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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 2: कलियुग के लक्षण  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  12.2.43 
तेजोऽबन्नमयं कायं गृहीत्वात्मतयाबुधा: ।
महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेऽदर्शनं गता: ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
तेज:—अग्नि; अप्—जल; अन्न—तथा पृथ्वी; मयम्—से बना; कायम्—यह शरीर; गृहीत्वा—स्वीकार करके; आत्मतया—“मैं” भाव से; अबुधा:—मूर्ख; महीम्—इस पृथ्वी को; ममतया—“मेरे” भाव से; —तथा; उभौ—दोनों; हित्वा—त्याग कर; अन्ते—अन्तत:; अदर्शनम्—अन्तर्धान; गता:—हो गये ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि मूर्ख लोग पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर को “मैं” और इस पृथ्वी को “मेरी” स्वीकार करते हैं, किन्तु अन्तत: उन सबों को अपना शरीर तथा पृथ्वी दोनों त्यागना पड़ा और वे विस्मृति के गर्भ में चले गये।
 
तात्पर्य
 यद्यपि आत्मा शाश्वत है, हमारी तथाकथित पारिवारिक परंपरा तथा पार्थिव यश निश्चित रूप से विस्मृत हो जायेंगे।
 
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