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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 2: कलियुग के लक्षण  »  श्लोक 27-28
 
 
श्लोक  12.2.27-28 
सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ द‍ृश्येते उदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं द‍ृश्यते यत् समं निशि ॥ २७ ॥
तेनैव ऋषयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।
ते त्वदीये द्विजा: काल अधुना चाश्रिता मघा: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
सप्त-ऋषीणाम्—सात ऋषियों का समूह (पाश्चात्य लोग जिसे उर्स मेजर कहते हैं); तु—तथा; यौ—जो दो नक्षत्र; पूर्वौ— प्रथम; दृश्येते—देखे जाते हैं; उदितौ—उदय हुए; दिवि—आकाश में; तयो:—दोनों (पुलह तथा क्रतु) के; तु—तथा; मध्ये—बीच में; नक्षत्रम्—नक्षत्र; दृश्यते—देखा जाता है; यत्—जो; समम्—उसी रेखा में; निशि—रात्रि के आकाश में; तेन—उस नक्षत्र से; एव—निस्सन्देह; ऋषय:—सप्तर्षिगण; युक्ता:—सम्बद्ध हैं; तिष्ठन्ति—रहते जाते हैं; अब्द-शतम्— एक सौ वर्ष; नृणाम्—मनुष्यों का; ते—ये सप्तर्षि; त्वदीये—आप में; द्विजा:—कुलीन ब्राह्मण; काले—समय में; अधुना—वर्तमान; —तथा; आश्रिता:—स्थित हैं; मघा:—मघा नक्षत्र में ।.
 
अनुवाद
 
 सप्तर्षि मण्डल के सात तारों में से पुलह तथा क्रतु ही सबसे पहले रात्रिकालीन आकाश में उदय होते हैं। यदि उनके मध्य बिन्दु से होकर उत्तर दक्षिण को एक रेखा खींची जाय तो यह जिस नक्षत्र से होकर गुजरती है, वह उस काल का प्रधान नक्षत्र माना जाता है। सप्तर्षिगण एक सौ मानवी वर्षों तक उस विशेष नक्षत्र से जुड़े रहते हैं। सम्प्रति तुम्हारे जीवन-काल में वे मघा नक्षत्र में स्थित हैं।
 
 
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