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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 6: महाराज परीक्षित का निधन  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में महाराज परीक्षित के मुक्ति-लाभ, महाराज जनमेजय द्वारा सारे सर्पों को मारने के लिए यज्ञ सम्पन्न का होना, वेदों की उत्पत्ति तथा श्रील वेदव्यास द्वारा...
 
श्लोक 1:  सूत गोस्वामी ने कहा : व्यासदेव के पुत्र, स्वरूपसिद्ध तथा समदृष्टि वाले शुकदेव गोस्वामी द्वारा जो कुछ कहा गया था उसे सुन कर महाराज परीक्षित नम्रतापूर्वक उनके चरणकमलों के पास गये। मुनि के चरणों पर अपना शीश झुकाते हुए, सम्मान में हाथ जोड़े, जीवन-भर भगवान् विष्णु के संरक्षण में रह चुके राजा ने इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 2:  महाराज परीक्षित ने कहा : अब मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया है क्योंकि आप सरीखे महान् तथा दयालु आत्मा ने मुझ पर इतनी कृपा प्रदर्शित की है। आपने स्वयं मुझसे आदि अथवा अन्त से रहित भगवान् हरि की यह कथा कही है।
 
श्लोक 3:  मैं इसे तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं मानता कि आप जैसे महात्मा, जिनके मन सदैव अच्युत भगवान् में लीन रहते हैं, हम जैसे मूर्ख बद्धजीवों पर दया दिखाते हैं, जो भौतिक जीवन की समस्याओं से सताये होते हैं।
 
श्लोक 4:  मैंने आपसे यह श्रीमद्भागवत का श्रवण किया है, जो सारे पुराणों का पूर्ण सार है और जो भगवान् उत्तमश्लोक का ठीक से वर्णन करता है।
 
श्लोक 5:  हे प्रभु, अब मुझे तक्षक या अन्य जीव का या बारम्बार मृत्यु का भी भय नहीं रहा क्योंकि मैंने अपने को उस विशुद्ध आध्यात्मिक परब्रह्म में लीन कर दिया है, जिसका उद्धाटन आपने किया है और जो सारे भय को नष्ट कर देता है।
 
श्लोक 6:  हे ब्राह्मण, मुझे अनुमति दें कि मैं अपनी वाणी तथा अपनी अन्य इन्द्रियों के कार्यों को बन्द करके भगवान् अधोक्षज को सौंप सकूँ। कृपया मुझे अनुमति दें कि मैं अपने मन को विषय-वासनाओं से शुद्ध करके उन्हीं में लीन कर सकूँ और इस तरह अपना जीवन त्याग सकूँ।
 
श्लोक 7:  आपने भगवान् के परम मंगलमय साकार रूप का साक्षात्कार कराया है। अब मैं ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार में स्थिर हूँ और मेरा अज्ञान मिट चुका है।
 
श्लोक 8:  सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने पर श्रील व्यासदेव के पुत्र ने राजा परीक्षित को अनुमति दे दी। तत्पश्चात् राजा तथा वहाँ पर उपस्थित मुनियों द्वारा पूजित होकर शुकदेव उस स्थान से चले गये।
 
श्लोक 9-10:  तब महाराज परीक्षित पूर्वाभिमुख दर्भ के बने आसन पर गंगा नदी के तट पर बैठ गये और स्वयं उत्तर की ओर मुख कर लिया। योगसिद्धि प्राप्त करने के बाद उन्हें पूर्ण आत्म- साक्षात्कार की अनुभूति हुई और वे समस्त भौतिक आसक्ति तथा संशय से मुक्त थे। साधु राजा ने अपनी शुद्ध बुद्धि से अपने मन को अपने आत्मा के भीतर स्थिर कर लिया और परब्रह्म का ध्यान करने लगे। उनकी प्राणवायु ने गति करनी बन्द कर दी और वे वृक्ष की तरह जड़ हो गये।
 
श्लोक 11:  हे विद्वान ब्राह्मणो, ब्राह्मण के क्रुद्ध पुत्र द्वारा भेजा गया तक्षक सर्प राजा को मारने के लिए उसकी ओर जा रहा था कि उसने मार्ग में कश्यप मुनि को देखा।
 
