमुम् ।
गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोऽग्रत: ॥ ४७ ॥
उन्नह्यन्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजका: ।
चोदयन्ति रथं पृष्ठे नैऋर्ता बलशालिन: ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
साम-ऋक्-यजुर्भि:—साम, ऋग् तथा यजुर्वेदों के स्तोत्रों द्वारा; तत्-लिङ्गै:—जो सूर्य को प्रकट करते हैं; ऋषय:— ऋषिगण; संस्तुवन्ति—स्तुति करते हैं; अमुम्—उसकी; गन्धर्वा:—गन्धर्वगण; तम्—उसके बारे में; प्रगायन्ति—जोर-जोर से गाते हैं; नृत्यन्ति—नाचती हैं; अप्सरस:—अप्सराएँ; अग्रत:—आगे; उन्नह्यन्ति—कसते हैं; रथम्—रथ को; नागा:— नागजन; ग्रामण्य:—यक्षगण; रथ-योजका:—रथ में घोड़े जोतने वाले; चोदयन्ति—हाँकते हैं; रथम्—रथ; पृष्ठे—पीछे से; नैरृता:—राक्षसगण; बल-शालिन:—बलवान् ।.
 
अनुवाद
 
 एक ओर जहाँ ऋषिगण सूर्यदेव की पहचान को प्रकट करने वाले साम, ऋग् तथा यजुर्वेदों के स्तोत्रों द्वारा सूर्य देव की स्तुति करते हैं, वहीं गन्धर्वगण भी उनकी प्रशंसा करते हैं तथा अप्सराएँ उनके रथ के आगे-आगे नाचती हैं; नागगण रथ की रस्सियों को कसते हैं और यक्षगण रथ में घोड़ों को जोतते हैं जबकि प्रबल राक्षसगण रथ को पीछे से धकेलते हैं।
 
 
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