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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 2: कलियुग के लक्षण  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  12.2.4 
लिङ्गमेवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वच: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
लिङ्गम्—बाह्य प्रतीक; एव—केवल; आश्रम-ख्यातौ—मनुष्य के आश्रम को जानने में; अन्योन्य—पारस्परिक; आपत्ति— विनिमय; कारणम्—कारण; अवृत्त्या—जीविका के अभाव से; न्याय—विश्वसनीयता में; दौर्बल्यम्—दुर्बलता में; पाण्डित्ये—विद्वत्ता में; चापलम्—चालाकी-भरे; वच:—शब्द ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य का आध्यात्मिक पद मात्र बाह्य प्रतीकों से सुनिश्चित होगा और इसी आधार पर लोग एक आश्रम छोड़ कर दूसरे आश्रम को स्वीकार करेंगे। यदि किसी की जीविका उत्तम नहीं है, तो उस व्यक्ति के औचित्य में सन्देह किया जायेगा। और जो चिकनी-चुपड़ी बातें बनाने में चतुर होगा वह विद्वान पंडित माना जायेगा।
 
तात्पर्य
 पिछले श्लोक में बतलाया गया था कि कलियुग में पुरोहित वर्ग केवल बाह्य प्रतीकों के द्वारा पहचाना जायेगा और इस श्लोक में उसी बात को समाज के अन्य वर्गों—राजनैतिक या सैन्य वर्ग, व्यापारी अथवा उत्पादक वर्ग तथा श्रमिकों या कारीगरों—पर भी लागू किया गया है।

आधुनिक समाज शास्त्रियों ने यह दिखा दिया है कि उन समाजों में जिनका संचालन मुख्यता प्रोटेस्टैन्ट नीतिशास्त्र द्वारा होता है, गरीबी को आलस्य, गंदगी, मूर्खता, अनैतिकता तथा व्यर्थता का चिह्न माना जाता है। किन्तु ईश-भावनाभावित समाज में अनेक व्यक्ति स्वेच्छा से अपना जीवन ज्ञान तथा अध्यात्म की खोज में समर्पित करते हैं, भौतिक उपलब्धि के लिए नहीं। इस तरह सरल तथा तपस्यामय जीवन के लिए वरीयता, बुद्धि, आत्मसंयम तथा जीवन के उच्च आदर्श के प्रति संवेदनशीलता को सूचित कर सकती है। निस्सन्देह, गरीबी (निर्धनता) से इन गुणों की स्थापना अपने आप नहीं होती किन्तु कभी कभी उनका परिणाम हो सकती है। किन्तु कलियुग में प्राय: इस सम्भावना को भुला दिया जाता है।

बौद्धिकता इस मोहने वाले कलियुग की अन्य दुर्घटना है। आधुनिक तथाकथित दार्शनिकों तथा विज्ञानियों ने विद्या के हर क्षेत्र में ऐसी पारिभाषिक शब्दावली बना ली है कि जब वे भाषण देते हैं, तो लोग उन्हें इसलिए विद्वान समझते हैं क्योंकि वे जो बोलते हैं उसे अन्य कोई नहीं समझ सकता। पाश्चात्य संस्कृति में ग्रीक अध्यापक सर्वप्रथम लोग थे, जो बुद्धिमत्ता तथा शुद्धि से भी ऊपर अलंकार तथा दक्षता पर वाद-विवाद करते थे। बीसवीं सदी में तो धोखाधड़ी पल्लवित हो ही रही है। आधुनिक विश्वविद्यालयों में नाममात्र की बुद्धिमत्ता है यद्यपि टेक्निकल आँकडे अनन्त हैं। यद्यपि अनेक आधुनिक चिन्तक उच्चतर आध्यात्मिक सत्य से अनजान होते हैं, किन्तु वे बहुत अच्छे “वक्ता” होते हैं और अधिकांश लोग उनके अज्ञान को भाँप नहीं पाते।

 
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