श्लोक 12:  तक्षक ने कश्यप मुनि को, जोकि विष उतारने में दक्ष थे, बहुमूल्य भेंटे देकर महाराज परीक्षित की रक्षा करने से रोक दिया। तब इच्छानुसार रूप धारण करने वाला तक्षक, जोकि ब्राह्मण के वेश में था, राजा के निकट गया और उसे काट लिया।
 
श्लोक 13:  ब्रह्माण्ड-भर के जीवों के देखते-देखते उस स्वरूपसिद्ध राजर्षि का शरीर सर्प-विष की अग्नि से तुरन्त जल कर राख हो गया।
 
श्लोक 14:  पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में सभी दिशाओं में भीषण हाहाकार होने लगा और सारे देवता, असुर, मनुष्य तथा अन्य प्राणी चकित हो उठे।
 
श्लोक 15:  देव-लोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और स्वर्ग के गन्धर्वों तथा अप्सराओं ने गीत गाये। देवताओं ने फूलों की वर्षा की तथा प्रशंसात्मक शब्द कहे।
 
श्लोक 16:  यह सुन कर कि उसके पिता को तक्षक ने बुरी तरह से डस कर मार दिया है, महाराज जनमेजय अत्यधिक क्रुद्ध हुए और ब्राह्मणों से एक विशाल यज्ञ कराया जिसमें उन्होंने संसार के सारे सर्पों को यज्ञ-अग्नि में भेंट कर दिया।
 
श्लोक 17:  जब तक्षक ने अत्यन्त शक्तिशाली सर्पों को भी उस सर्प-यज्ञ की प्रज्ज्वलित अग्नि में जलाया जाते देखा, तो वह भय से आकुल हो उठा और शरण के लिए इन्द्र के पास पहुँचा।
 
श्लोक 18:  जब राजा जनमेजय ने तक्षक को यज्ञ-अग्नि में प्रवेश करते नहीं देखा तो उन्होंने ब्राह्मणों से कहा, “समस्त सर्पों में नीच वह तक्षक इस अग्नि में क्यों नहीं जल रहा?”
 
श्लोक 19:  ब्राह्मणों ने उत्तर दिया : “हे राजेन्द्र, तक्षक सर्प इसलिए अग्नि में नहीं गिरा क्योंकि इन्द्र द्वारा उसकी रक्षा हो रही है, जिसके पास वह शरण के लिए पहुँचा है। इन्द्र उसे अग्नि से बचाये हुए है।
 
श्लोक 20:  इन शब्दों को सुन कर बुद्धिमान राजा जनमेजय ने पुरोहितों से कहा, “तो हे ब्राह्मणो, तुम लोग तक्षक को, उसके रक्षक इन्द्र सहित, अग्नि में क्यों नहीं गिरा लेते?”
 
श्लोक 21:  यह सुन कर पुरोहितों ने इन्द्र समेत तक्षक को यज्ञ-अग्नि में आहुति के रूप अर्पित करने के लिए यह मंत्र पढ़ा, “हे तक्षक, तुम इस अग्नि में इन्द्र तथा उनके देवताओं के समूह सहित तुरन्त गिर पड़ो।”
 
श्लोक 22:  जब ब्राह्मणों के इन अपमानजनक शब्दों के कारण इन्द्र अपने विमान तथा तक्षक समेत सहसा अपने स्थान से च्युत होने लगा, तो वह अत्यन्त घबड़ा गया।
 
श्लोक 23:  जब अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्पति ने इन्द्र को तक्षक समेत आकाश से उसके विमान से गिरते देखा तो वह राजा जनमेजय के पास पहुँचा और उनसे इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 24:  “हे पुरुषों में राजा, यह उचित नहीं है कि यह सर्पराज आपके हाथों से मौत को प्राप्त हो क्योंकि इसने अमर देवताओं का अमृत पी रखा है। फलस्वरूप, इसे बुढ़ापा तथा मृत्यु के सामान्य लक्षण नहीं सताते।”
 
श्लोक 25:  “देहधारी आत्मा का जीवन तथा मरण और अगले जीवन में उसका गन्तव्य—ये सभी उसके ही अपने कर्म द्वारा उत्पन्न होते हैं। इसलिए हे राजन्, किसी के सुख तथा दुख को उत्पन्न करने के लिए वास्तव में कोई अन्य अभिकर्ता उत्तरदायी नहीं है।”
 
