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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 9: मार्कण्डेय ऋषि को भगवान् की मायाशक्ति के दर्शन  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  12.9.13 
अन्तर्बहिश्चाद्भ‍िरतिद्युभि: खरै:
शतह्रदाभिरुपतापितं जगत् ।
चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनि-
र्जलाप्लुतां क्ष्मां विमना: समत्रसत् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
अन्त:—भीतर से; बहि:—बाहर से; —तथा; अद्भि:—जल से; अति-द्युभि:—आकाश से भी ऊपर उठती; खरै:— प्रचण्ड (वायु से); शत-ह्रदाभि:—बिजली की चमक से; उपतापितम्—अत्यन्त दुखी; जगत्—ब्रह्माण्ड के सारे निवासी; चतु:-विधम्—चार प्रकार के (उद्भिज, अण्डज, स्वेदज, जरायुज); वीक्ष्य—देख कर; सह—साथ; आत्मना—अपने; मुनि:—मुनि; जल—जल से; आप्लुताम्—आप्लावित; क्ष्माम्—पृथ्वी; विमना:—उदास; समत्रसत्—डर गया ।.
 
अनुवाद
 
 ऋषि ने अपने सहित ब्रह्माण्ड के सारे निवासियों को देखा जो तेज वायु, बिजली के वज्रपात तथा आकाश से भी ऊपर तक उठने वाली बड़ी-बड़ी लहरों से भीतर और बाहर से सताये जा रहे थे। ज्योंही सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई, वे उदास तथा भयभीत हो उठे।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर चतुर्विधम् शब्द बद्धजीवों के जन्म के चार स्रोतों—भ्रूण, अण्डे, बीज तथा स्वेद—का सूचक है।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