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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 2: कलियुग के लक्षण  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  12.2.1 
श्रीशुक उवाच
ततश्चानुदिनं धर्म: सत्यं शौचं क्षमा दया ।
कालेन बलिना राजन् नङ्‌क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृति: ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तत:—तब; —तथा; अनुदिनम्—दिन प्रतिदिन; धर्म:—धर्म; सत्यम्— सत्य; शौचम्—शुद्धता; क्षमा—सहनशक्ति; दया—दया; कालेन—काल की शक्ति से; बलिना—प्रबल; राजन्—हे राजा परीक्षित; नङ्क्ष्यति—नष्ट हो जायेगी; आयु:—उम्र; बलम्—बल; स्मृति:—स्मरणशक्ति ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, तब कलियुग के प्रबल प्रभाव से धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, शारीरिक बल तथा स्मरणशक्ति दिन प्रतिदिन घटते जायेंगे।
 
तात्पर्य
 जैसाकि इस श्लोक में वर्णन हुआ है, वर्तमान युग, कलियुग, में प्राय: सारे वांछित गुणों का क्रमश: ह्रास होगा। उदाहरणार्थ, उच्चतर सत्ता के प्रति सम्मान के सूचक धर्म का जो धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है, ह्रास होगा।

पाश्चात्य जगत में धर्माधिकारी लोग ईश्वर के नियमों को, या स्वयं ईश्वर को, लोगों के समक्ष वैज्ञानिक रीति से प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे हैं, फलस्वरूप पाश्चात्य बौद्धिक इतिहास में धर्मशास्त्र तथा विज्ञान के मध्य एक कठोर द्वन्द्व उठ खड़ा हुआ है। इस झगड़े से निपटने के उद्देश्य से कुछ धर्माचार्य अपने सिद्धान्तों को संशोधित करने के लिए तैयार हो गये हैं जिससे वे न केवल वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप बने अपितु उन छद्म वैज्ञानिक चिन्तनों तथा धारणाओं के भी अनुरूप हो, जो सिद्ध न होने पर भी विज्ञान के क्षेत्र में कपट से सम्मिलित हो गये हैं। दूसरी ओर वे उन्मादी धर्माचार्य हैं, जिन्हें वैज्ञानिक विधि बिल्कुल मान्य नहीं है और वे अपने पुरातन साम्प्रदायिक अन्धविश्वासों की सत्यता की दुहाई देते हैं।

इस तरह क्रमबद्ध वैदिक धर्मशास्त्र से विहीन, भौतिक विज्ञान स्थूल भौतिकतावाद के विध्वंसक क्षेत्र में चला गया है, जबकि चिन्तनपरक पाश्चात्य दर्शन सापेक्ष नीतिशास्त्र एवं अनिश्चित भाषा-वैज्ञानिक विश्लेषण की ओर बहक गया है। यद्यपि भौतिकतावादी विश्लेषण के प्रति पश्चिम के अनेक सर्वश्रेष्ठ विद्वान समर्पित हैं किन्तु बौद्धिक धारा से कटा हुआ अधिकांश पश्चिम का धार्मिक जीवन असमान उन्मादवाद तथा अवैध योगिक एवं गुह्य सम्प्रदायों से छाया हुआ है। लोग ईश-विज्ञान से इस हद तक अनजान हैं कि वे कभी कभी कृष्णभावनामृत आन्दोलन को धर्म विज्ञान तथा धर्म के कल्पनाशील प्रयासों के इस विषम घालमेल के साथ नत्थी कर देते हैं। इस तरह, सच्चा धर्म जो भगवद्विधि का कठोर चेतन आज्ञा-पालन है, पतन की ओर अग्रसर हो रहा है।

सत्यम् का भी ह्रास हो रहा है क्योंकि लोग यह नहीं जानते कि सत्य है क्या। परब्रह्म को जाने बिना केवल काल्पनिक आपेक्षिक सत्यों का ढेर लगा देने से जीवन के असली महत्त्व या उद्देश्य को स्पष्टया नहीं समझा जा सकता।