श्लोक 26:  “जब बद्धजीव सर्पों, चोरों, अग्नि, बिजली, भूख, रोग या अन्य किसी कारण से मारा जाता है, तो वह अपने ही विगत कर्म के फल का अनुभव करता है।”
 
श्लोक 27:  “इसलिए हे राजा, इस यज्ञ को जो अन्यों को हानि पहुँचाने की मंशा से चालू किया गया है, बन्द करा दें। अनेक निर्दोष सर्प पहले ही जला कर मार दिये गये हैं। निस्सन्देह सारे व्यक्तियों को अपने विगत कर्मों के अदृष्ट परिणामों को भोगना चाहिए।”
 
श्लोक 28:  सूत गोस्वामी ने कहा : इस तरह सलाह दिये जाने पर महाराज जनमेजय ने उत्तर दिया, “तथास्तु”। महर्षि के वचनों का आदर करते हुए उन्होंने सर्प-यज्ञ बन्द करा दिया और फिर अत्यन्त वाक्पटु मुनि बृहस्पति की पूजा की।
 
श्लोक 29:  यह निस्सन्देह भगवान् विष्णु की मायाशक्ति है, जो अबाध्य है और जिसे देख पाना कठिन है। यद्यपि व्यष्टि आत्माएँ भगवान् की भिन्नांश हैं, किन्तु इस मायाशक्ति के प्रभाव से, वे विविध भौतिक शरीरों के साथ अपनी पहचान से विमोहित हैं।
 
श्लोक 30-31:  किन्तु एक परम सत्य होता है, जिसमें माया यह सोचते हुए कि, “मैं इस व्यक्ति को वश में कर सकती हूँ क्योंकि यह कपटी है” निर्भय होकर अपना प्रभुत्व नहीं दिखा सकती। सर्वोच्च सत्य में मायामय तर्क-वितर्क के दर्शन नहीं होते। प्रत्युत उसमें अध्यात्म विद्या के असली जिज्ञासु निरन्तर प्रमाणित आध्यात्मिक शोध में लगे रहते हैं। उस परम सत्य में भौतिक मन की अभिव्यक्ति नहीं होती, जो कभी निर्णय तो कभी संशय के रूप में कार्य करता है। सृजित वस्तुएँ, उनके सूक्ष्म कारण और उनके उपयोग से प्राप्त आनन्द के लक्ष्य वहाँ विद्यमान नहीं रहते। यही नहीं, उस परम सत्य में मिथ्या अहंकार तथा तीन गुणों से आच्छादित कोई बद्ध आत्मा नहीं होता। वह सत्य प्रत्येक सीमित अथवा असीमित वस्तु को अपने से अलग करता है। इसलिए जो बुद्धिमान है उसे चाहिए कि भौतिक जीवन की तरंगों को रोक कर परम सत्य के भीतर आनन्द लूटे।
 
श्लोक 32:  जो लोग उन सारी वस्तुओं को बाह्य के निषेध द्वारा त्याग देना चाहते हैं, जो वास्तव में सत्य नहीं है, वे भगवान् विष्णु के परम पद की ओर नियमित रूप से आगे बढ़ते जाते हैं। वे क्षुद्र भौतिकता को त्याग कर अपने हृदयों के भीतर परब्रह्म को ही अपना प्रेम प्रदान करते हैं और स्थिर ध्यान में उस सर्वोच्च सत्य का आलिंगन करते हैं।
 
श्लोक 33:  ऐसे भक्त भगवान् विष्णु के परम आध्यात्मिक पद को समझ पाते हैं क्योंकि वे “मैं” तथा “मेरा” के विचारों से, जो शरीर तथा घर पर आधारित हैं, दूषित नहीं होते।
 
श्लोक 34:  मनुष्य को सारा अपमान सहन कर लेना चाहिए और किसी व्यक्ति के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित करने से चूकना नहीं चाहिए। भौतिक शरीर से पहचान बनाने से बचते हुए मनुष्य को किसी के साथ शत्रुता उत्पन्न नहीं करनी चाहिए।
 
