यह भगवान् का विराट रूप है, जिसमें पृथ्वी उनके पाँव, आकाश उनकी नाभि, सूर्य उनकी आँखें, वायु उनके नथुने, प्रजापति उनके जननांग, मृत्यु उनकी गुदा तथा चन्द्रमा उनका मन है। स्वर्गलोक उनका शिर, दिशाएँ उनके कान तथा विभिन्न लोकपाल उनकी अनेक भुजाएँ हैं। यमराज उनकी भौंहे, लज्जा उनका निचला होठ, लालच उनका ऊपरी होठ, भ्रम उनकी मुसकान तथा चाँदनी उनके दाँत है, जबकि वृक्ष उन सर्वशक्तिमान पुरुष के शरीर के रोम हैं और बादल उनके शिर के बाल हैं।
तात्पर्य
भौतिक जगत के विविध पक्ष, यथा पृथ्वी, सूर्य तथा वृक्ष भगवान् के विराट शरीर के विविध अंगों द्वारा पालित-पोषित हैं। इसलिए वे उनसे अभिन्न माने जाते हैं, जैसाकि इस श्लोक में वर्णन आया है। ये सभी ध्यान के निमित्त हैं।
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