क्षमा का भी ह्रास हो रहा है क्योंकि ऐसी कोई व्यावहारिक विधि नहीं जिसके द्वारा लोग अपने को शुद्ध बना सकें और इस तरह ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त हो सकें। जब तक मनुष्य आध्यात्मिक सुधार के किसी प्रामाणिक कार्यक्रम के अन्तर्गत भगवन्नाम कीर्तन करके शुद्ध नहीं हो लेता, तब तक उसका मन क्रोध, ईर्ष्या तथा क्षुद्रता से भरा रहेगा। इस तरह दया का भी ह्रास हो रहा है। सारे जीव ईश्वर के दैवी अस्तित्व में सहभागी होने के कारण शाश्वत रूप से जुड़े हुए हैं। जब नास्तिकता तथा संशयवाद द्वारा ऐसी एकता प्रच्छन्न हो जाती है, तो लोग एक-दूसरे पर दया नहीं दिखाते; वे अन्य जीवों के कल्याण-कार्य को सम्वर्धित करने में अपना स्वार्थ नहीं पहचान पाते। वस्तुत: लोग अपने प्रति भी दयालु नहीं रह जाते। वे मदिरा, नशीली दवाओं, तम्बाकू, मांसाहार, यौन-असंयम तथा जो भी इन्द्रियतृप्ति के सस्ते साधन उपलब्ध हो सकें उनके द्वारा अपने को क्रमबद्ध रूप में विनष्ट करते रहते हैं।

क्योंकि इन सारी आत्मविनाशी आदतों तथा काल के प्रबल प्रभाव से औसत आयु घट रही है। आधुनिक विज्ञानी जनता का विश्वास जीतने के लिए प्राय: आँकडे प्रकाशित करते रहते हैं, जो यह दिखाते प्रतीत होते हैं कि विज्ञान ने औसत आयु बढ़ा दी है। किन्तु ये आँकडे गर्भपात की क्रूर प्रक्रिया द्वारा मारे जाने वाले लोगों की संख्या का कोई लेखाजोखा नहीं बताते। जब हम गर्भपात द्वारा मारे गये बच्चों की संख्या को कुल जनसंख्या की जीवन-संभावना में सम्मिलित कर लेते हैं, तो हम देखते हैं कि कलियुग में औसत आयु बढ़ी नहीं, अपितु बड़े स्तर पर घट रही है।* बलम् अर्थात् शारीरिक बल भी घट रहा है। वैदिक साहित्य बतलाता है कि ५,००० वर्ष पूर्व के युग में मनुष्य तो मनुष्य, पशु तथा पौधे भी लम्बे और अधिक बलवान होते थे। कलियुग के अग्रसर होने के साथ शारीरिक आकार-प्रकार तथा बल में क्रमिक ह्रास आयेगा।

स्मृति तो निश्चित रूप से क्षीण हो रही है। पूर्ववर्ती युगों में मनुष्यों की स्मृति अच्छी थी। और उन्हें आज के जैसे उग्र नौकरशाही एवं तकनीकी समाज से पाला नहीं पड़ता था। इस तरह बिना लिखे ही आवश्यक सूचना तथा विद्या सुरक्षित थी। निस्संदेह, कलियुग में सारी बातों में नाटकीय परिवर्तन आया है।

*१९८४ वर्ष के लिए अमेरिका के आँकड़ों के संक्षेपण के अनुसार, अमेरिका में १९८२ में लगभग ३७ लाख जीवित बच्चों का जन्म हुआ और जन्म के समय की औसत जीवन-संभावना ७४ वर्ष ६ मास थी। किन्तु जब जीवित-जन्म-संख्या में १५ लाख गर्भपात जोड़ दिए गए, तब गर्भित शिशुओं की औसत जीवन-संभावना गिर कर ५३ वर्ष रह गई।

 
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