श्लोक 35:  मैं अनवरुद्ध भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके चरणकमलों पर ध्यान धरने से ही मैं इस महान् ग्रंथ का अध्ययन कर सका और इसकी सराहना कर सका।
 
श्लोक 36:  शौनक ऋषि ने कहा : हे सौम्य सूत, कृपा करके हमें बतलायें कि किस तरह पैल तथा श्रील व्यासदेव के अत्यन्त परम बुद्धिमान शिष्यों ने, जो कि वैदिक विद्या के आदर्श अधिकारी माने जाते हैं, वेदों का प्रवचन तथा सम्पादन किया।
 
श्लोक 37:  सूत गोस्वामी ने कहा : हे ब्राह्मण, दिव्य ध्वनि की प्रथम सूक्ष्म गूँज सर्वश्रेष्ठ ब्रह्माजी के हृदयरूपी आकाश से प्रकट हुई जिनका मन आध्यात्मिक साक्षात्कार में पूरी तरह स्थिर था। इस सूक्ष्म गूँज का अनुभव कोई भी व्यक्ति कर सकता है जब वह अपनी सारी बाह्य श्रवण क्रिया को रोक लेता है।
 
श्लोक 38:  हे ब्राह्मण, वेदों के इस सूक्ष्म रूप की पूजा द्वारा योगीजन वस्तु की अशुद्धि, क्रिया तथा कर्ता से उत्पन्न सारे कल्मष से अपने हृदयों को स्वच्छ बनाते हैं और इस तरह वे बारम्बार जन्म-मृत्यु से छुटकारा प्राप्त कर लेते हैं।
 
श्लोक 39:  उस दिव्य सूक्ष्म गूँज से तीन मात्राओं वाला ॐकार उत्पन्न हुआ। ॐकार में अदृश्य शक्तियाँ हैं और यह शुद्ध हृदय के भीतर अपने आप प्रकट होता है। यह परब्रह्म की तीनों अवस्थाओं—भगवान्, परमात्मा तथा परम निर्विशेष सत्य—में उनका स्वरूप है।
 
श्लोक 40-41:  यह ॐकार, जोकि अन्तत: अभौतिक तथा अश्रव्य होता है, उसे परमात्मा कान या कोई अन्य इन्द्रियाँ न होते हुए भी सुनता है। वैदिक ध्वनि का पूरा विस्तार ॐकार से ही हुआ है, जो हृदय के आकाश के भीतर आत्मा से प्रकट होता है। यह स्व-जन्मा परब्रह्म परमात्मा की प्रत्यक्ष उपाधि है और गुह्य सार तथा समस्त वैदिक स्तोत्रों का नित्य बीज है।
 
श्लोक 42:  ॐकार से अ, उ तथा म वर्णों की तीन मौलिक ध्वनियाँ प्रकट हुईं। हे भृगुवंशियों में प्रसिद्ध, ये तीनों भौतिक जगत के तीन विभिन्न पक्षों को धारण करते हैं जिनमें प्रकृति के तीन गुण ऋक्, यजुर् तथा साम वेदों के नाम से, भूर्, भुवर् तथा स्वर् लोकों के नाम से विख्यात लक्ष्य तथा जागृत, सुप्त एवं सुषुप्त नामक तीन वृत्तियाँ धारण करते हैं।
 
श्लोक 43:  ब्रह्मा ने ॐकार से अक्षर की सारी ध्वनियाँ—स्वर, व्यंजन, अर्धस्वर, उष्म, स्पर्श इत्यादि उत्पन्न कीं जो ह्रस्व तथा दीर्घ माप जैसे गुणों से विभेदित की जाती हैं।
 
श्लोक 44:  सर्वशक्तिमान ब्रह्मा ने ध्वनियों के इस समूह का उपयोग अपने चार मुखों से चार वेदों को उत्पन्न करने के लिए किया जो पवित्र ॐकार तथा सात व्याहृतियों समेत प्रकट हुए। उनका अभीष्ट वैदिक यज्ञ विधि को चार वेदों में से प्रत्येक के पुरोहितों द्वारा सम्पन्न विभिन्न कार्यों तक विस्तार देना था।
 
श्लोक 45:  ब्रह्मा ने इन वेदों की शिक्षा अपने पुत्रों को दी जो ब्राह्मणों में ब्रह्मर्षि थे और वैदिक वाचन-कला में पटु थे। फिर उन्होंने स्वयं आचार्यों की भूमिका ग्रहण की और अपने-अपने पुत्रों को वेदों की शिक्षा दी।
 
श्लोक 46:  इस तरह चतुर्युग के सारे चक्रों में दृढ़व्रत शिष्यों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी ने परम्परा द्वारा इन वेदों को प्राप्त किया। प्रत्येक द्वापर युग के अन्त में इन वेदों को प्रसिद्ध मुनिगण पृथक् विभागों में संपादित करते हैं।
 
श्लोक 47:  यह देख कर कि काल के प्रभाव से सामान्यतया लोगों की आयु, शक्ति तथा बुद्धि घटती जा रही है, महामुनियों ने अपने हृदयों में स्थित भगवान् से प्रेरणा ली और वेदों का क्रमबद्ध विभाजन कर दिया।
 
श्लोक 48-49:  हे ब्राह्मण, वैवस्वत मनु के वर्तमान युग में, ब्रह्मा, शिव इत्यादि ब्रह्माण्ड के नायकों ने समस्त जगतों के रक्षक भगवान् से धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की। हे परम भाग्यवान शौनक, तब अपने स्वांश के अंश का दैवी स्फुलिंग प्रदर्शित करतेहुए पराशर के पुत्र के रूप में सत्यवती के गर्भ से भगवान् प्रकट हुए। इस रूप में, जिसे कृष्ण द्वैपायन व्यास कहते हैं, उन्होंने एक वेद के चार भाग कर दिये।
 
श्लोक 50:  श्रील व्यासदेव ने ऋग्, अथर्व, यजुर् तथा साम वेदों के मंत्रों को चार वर्गों में विलग कर दिया जिस तरह मणियों के मिले-जुले संग्रह में से ढेरियाँ लगा दी जाती हैं। इस तरह उन्होंने चार पृथक्-पृथक् वैदिक ग्रंथों की रचना की।
 
श्लोक 51:  अत्यन्त शक्तिमान तथा बुद्धिमान व्यासदेव ने अपने चार शिष्यों को बुलाया और हे ब्राह्मण, उनमें से हर एक को इन चार संहिताओं में से एक-एक का भार सौंप दिया।
 
श्लोक 52-53:  श्रील व्यासदेव ने प्रथम संहिता ऋग्वेद की शिक्षा पैल को दी और इस संग्रह का नाम बह्वृच रखा। मुनि वैशम्पायन से उन्होंने यजुर्मंत्रों का संग्रह, निगद, का प्रवचन किया। उन्होंने जैमिनि को सामवेद के मंत्रों की शिक्षा दी जिनका नाम छन्दोग संहिता था और अपने प्रिय शिष्य सुमन्तु से उन्होंने अथर्ववेद कहा।
 
श्लोक 54-56:  अपनी संहिता को दो भागों में विभक्त करने के बाद विद्वान पैल ने इसे इन्द्रप्रमिति तथा बाष्कल को बताया। हे भार्गव, बाष्कल ने अपने संग्रह को पुन: चार भागों में विभाजित कर दिया और उन्हें अपने चार शिष्यों—बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर तथा अग्निमित्र को पढ़ाया। आत्मसंयमी ऋषि इन्द्रप्रमिति ने अपनी संहिता विद्वान योगी माण्डूकेय को पढ़ाई जिसके शिष्य देवमित्र ने आगे चल कर सौभरि तथा अन्यों को ऋग्वेद के सारे विभाग दे दिये।
 
श्लोक 57:  माण्डूकेय के पुत्र शाकल्य ने अपनी संहिता को पाँच भागों में बाँट दिया और इनमें से प्रत्येक उपविभाग वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य तथा शिशिर को सौंप दिये।
 
श्लोक 58:  मुनि जातूकर्ण्य भी शाकल्य का शिष्य था। उसने शाकल्य से प्राप्त संहिता के तीन विभाग किये और उसमें एक चौथा अनुभाग वैदिक शब्द संग्रह (निरुक्त) का जोड़ दिया। उसने इन चारों भागों में से एक-एक विभाग अपने चार शिष्यों—बलाक, द्वितीय पैल, जाबाल तथा विरज को पढ़ाया।
 
श्लोक 59:  बाष्कलि ने, ऋग्वेद की समस्त शाखाओं से, वालखिल्य संहिता तैयार की। यह संहिता वालायनि, भज्य तथा काशार को प्राप्त हुई।
 
श्लोक 60:  इन सन्त ब्राह्मणों ने ऋग्वेद की इन विविध संहिताओं को शिष्य-परम्परा द्वारा बनाये रखा। वैदिक स्तोत्रों के इस विभाजन को सुनने मात्र से मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है।
 
श्लोक 61:  वैशम्पायन के शिष्य अथर्ववेद के आचार्य बने। वे चरक कहलाते थे क्योंकि उन्होंने अपने गुरु को ब्राह्मण-हत्या के पाप से मुक्त कराने के लिए कठिन व्रत किए थे।
 
श्लोक 62:  एक बार वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्य ने कहा “हे प्रभु, आपके इन निर्बल शिष्यों के दुर्बल प्रयासों से कितना लाभ प्राप्त किया जा सकता है? मैं स्वयं कुछ अद्वितीय तपस्या करूँगा।
 
श्लोक 63:  ऐसा कहे जाने पर गुरु वैशम्पायन क्रुद्ध हो उठे और कहा : “यहाँ से निकल जाओ! अरे ब्राह्मणों का अपमान करने वाले शिष्य! बहुत हो चुका। तुम तुरन्त ही वह सब लौटा दो जो मैंने तुम्हें पढ़ाया है।”
 
श्लोक 64-65:  तब देवरात पुत्र याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद के मंत्र उगल दिए और वहाँ से चला गया। इन यजुर्मंत्रों को ललचाई दृष्टि से देख रहे एकत्र शिष्यों ने तीतरों का रूप धारण करके उन्हें चुग लिया। इसलिए यजुर्वेद के ये विभाग अत्यन्त सुन्दर तैत्तिरीय संहिता अर्थात् तीतरों द्वारा संकलित मंत्र के नाम से विख्यात हुए।
 
श्लोक 66:  हे ब्राह्मण शौनक, तब याज्ञवाल्क्य ने ऐसे नवीन यजुर्मंत्रों की खोज करनी चाही जो उसके गुरु को भी ज्ञात न हों। इसे मन में रख कर उसने शक्तिशाली सूर्य देव की ध्यानपूर्वक पूजा की।
 
श्लोक 67:  श्री याज्ञवल्क्य ने कहा : मैं सूर्य देव के रूप में प्रकट भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ। आप चार प्रकार के जीवों के जिनमें ब्रह्मा से लेकर घास की पत्ती तक सम्मिलित हैं, नियन्ता के रूप में उपस्थित हैं। जिस तरह आकाश हर जीव के भीतर तथा बाहर विद्यमान रहता है, उसी तरह आप परमात्मा रूप में सभी के हृदयों के भीतर तथा काल रूप में उनके बाहर उपस्थित रहते हैं। जिस तरह आकाश उसमें विद्यमान बादलों से आच्छादित नहीं हो सकता उसी तरह आप मिथ्या भौतिक उपाधि से कभी प्रच्छन्न नहीं होते। एक वर्ष क्षण, लव तथा निमेष जैसे लघु काल-खण्डों से बना है और वर्षों के प्रवाह से आप जल को सुखा कर तथा पुन: उसे वर्षा के रूप में जगत को प्रदान करके, उसका अकेले ही पालन-पोषण करते हैं।
 
श्लोक 68:  हे चमकने वाले, हे शक्तिमान सूर्य देव, आप सारे देवताओं में प्रमुख हैं। मैं आपके तेज मण्डल का मनोयोग से ध्यान करता हूँ क्योंकि जो कोई परम्परा से प्राप्त वैदिक विधि द्वारा प्रतिदिन आपकी तीन बार स्तुति करता है, उसके सारे पापकर्मों, सारे परवर्ती कष्टों तथाइच्छा के मूल बीज तक को आप जला देते हैं।
 
श्लोक 69:  आप उन समस्त जड़ तथा चेतन जीवों के हृदयों में अन्तर्यामी प्रभु के रूप में उपस्थित रहते हैं, जो पूरी तरह आपकी शरण पर आश्रित हैं। निस्सन्देह आप उनके मनों, इन्द्रियों तथा प्राणों को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं।
 
श्लोक 70:  यह संसार अंधकार रूपी अजगर के विकराल मुख में पड़ कर निगला जा चुका है और इस तरह अचेत है, मानो मृत है। किन्तु आप संसार के सोते हुए लोगों पर कृपापूर्ण दृष्टि फेरते हुए, अपनी दृष्टि के उपहार से उन्हें जगाते हैं। इस तरह आप सर्वाधिक करुणाकर हैं। प्रतिदिन तीनों पवित्र संधियों पर आप पुण्यात्माओं को परम श्रेयस मार्ग में लगाते हैं और उन्हें धार्मिक कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं जिससे वे आध्यात्मिक पद को प्राप्त होते हैं।
 
श्लोक 71:  आप पृथ्वी के राजा की ही तरह सर्वत्र विचरण करते हुए असाधुओं के बीच भय फैलाते हैं और दिशाओं के शक्तिमान देव हाथ जोड़ कर आपको कमल के फूल तथा अन्य आदरपूर्ण भेंटे प्रदान करते हैं।
 
श्लोक 72:  इसलिए हे प्रभु, मैं आपकी स्तुति करते हुए आप के उन चरणों तक पहुँचना चाहता हूँ जिनका सम्मान तीनों लोकों के आध्यात्मिक स्वामी करते हैं क्योंकि मैं आप से यजुर्वेद के उन मंत्रों को पाने के लिए आशान्वित हूँ जो अन्य किसी को ज्ञात नहीं हैं।
 
श्लोक 73:  सूत गोस्वामी ने कहा : ऐसी स्तुति से प्रसन्न होकर शक्तिशाली सूर्य देव ने घोड़े का रूप धारण कर लिया और याज्ञवल्क्य मुनि को वे यजुर्मंत्र प्रदान किये जो मानव समाज में पहले अज्ञात थे।
 
श्लोक 74:  यजुर्वेद के इन सैकड़ों मंत्रों से शक्तिशाली मुनि ने वैदिक वाङ्मय की पन्द्रह नवीन शाखाएँ बनाईं। ये वाजसनेयि संहिता के नाम से विख्यात हुईं क्योंकि वे घोड़े के अयालों से उत्पन्न हुई थीं और इन्हें काण्व, माध्यन्दिन तथा अन्य ऋषियों के अनुयायियों ने शिष्य परम्परा में स्वीकार कर लिया।
 
श्लोक 75:  सामवेद के अधिकारी जैमिनि ऋषि के सुमन्तु नाम का पुत्र था और सुमन्तु का पुत्र सुत्वान था। जैमिनि मुनि ने उनमें से हर एक को सामवेद संहिता के विभिन्न अंग सुनाये।
 
श्लोक 76-77:  जैमिनि का दूसरा शिष्य सुकर्मा महान् पंडित था। उसने सामवेद रूपी विशाल वृक्ष को एक हजार संहिताओं में बाँट दिया। तब हे ब्राह्मण, सुकर्मा के तीन शिष्यों—कुशलपुत्र हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि तथा आध्यात्मिक साक्षात्कार में अग्रणी आवन्त्य—ने साम मंत्रों का भार सँभाला।
 
श्लोक 78:  पौष्यञ्जि तथा आवन्त्य के ५०० शिष्य सामवेद के उदीच्य गायक के नाम से प्रसिद्ध हुए और बाद में उनमें से कुछ तो प्राच्य गायक भी कहलाने लगे।
 
श्लोक 79:  पौष्यञ्जि के पाँच अन्य शिष्यों, लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुशीद तथा कुक्षि में से हर एक को एक-एक सौ संहिताएँ मिलीं।
 
श्लोक 80:  हिरण्यनाभ के शिष्य कृत ने अपने शिष्यों से चौबीस संहिताएँ कहीं और शेष संहिताएँ स्वरूपसिद्ध मुनि आवन्त्य द्वारा आगे चलाई गईं।
 
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